शनिवार, जुलाई 27, 2019

"वर्षा पर वर्षा सिंह के गीत" ... पावस गीत - डॉ. वर्षा सिंह

     
Dr. Varsha Singh
मध्यप्रदेश शासन के जनसंपर्क विभाग की गौरवशाली, प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका "मध्यप्रदेश संदेश" के जुलाई 2019 अंक में मेरे परिचय सहित मेरे 06 पावस गीत "वर्षा पर वर्षा सिंह के गीत" शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं। जिन्हें मैं यहां अपने इस ब्लॉग के सुधी पाठकों हेतु प्रस्तुत कर रही हूं।
"मध्यप्रदेश संदेश" सम्पादकीय मण्डल के प्रति आभार !!!







                      पावस गीत - 1

                                   - डॉ. वर्षा सिंह

धरा भीगी हुई, भीगा हुआ नभ आज है।
            बूंद की राग में बजता, रिमझिमी साज है।।

बरसते बादल हैं हर पल
चमकती बिजली भी चंचल
हवाएं करती हैं हलचल
छनकती बारिश की पायल 
घाट से ले कर पर्वत तक, नीर का राज है
            धरा भीगी हुई, भीगा हुआ नभ आज है।

मिट गई सूरज से अनबन
मिल गया पौधों को जीवन
बांध कर पावस का बंधन
भर गया फूलों से उपवन
गूंजती हर्ष में डूबी, नई आवाज़ है
            धरा भीगी हुई, भीगा हुआ नभ आज है।

बदलते   मौसम के तेवर
धुल  गए सूखे के  अक्षर
तृप्ति का जल भीतर-बाहर
भर गए ताल, नदी, पोखर
मेघ, ‘वर्षा’ का ये देखो नया अंदाज़ है
           धरा भीगी हुई, भीगा हुआ नभ आज है।
            ------------------

पावस गीत - 2

                 - डॉ. वर्षा सिंह

गरमी के झुलसाते दिन तो गए बीत
मौसम ने  गाया है पावस का गीत
                 पावस का गीत, पावस का गीत।

कितना भी सूखे ने  कहर यहां ढाया 
अब तो है कजरारे  बादल की छाया
रिमझिम से सजती है पौधों की काया
इसको ही कहते हैं ऋतुओं की माया
दुनिया ये न्यारी है
परिवर्तन जारी है
दुख के हज़ार दंष
एक खुषी भारी है
रहती हर  हार में छुपी हुई जीत
मौसम ने  गाया है पावस का गीत
                 पावस का गीत, पावस का गीत।

गूंथ रहा मनवा भी सपनों की माला
पुरवा ने लहरा कर  जादू ये डाला
भीगी-सी रागिनी, स्वर में मधुषाला
हृदय के  भावों को छंदों में ढाला
बारिष की लगी झड़ी
सरगम की जुड़ी कड़ी
दिल तो है छोटा-सा
मचल रही  चाह बड़ी
राग है मल्हार और प्यार का संगीत
मौसम ने  गाया है पावस का गीत
                 पावस का गीत, पावस का गीत।


गांव में निराषा के आषा का डेरा
जागी उम्मीदों ने जी भर कर टेरा
रिमझिम फुहारों से खेलता सवेरा
सबका है सबकुछ ही, क्या तेरा-मेरा
बूंद की  अठखेली में
तृप्ति की   पहेली में
लहरों की चहल-पहल
नदी   अलबेली   में
खुषबू बन चहक रही ओर-छोर प्रीत
मौसम ने  गाया है पावस का गीत
                 पावस का गीत, पावस का गीत।

पड़ती हैं  धरती पर पावसी फुहारें
गली-गली बरस  रहीं अमृत की धारें
मेघों से  करती है बिजली  मनुहारें
टूट रहीं जल-थल के बीच की दीवारें
बिखरी हरियाली है
छायी खुषहाली है
फूलों के बंधन में
बंधती हर डाली है
पाया है  ‘वर्षा’ ने  अपना मनमीत
मौसम ने  गाया है पावस का गीत
                 पावस का गीत, पावस का गीत।

--------------

पावस गीत - 3

                 - डॉ. वर्षा सिंह

एक गीत पानी की धारों पर
      पावस में भीगते किनारों पर।

सूरज, न चंदा, न तारे हैं
दिन डूबे 
रात के सहारे हैं
एक गीत मौसमी करारों पर
    अनुबंधित तड़ित के इशारों पर।

झीलें, न झरनें, न पोखर है
पानी का 
स्रोत बना अम्बर है
एक गीत भीगते कगारों पर
     जलपूरित हवा के सवारों पर।

रोदन, न शोक, न सियापे हैं
खुशियों की
गूंजती अलापें हैं
एक गीत पड़ती बौछारों पर
    मन-मन को छेड़ती फुहारों पर।
--------------

पावस गीत - 4

     - डॉ. वर्षा सिंह

हरियाली बारिश के घिर आए दिन
         रात है अंधेरी और 
             बदराए दिन।

खपरैली छत पर जब
बूंद झरे
लगता है जैसे 
आकाश गिरे
       सिहर-सिहर जाएं
           दुबराए दिन।

मन दौड़े खेतों में
मेड़ों में
झूले भी दिखते हैं 
पेड़ों में
        यादें ही यादें 
        दुहराए दिन।

मेंहदी के बूटे भी
हंसते हैं
कुछ सपने आंखों में 
बसते हैं
        जब से फिर आए 
          कजराए दिन।

          ---------


पावस गीत - 5

     - डॉ. वर्षा सिंह

सिर चढ़ कर बोल रही 
पावस की प्रीत
जलधारा भूल गई बंधन की रीत।

वन-उपवन डोल रही
रसऋतु की छाया 
सम्मोहित गली-गली 
फूलों की माया 
गूंजता दिशाओं में रिमझिम संगीत 
जलधारा भूल गई  बंधन की रीत।

शिखरों से घाटी तक
हरियाली छाई 
झूमती लताओं ने
सुधबुध बिसराई
काई ने गाया फिर फिसलन का गीत
जलधारा  भूल गई बंधन  की रीत।

जलपाखी लिखते हैं 
प्रणय की ऋचाएं
बादल की ताल पर
बूंद की कलाएं
हारे तटबंध, हुई “वर्षा“ की जीत
जलधारा भूल गई बंधन की रीत।

-------------

पावस गीत - 6

     - डॉ. वर्षा सिंह

साध  सुहागन हुई 
कुमुदिनी फूली बेला ताल 
गोरी हुई निहाल, कुमुदिनी फूली बेला ताल। 

लाल किनारी वाली साड़ी 
गर्दन तक खींचे घूंघट 
देवरानी जू ,भौजी, माई ,
गली, गांव पनघट- पनघट
फैले संबोधन की जाल 
गोरी हुई निहाल, कुमुदिनी फूली बेलाताल। 

रिमझिम रिमझिम वर्षा बरसे
पीहर की यादें ताज़ा
सखी सहेली से अठखेली
मन रानी, मन ही राजा
कैसे मां-बाबू के हाल
गोरी हुई निहाल, कुमुदनी फूली बेलाताल। 

मेहंदी वाले हाथ पसारे 
बैठी ठाकुर जी के दर 
चारदिवारें छप्पर वाली 
यानी उसका अपना घर 
रहे सदा खुशहाल 
गोरी हुई निहाल, कुमुदिनी फूल बेलाताल।

भुनसारे से सांझ हुए तक
काम- काज की बातें हैं
फिर सजना की बाहों में तो
मीठी-मीठी रातें हैं
लगता बड़ा भला ससुराल
गोरी हुई निहाल, कुमुदनी फूली बेलाताल।

----------------



1 टिप्पणी:

  1. मिट गई सूरज से अनबन
    मिल गया पौधों को जीवन
    बांध कर पावस का बंधन
    भर गया फूलों से उपवन
    बहुत सुन्दर |

    जवाब देंहटाएं