Dr. Varsha Singh |
फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं
खेल-खिलौने, झूला-मस्ती, प्यारी-प्यारी सखियां हैं
चिंता से पहचान नहीं थी,
बेफिक्री का आलम था
होठों पर लहराता हरदम,
खुशियों वाला परचम था
अब लगता है मानों जैसे बीत गई कुछ सदियां हैं
फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं
दो चुटियों में बंधी हुई थी
उम्मीदों की एक पुड़िया
“वर्षा” को “वर्षा” ना कहकर
कहते थे रानी गुड़िया
जुड़ती रहतीं छुटपन वाली बीते पल की कड़ियां हैं
फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं
कितना लाड़ प्यार मिलता था
नानी, दादी अम्मा से
रूठा-रूठी मान-मनौव्वल होती
कक्का, मम्मा से
रिश्ते-नातों की रिमझिम से, नम हो जाती अखियां हैं
फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं
यह तो है मालूम, नहीं दिन
बीते अब आने वाले
मनवा चाहे जितना इनको भीतर ही भीतर पाले
बदल गए हैं गांव शहर सब, बदल गई सब कलियां हैं
फूलों जैसी ताजा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं
- डॉ. वर्षा सिंह
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