मंगलवार, अप्रैल 16, 2019

बुंदेली दोहे... बुंदेली माटी कहे - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh


कोनउ को परवा नईं, सूखे नदिया- ताल।
हो रइ कैसी दुरदसा, फैलो स्वारथ जाल।।

अपनो घर भरबे मगन, जो सक्छम कहलाय।
औरन पे लातें धरे, अपनो पेट भराय।।

बातन के सबरे धनी, छूछे सब बतकाव।
इते बतासा घोर के, उते दे रये घाव।।

मोड़ा- मोड़ी हींड़ रय, रोजगार की बाट।
बब्बा जू सोये परे, उल्टी हो रयी खाट ।।

छुटभैया नेता फिरैं, ऊंसइ  से बेभाव ।
उते मुड़ावें मूंछ बे, इते दिखा रय ताव ।।

उनके एंगर आज लों, बातन को है जाल।
देत फंकाई घर भरैं, उनको जेई कमाल ।।

बिड़ी फूंकबे बैठ के, भूले सबरे काज।
जुआ खेल पकरे गये, सट्टा खेलत आज।।

सबकी उलझी है इते, को की को सुलझाय।
जिनगी बा डोरी भई, छोर न पकरो जाय।।

गौ माता भूखी फिरै, ज्यों आवारा ढोर।
सुध कोऊ ना लेत है, जो कलजुग को जोर।।

बुन्देली माटी कहे- "जो का कर रय, लाल !
उल्टे- सूधे काज कर, काय करत बेहाल ।।"

"वर्षा" का को से कहें, सबइ इते मक्कार।
पेड़ काट, धूरा उड़ा,  मिटा रये संसार ।।

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- डॉ. वर्षा सिंह

मेरे इन बुंदेली दोहों को web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 18 अप्रैल 2019 में स्थान मिला है।
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