शनिवार, अगस्त 29, 2020

मंगलवार, अगस्त 25, 2020

मित्रता पर दोहे | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों,    
      मित्रता संंर्दभित मेरे दोहे आज web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 25.08.2020 में प्रकाशित हुए हैं।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
मित्रों, यदि आप चाहें तो पत्रिका में इसे इस Link पर भी पढ़ सकते हैं -https://yuvapravartak.com/?p=39863

मित्रता पर दोहे

      - डॉ. वर्षा सिंह


मुंहदेखी की  मित्रता, मुंहदेखी का साथ।

दुख में ऐसे व्यक्ति ही सदा छुड़ायें हाथ।।


कृष्ण-सुदामा की तरह, मित्र न मिलते आज।

चार पलों के कर्ज़ पर, मांगे सौ दिन ब्याज।।


सदा करे जो मित्र के हित में दिल से बात।

मित्र सही "वर्षा" वही, करे न भीतर घात।।


ऊंच-नीच, औकात का नहीं करे जो भेद।

मित्र वही जो मित्र के लिए बहाए स्वेद ।।


निर्भय होकर कर सकें, जिससे मन की बात।

मित्र बने सम्बल सदा दिन हो या हो रात।।


अपने से ज़्यादा रहे जिसे मित्र का ध्यान।

"वर्षा" ऐसे मित्र का करें सदा सम्मान।।

          -------


शरद सिंह कृत 'कस्बाई सीमोन' में स्त्री विमर्श | उपन्यास | शोधकर्ता माली गीता | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह को साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद के प्रादेशिक "पं. बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार " मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रतिष्ठित "वागीश्वरी सम्मान" और हेमंत फाउण्डेशन, मुंबई के राष्ट्रीय "विजय वर्मा कथा सम्मान"  से सम्मानित उनकी पुस्तक 'कस्बाई सिमोन' (उपन्यास) पर शोधात्मक पुस्तक के प्रकाशन पर बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं 💐❤💐

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शुक्रवार, अगस्त 21, 2020

मित्रता पर दोहे | दोहों में मित्रता का आख्यान | डॉ. वर्षा सिंह

         मित्रता से भला कौन परिचित नहीं ? बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक मित्रता कभी भी किसी से भी हो सकती है। मित्रता या दोस्ती दो या अधिक व्यक्तियों के बीच पारस्परिक लगाव का संबंध है। जब दो दिल एक-दूसरे के प्रति सच्ची आत्मीयता से भरे होते हैं, तब उस सम्बन्ध को मित्रता कहते हैं। यह संगठन की तुलना में अधिक सशक्त अंतर्वैयक्तिक बंधन है। मित्रता के अनेक उदाहरण हमारे ग्रंथों में उपलब्ध हैं। यथा - कृष्ण-सुदामा की मित्रता, कृष्ण-द्रौपदी की मित्रता, राम-सुग्रीव की मित्रता, दुर्योधन-कर्ण की मित्रता छत्रपति शिवाजी-महाबली छत्रसाल. की मित्रता आदि। 
    कवियों ने समय-समय पर मित्रता पर काव्यसृजन किया है। आज यहां मैं चर्चा करूंगी मित्रता संदर्भित कुछ नये- पुराने चर्चित दोहों की।

     संत कवि कबीर ने बोलचाल की भाषा का प्रयोग कर लोककल्याण हेतु अनेक दोहे कहे हैं। जो बाद में उनके शिष्यों द्वारा "बीजक" नामक ग्रंथ में संग्रहीत किए गए हैं। अंधविश्वास, जाति-धर्म, अमीरी-ग़रीबी जैसी सामाजिक विषमताओं एवं कुरीतियों के विरोध में कबीर ने जो दोहे कहे, वे आज भी प्रासंगिक हैं। मित्रता के प्रति भी उनका नज़रिया एकदम स्पष्ट है -

कबीर दुनिया से दोस्ती, होेये भक्ति में भंग।
एंका ऐकी राम सो, कै साधुन के संग।।
अर्थात् कबीर का कहना है की दुनिया के लोगों से मित्रता करने पर भक्ति में बाधा होती है।
या तो अकेले में प्रभु का सुमिरन करो या संतो की संगति करो।

कबीर चुनता कन फिरा, हीरा पाया बाट। ताको मरम ना जानिए, ले खलि खाई हाट।।
अर्थात् कबीर चावल का दाना चुनते चल रहे हैं और उन्हें रास्ते में हीरा मिल गया। किंतु उसका महत्व नहीं जानने के कारण वे बाजार में चूना लेकर खा रहे है। सत्संग के बिना ज्ञान नहीं हैं।

गिरिये पर्वत शिखर ते, परिए धरनी मंझार।
मूरख मित्र न कीजिए, बुड़ो काली धार।।

अर्थात् कबीर कहते हैं, कि पर्वत से गिर जाओ या शिखर से गिर पड़ों। चाहो कोई भी परेशानी आ जाए किंतु मूर्ख मित्र से मित्रता मत करो। मूर्ख से मित्रता बहुत भारी पड़ती है और हमें कभी भी मूर्ख मित्रता नहीं करनी चाहिए।

कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय।
खीर खीड भोजन मिलै, साकट संग न जाय।।
अर्थात् साधु की संगत में अगर भूसी भी मिलै तो वह भी श्रेयस्कर है। खीर तथा तमाम तरह के व्यंजन मिलने की संभावना हो तब भी दुष्ट व्यक्ति की संगत न करें।

कबीर संगत साधु की, कभी न निष्फल जाय।
जो पै बोवै भूनिके, फूलै फलै अघाय।। अर्थात् साधुओं की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती और उसका समय पर अवश्य लाभ मिलता है। जैसे बीज भूनकर भी बौऐं तो खेती लहलहाती है।

रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास ने मित्रता संदर्भित बहुत ही सुंदर और शिक्षामूलक दोहों की रचना की है। यहां प्रस्तुत हैं उनके कुछ दोहे -

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक। 
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।।
अर्थात् जीवन में हर स्थिति का सामना मजबूती से करने की सीख देते हुए तुलसीदास जी कहते हैं, परिस्थिति कितनी ही विपरीत क्यों न हो, मनुष्य के ये 7 गुण उसकी रक्षा करते हैं। आपका ज्ञान और शिक्षा, आपकी विनम्रता, आपकी बुद्धि, आपके भीतर का साहस, आपके अच्छे कर्म, सच बोलने की आदत और राम यानी ईश्वर में विश्वास।

आवत ही हरषै नहीं नैनं नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।
अर्थात् अपने सम्मान के प्रति सजग रहने की सीख देते हुए तुलसीदास जी कहते हैं, जिस जगह आपके जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हों, जहां लोगों की आंखों में आपके लिए स्नेह या मित्रता का भाव नहीं हो, वहां हमें कभी नहीं जाना चाहिए। फिर चाहे वहां धन की बारिश ही क्यों न हो रही हो।

अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानां जो रहीम के नाम से विख्यात हैं, ने लौकिक जीवनव्यवहार पक्ष पर अवधी और ब्रजभाषा, दोनों में ही कविता की है जो सरल, स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण है। उनके काव्य में श्रृंगार, शांत तथा हास्य रस मिलते हैं। दोहा, सोरठा, बरवै, कवित्त और सवैया उनके प्रिय छंद हैं। रहीम की भाषा अत्यंत सरल है, उनके काव्य में भक्ति, नीति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है। उन्होंने दोहों का प्रयोग करते हुए मित्रता संदर्भित काव्यसृजन किया है -

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥

अर्थात् प्रेम के धागे को कभी तोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि यह यदि एक बार टूट जाता है तो फिर दुबारा नहीं जुड़ता है और यदि जुड़ता भी है तो गांठ तो पड़ ही जाती है।

मथत मथत माखन रहै, दही मही बिलगाय।
रहिमन सोई मीत है भीर परे ठहराय।।

अर्थात् दही को बार बार मथने से दही और मक्खन अलग हो जाते हैं। रहीम कहते हैं कि सच्चा मित्र दुख आने पर तुरंत सहायता के लिये पहुंच जाता है। मित्रता की पहचान दुख में ही होती है।

टूटे सुजन मनाइये जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिये, टूटे मुक्ताहार।।

अर्थात् अच्छे व्यक्तियों अर्थात् मित्रों को रूठने पर उसे अनेक प्रकार से मना लेना चाहिये। मूल्यवान मोतियों का हार टूटने पर उसके मोतियों को पुनः पिरो लिया जाता है। 

जलहिं मिलाई रहीम ज्यों, कियो आपु सग छीर।
अगबहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर ।

अर्थात् दूध पानी को अपने में पूर्णतः मिला लेता है पर दूध को आग पर चढ़ाने से पानी ऊपर आ जाता है और अन्त तक सहता रहता है। सच्चे दोस्त की यही पहचान है। 

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
विपति कसौटी जे कसे तेई सांचे मीत।।

अर्थात् संपत्ति रहने पर लोग अपने सगे संबंधी अनेक प्रकार से खोज कर बन जाते हैं। लेकिन विपत्ति संकट के समय जो साथ देता है वही सच्चा मित्र संबंधी है।

ये रहीम दर -दर फिरहि, मांगि मधुकरी खाहिं।
यारो-यारी छोड़िये, वे रहीम अब नाहिं ।।

अर्थात् अब रहीम दर-दर फिर रहा है और भीख मांगकर खा रहा है। अब दोस्तों ने भी दोस्ती छोड़ दिया है और अब वे पुराने रहीम नहीं रहे। गरीब रहीम अब मित्रता नहीं निबाह सकता है।

रहिमन तुम हमसों करी, करी-करी जो तीर।
बाढ़े दिन के मीत हो, गाढ़े दिन रघुबीर ।।

अर्थात् कठिनाई के दिनों में मित्र गायब हो जाते हैं और अच्छे दिन आने पर हाजिर हो जाते हैं। केवल प्रभु ही अच्छे और बुरे दिनों के मित्र रहते हैं। मैं अब अच्छे और बुरे दिनों के मित्रों को पहचान गया हूं।

रीतिकालीन कवि बिहारी ने ब्रज भाषा में दोहों का सृजन किया। उनके काव्य में शांत, हास्य, करुण आदि रसों के भी उदाहरण मिल जाते हैं, किंतु मुख्य रस श्रृंगार ही है। उनके दोहों में मित्रता की सुंदर व्याख्या मिलती है -

जौ चाहत, चटकन घटे, मैलौ होइ न मित्त।
रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह-चीकन चित्त ॥ 

अर्थात् यदि आप चाहते हैं कि मित्रता की चटक अर्थात् चमक समाप्त न हो तथा मित्रता स्थायी बनी रहे और उसमें दोष उत्पन्न न हों, तो धन-वैभव का इससे सम्बन्ध न होने दें। धन अथवा किसी अन्य वस्तु का लोभ मित्रता को मलिन कर देता है। मित्र के स्नेह से चिकना मन धनरूपी धूल के स्पर्श से मैला हो जाता है; अत: स्नेह में धन का स्पर्श न होने दें। जिस प्रकार तेल से चिकनी वस्तु धूल के स्पर्श से मैली हो जाती है और उसकी चमक घट जाती है, उसी प्रकार प्रेम से कोमल चित्त; धनरूपी धूल के स्पर्श से दोषयुक्त हो जाता है और मित्रता में कमी आ जाती है।

बुरी बुराई जौ तजे, तौ चितु खरौ डरातु ।
ज्यौं निकलंकु मयंकु लखि, गनैं लोग उतपातु ॥

अर्थात् यदि दुष्ट व्यक्ति सहसा अपनी दुष्टता छोड़कर मित्रवत् अच्छा व्यवहार करने लगे तो उससे चित्त अधिक भयभीत होने लगता है। जैसे चन्द्रमा को कलंकरहित देखकर लोग अमंगलसूचक मानने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमा का कलंकरहित होना असम्भव है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति का एकाएक दुष्टता त्यागना भी असम्भव है।
वर्तमान समय में जहां अतुकांत कविताएं ख़ूब लिखी जा रही हैं, वहीं अनेक सृजनधर्मी गीत, ग़ज़ल और छंदबद्ध रचनाओं का सृजन कर रहे हैं। ऐसी ही एक बहुआयामी सृजनधर्मी हैं डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, जो गद्य के साथ ही पद्य में भी क़लम चला रही हैं। उनके उपन्यास पाठकों को प्रिय हैं तो उनका काव्य भी पसन्द किया जाता है। शरद सिंह के मित्रता संदर्भित कुछ दोहे यहां प्रस्तुत हैं -

सखियां करती थीं सदा, दुख-सुख साझा रोज़।
अब वो सखियां ग़ुम हुईं, मन करता है खोज।।

व्यस्त ज़िंदगी ले गई, सखियों से भी दूर।
इंस्टा पर या फेसबुक, मिलना हुआ ज़रूर।।

गुड्डे-गुड़िया ब्याहना, अब तक हमको याद।
हंसती हम सखियां सभी, होता जब संवाद।।

गूगल पर या ज़ूम पर, होती तो है बात।
लगे अधूरा किन्तु ज्यों, दूल्हा बिना बरात।।

कहते सब हैं - दोस्ती, जोड़े रखती तार।
दशकों गुज़रें या सदी, आती नहीं दरार।।

"शरद"  दोस्त हो या सखी, कभी न छूटे साथ।
भले दूर से ही सही, मिलें दिलों के हाथ।।

दोहों में अपनी अभिव्यक्ति देने में डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' को महारत हासिल है। मित्रता पर उनके कुछ दोहे देखें -

जिस पग पर काँटे चुभें, वहाँ न रखना पैर।
जहाँ एक दिन मित्रता, बाकी दिन हो बैर।।

मतलब की है दोस्ती, मतलब का सब प्यार।
मतलब के ही वास्ते, होती है मनुहार।।

उनसे कैसी मित्रता, जो करते हैं घात।
ऐसे लोगों से बचो, जो करते उत्पात।।

सौ-सौ बार विचारिए, क्या होता है मित्र।
खूब जाँचिए-परखिए, उसका चित्त-चरित्र।।

हँसी-खेल मत समझिए, दुनिया बड़ी विचित्र।
जीवन में है मित्रता, पावन और पवित्र।।

जिसको अपना कह दिया, वो जीवनभर मीत।
सच्ची होनी चाहिए, दिल में उपजी प्रीत।।


     कवि सुशील शर्मा के मित्रता संदर्भित ये चर्चित दोहे भी मित्रता को पारिभाषित करने में सक्षम हैं -

सुख दुख के साथी रहें, बचपन के वो यार।
छिपा छिपाई खेलना, वो गेंदों की मार।

नहीं धर्म अरु जात का, दिखा कभी संयोग।
मित्र सदा मन में बसें, मन से मन का योग।

मित्र कभी लेता नहीं, बस देने की बात।
जिसमें स्वारथ है बसा, मित्र नहीं वह घात।

खुश्बू जैसे दोस्त हैं, महकें चारों ओर।
रिश्तों की इस रात में, मित्र ऊगती भोर।

शब्दों में गाली भरी, मन में बसता प्यार।
मित्र जहाँ भी मिल गए, मन होता गुलजार।

मित्र स्वर्ग की देन हैं , मित्र धरा के रंग।
मित्र सदा मन में बसें, बन जीवन के ढंग।

कृष्ण सुदामा मित्रता ,देती है सन्देश।
ऊँच नीच से दूर हैं, मित्रों के परिवेश।

और अंत में मेरे यानी इस ब्लॉग की लेखिका डॉ. वर्षा सिंह के मित्रता संदर्भित कुछ दोहे यहां प्रस्तुत हैं -

मुंहदेखी की  मित्रता, मुंहदेखी का साथ।
दुख में ऐसे व्यक्ति ही सदा छुड़ायें हाथ।।

कृष्ण-सुदामा की तरह, मित्र न मिलते आज।
चार पलों के कर्ज़ पर, मांगे सौ दिन ब्याज।।

सदा करे जो मित्र के हित में दिल से बात।
मित्र सही "वर्षा" वही, करे न भीतर घात।।

ऊंच-नीच, औकात का नहीं करे जो भेद।
मित्र वही जो मित्र के लिए बहाए स्वेद ।।

निर्भय होकर कर सकें, जिससे मन की बात।
मित्र बने सम्बल सदा दिन हो या हो रात।।

अपने से ज़्यादा रहे जिसे मित्र का ध्यान।
"वर्षा" ऐसे मित्र का करें सदा सम्मान।।

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सोमवार, अगस्त 03, 2020

शिव तांडव स्तोत्रं | श्रावण सोमवार | श्रावण पूर्णिमा | डॉ. वर्षा सिंह

🚩प्रिय ब्लॉग पाठकों, आज श्रावण यानी सावन महीने की पूर्णिमा तिथि है और सावन का आखिरी सोमवार भी है। आप सभी जानते हैं कि कि सावन का महीना भगवान शिव को प्रिय है। अतः सम्पूर्ण सावन मास  में भगवान शिव की पूजा और उपासना का विशेष महत्व होता है, लेकिन सावन के आखिरी सोमवार को भगवान शिव की पूजा करने से सभी मनोकामना पूरी होती हैं। 🚩
🚩आप सभी को इस अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं 🚩

🚩शिव तांडव स्तोत्रं🚩

जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।🚩

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।

धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।🚩

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।

कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।🚩

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।

मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।🚩

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।

भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।🚩

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।

सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।🚩

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।

धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।🚩

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।

निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।🚩

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।🚩

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।🚩

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-

धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।🚩

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।🚩

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌ ।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।🚩

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।🚩

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।🚩

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।🚩

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समजक्षय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।🚩

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥


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