Dr. Varsha Singh |
कालिदास का यक्ष
बनती बिगड़ती छवियों वाले मेघ से
बातें करने लगता है तब
जब और कोई रास्ता नहीं मिलता
प्रिया तक संदेश भिजवाने का
छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
जब बेलें किसी मज़बूत वृक्ष का सहारा लेकर
चल पड़ती हैं उस आकाश को छूने का स्वप्न लेकर
इस बात को नज़र अंदाज़ कर
कि आकाश को
जितना छूने के लिए
उसके करीब जाने की कोशिश करो
वह उतना ही दूर चला जाता है
छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
जब प्यार में डूब कर हम जिसे देवता समझ लेते हैं
एक दिन अचानक हम पाते हैं
कि वह मनुष्य भी नहीं
बदतर है जानवर से भी ज़्यादा
छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
क्योंकि हम उन्हें देखते हैं
बनते और बिगड़ते हुए
काश हम इग्नोर कर पाते उन सारी छवियों को
जो छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
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छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं - डॉ. वर्षा सिंह |
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