गुरुवार, जुलाई 30, 2020

हिन्दी काव्य में कथासम्राट प्रेमचंद और उनके कथापात्र - डाॅ. वर्षा सिंह

Dr Varsha Singh
कथाकार प्रेमचंद के जन्मदिवस 31 जुलाई पर विशेष:

हिन्दी काव्य में कथासम्राट प्रेमचंद और उनके कथापात्र
- डाॅ. वर्षा सिंह

31 जुलाई 1880 को उत्तरप्रदेश के लमही ग्राम में जन्मे प्रेमचंद ने आधुनिक हिन्दी साहित्य को जिस प्रकार अपने नूतन कथानकों से सूमृद्ध किया, वह अ़िद्वतीय है। जिन दिनों हिन्दी काव्य जगत में  छायावाद की प्रकृति और प्रेम संबंधी कविताएं अपनी कोमल धाराएं बहा रही थीं, उन दिनों जीवन के खुरदरे यथार्थ पर कहानियां लिखने का साहस किया प्रेमचंद ने। प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था। आरंभ में वे उर्दू की पत्रिका ‘ज़माना’ में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखते थे। प्रथम कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ (1907) के अंगरेज सरकार द्वारा जब्त किए जाने तथा लिखने पर प्रतिबंध लगाने के बाद वे प्रेमचंद के नए नाम से लिखने लगे। सन् 1919 में उनका हिंदी में पहला उपन्यास ‘‘सेवासदन’’ प्रकाशित हुआ। यह अत्यंत लोकप्रिय हुआ। प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां भी लिखीं जिनमें तत्कालीन भारतीय समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक दशा के दर्शन होते हैं।
Kathakar Premchand
उनका उपन्यास ‘गोदान’ जो कि 1936 में प्रकाशित हुआ था, कृषक जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। उनकी रचनात्मकता का युग प्रेमचंद युग कहा जाता है। उन्होंने ‘जागरण’ नामक समाचार पत्र तथा ‘हंस’ नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया। वे प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम सभापति रहे। 
प्रेमचंद की कहानियों के पात्र अपनी अमिट छाप के साथ  पाठक के मन-मस्तिष्क पर छा जाते हैं।  होरी, हामिद, धनिया, निर्मला, घीसू जैसे पात्र आमजन जीवन से उठकर आए और प्रेमचंद की कथा-कहानियों में अमरत्व पा गए।
Adam Gondavi
हिन्दी काव्यजगत में भी प्रेमचंद के कथापात्रों का स्मरण करते हुए प्रेमचंद की लेखनी को सम्मानपूर्वक याद किया जाता है। जैसे अदम गोंडवी कहते हैं-

रोटी के लिए बिक गई धनिया की आबरू
‘लमही’ में प्रेमचंद का  ‘होरी’  उदास है।

गीतकार गुलज़ार ने प्रेमचंद और उनके सृजन पर बहुत गहराई से यह नज़्म कही है-

प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है
लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ बहुत है....

Gulzar
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए हैं
हम को भी और जिनको आप ने पीस पीस के मारा है
कितने दर्द दिए हैं आप ने हम को मुंशी जी
‘होरी’ को पिसते रहना और एक सदी तक
पोर पोर दिखलाते रहे हो
किस गाय की पूंछ पकड़ के बैकुंठ पार कराना था
सड़क किनारे पत्थर कूटते जान गंवा दी
और सड़क न पार हुई, या तुम ने करवाई नही
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और पराए भी
ख़ाली गोद रही आख़िर
कहती रही डूबना ही किस्मत में है तो
बोल गढ़ी क्या और गंगा क्या

‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रही
कितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में
‘घीसू’ ने भी कूजा कूजा उम्र की सारी बोतल पी ली
तलछट चाट के अख़िर उसकी बुद्धि फूटी
नंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफन जलने में क्या है
‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकाते
सांस की गिनती छूट गई है
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मजदूरी में बांध के तुमने क़लम उठा ली
‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं.
‘ठाकुर का कुआं’, और ठाकुर के कुएं से एक लोटा पानी
एक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए
‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने

वहीं कवि दशरथ मसानिया प्रेमचंद की जीवनी को कविता में पिरोते हुए लिखते हैं -

सन् अट्ठारह सौ अस्सी, लमही सुंदर ग्राम।
Dasharath Masaniya
प्रेमचंद को जनम भयो, हिन्दी साहित काम।।
परमेश्वर पंचन बसें, प्रेमचंद कहि बात।
हल्कू कम्बल बिन मरे, वही पूस की रात।।
सिलिया को भरमाय के, पंडित करता पाप।
धरम ज्ञान की आड़ में, मनमानी चुपचाप।।
बेटी बुधिया मर गई, कफन न पायो अंग।
घीसू माधू झूमते, मधुशाला के संग।।
होरी धनिया मर गए, कर न सके गोदान।
जीवनभर मेहनत करी, प्रेमचंद वरदान।।
मुन्नी तो तरसत रही, आभूषण नहि पाई।
झुनिया गोबर घूमते, बिन शिक्षा के माहि।।
बेटी निर्मला कह रही, कन्या दीजे मेल।
जीवनभर को मरण है, ब्याह होय बेमेल।।
पंच बसे परमात्मा, खाला लिए बुलाय।
शेखा जुम्मन देखते, अलगू करते न्याय।।

प्रेमचंद के कथापात्र वे दलित, शोषित इंसान थे जिन पर प्रेमचंद से
पूर्व इतनी बारीकी से किसी ने कलम नहीं चलाई थी। कथाकार एवं कवयित्री डाॅ शरद सिंह मानती हैं कि ‘‘प्रेमचंद ने समाज का एक समाजशास्त्री की भांति आकलन किया और सुधार के मार्ग सुझाए। उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों को अपनी कथासाहित्य के माध्यम से उजागर किया ताकि लोगों का उस ओर ध्यान आकृष्ट हो और समाज सुधार के कदम उठाए जा सकें। उन्होंने विधवा स्त्री से विवाह कर स्वयं इस दिशा में पहल की।’’
प्रेमचंद ने संवेदनाओं एवं भावनाओं को जिस गंभीरता से अपने कथानकों में प्रस्तुत किया है उसे देखते हुए डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने अपनी ग़ज़ल में प्रेमचंद को ‘‘भावनाओं के इक सच्चे कांवरिया’’ कहा है, देखें उनकी पूरी ग़ज़ल -

गोबर, घीसू, माधव, हामिद, होरी एवं धनिया।
प्रेमचंद के जरिए इनसे मिल पाई है दुनिया।

प्रेमचंद ने कथाजगत को वह तबका दिखलाया
जिसका शोषण करते आए सदियों ठाकुर, बनिया।

रात पूस की ठंडी हो कर कैसे जलती आई
कैसे बिना दवा दम तोड़े इक गरीब की मुनिया।

प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ कहानी में यथार्थ लिख डाला
दारूखोरों के घर तड़पे एक अभागी तिरिया।

इक मशाल था जिसका लेखन उसको ‘शरद’ नमन है
प्रेमचंद थे भावनाओं के इक सच्चे कांवरिया।

मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डॉ वर्षा सिंह ने भी अपनी ग़ज़लों में यथार्थ के चित्रण के लिए प्रेमचंद के कथापात्रों को प्रतीकों के रूप में शामिल किया है। बानगी देखिए- 

मत रो ‘धनिया’ बरबादी पर, ये तो हरदम होता है
Dr Varsha Singh
कर्जा देना, कुर्की करना, धनवानों की चाहत है।

‘वर्षा’ कैसे हो जब बादल घबराए से दिखते हैं
टैक्स लगे ज्यों दुहरा-तिहरा बूंदों की भी सांसत है।

मेरी एक अन्य ग़ज़ल के कुछ शेर देखें-

सच्चाई की काया देखो, कितनी दुबली- पतली है
जब-जब खुदे पहाड़ यहां पर हरदम चुहिया निकली है।

यूं तो हर मुद्दे पर पूछा -‘‘कहो मुसद्दी ! कैसे हो ? ’’
बोल न पाया लेकिन कुछ भी, मुंह पर रख दी उंगली है।

‘बुधिया’ के मरने पर निकले ‘घीसू’- ‘माधव’ के आंसू
वे आंसू भी नकली ही थे, यह आंसू भी नकली है।

08 अक्टूबर 1936 में प्रेमचंद ने जब इस दुनिया से विदा ली तो अनेक
Nazir Banarasi
साहित्यकारों की क़लम से मानों आंसुओं की धार बह निकली थी। प्रेमचंद की कमी को महसूस करते हुए नज़ीर बनारसी ने लिखा है-

बनके टूटे दिलों की सदा प्रेमचन्द।
देश से कर गये है वफा प्रेमचन्द।
जब कि पूरी जवानी प’ था साम्राज
उस जमाने के है रहनुमा प्रेमचन्द।
देखने में शिकस्ता-सा एक साज है
साथ लाखों दुखे दिल की आवाज है।

प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य में कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने अपने एक अलग मुहावरे गढ़े। उनका सृजन कालजयी है। आज भी प्रासंगिक है। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर है।
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