शुक्रवार, मई 10, 2019

ग़ज़ल ... अजनबी शहर है - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh


अजनबी शहर है, रात दिन है अजनबी।
चुभ रहा ख़्याल में वो पिन है अजनबी।

लग रही है रोशनी भी ख़ौफ़नाक सी 
अंधकार का सफ़र, कठिन है अजनबी।

जबकि ज़िन्दगी बिता दी इनके वास्ते,
रंग चाहतों का क्यों मलिन है अजनबी।

गूंथ कर गया वो मेरी चोटियों में जो,
आज  लग रहा वही रिबन है अजनबी।

दुख जिसे मिले हरेक मोड़ पर यहां,
सुख भरा हुआ हरेक छिन है अजनबी।

त्रासदी है इश्क़, "वर्षा" क्या कहें किसे
अजनबी वसुंधरा, गगन है अजनबी। 

               - डॉ. वर्षा सिंह
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ग़ज़ल .... अजनबी शहर है - डॉ. वर्षा सिंह

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