मंगलवार, अप्रैल 09, 2019

बुंदेली छंद - पीर मोसे मन की कही न जाये- डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

बुंदेली छंद

पीर मोसे मन की कही न जाए मोरी बिन्ना, बिरहा की अगन में जिया जरो जाए है ।।
जाने कैसे निठुर से नैना भये चार मोरे,
देख दशा मोरी मंद मंद मुस्काए है ।।
फागुनी बयार चली खेत गांव गली गली,
रंग की उमंग में तरंग चढ़ी जाए है ।।
टेरू तो सुनत नइयां बतियां मोरी कछु
दूर दूर भाग रये मों सो बिचकाय है।।

मोहे ना सजाओ मोरे माथे ना लगाओ बेंदी पिया मोसे रूठे मोहे कछु नहीं भाये है ।।
ऐसी कौन भूल गई मोसे मैं विचारूं भौत
बेर बेर सोचूं कछु समझ न आए है ।।
द्वार सारे बंद भये सखी सुख की गैल के
दुख ने किवरिया पे तारे चटकाए हैं ।।
जिया को उबारे कौन तारन की कुची धरे
पिया इत उत फिरें अब लौं रिसाए हैं।।

मैंने तो मनाओ बहुत चार बेर दस बेर
कहां लौं मनाऊं मोरे होंठाई पिराने हैं।।
सुने ना सुनाएं कछु मनई मगन रहें,
जाने की की बातन में सुध बिसराने हैं।।
मोरे तो जिया में जेई उपजत बेर बेर ,
नैनवा पिया के कहीं और उरझाने हैं ।।
मोहे जा बतारी बिन्ना तोहे है कसम मोरी,
मोसे नोनी को है,जा पे पिया जी रिझाने हैं।।

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