मंगलवार, अप्रैल 09, 2019

बुंदेली पर्यावरणीय छंद .... डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

काट-काट जंगल खों,
बस्तियां बसाय दईं
मूंड़ धरे घुटनों पे
सबई अब रोए हैं।
‘पर्यावरण’ की मनो
ऐसी- तैसी कर डारी
बेई फल मिलहें जाके
बीजा हमने बोए हैं।
गरमी के मारे सबई
भुट्टा घाईं भुन रए
‘वर्षा’ खों टेर- टेर
बदरा खों रोय हैं।
कछू तो सरम करो
ऐसो- कैसो स्वारथ है
दूध की मटकिया में
मट्ठा जा बिलोए हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें