Dr. Varsha Singh |
कितने राज़ छुपाये रहती, वह मेरी छोटी सी मेज।
मुझको सखी-सहेली लगती, वह मेरी छोटी सी मेज।
उसके भीतर आजू-बाजू, चार दराज़ें सिमटी थीं
जिनमें मेरा गोपन रखती, वह मेरी छोटी सी मेज।
वर्षों बीत गए जब मां ने इक दिन मुझको डांटा था
मेरे सारे आंसू गिनती, वह मेरी छोटी सी मेज।
पहला प्रेम पत्र जब लिख्खा, लिख- लिख फाड़ा कितनी बार
मेरे पशोपेश सब सहती, वह मेरी छोटी सी मेज।
अब पीछे वाले कमरे में, इक कोने में रहती है
स्मृतियों का हिस्सा बनती, वह मेरी छोटी सी मेज।
"वर्षा" मोबाइल ने छीना, "मसि-कागद'' पर लेखन को,
कुछ भी नहीं किसी से कहती, वह मेरी छोटी सी मेज।
- डॉ. वर्षा सिंह
ग़ज़ल - डॉ. वर्षा सिंह # ग़ज़लयात्रा |
वाह! बहुत खुबसूरत अहसास - उस छोटी सी मेज का!!!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद विश्वमोहन जी 🙏
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