Dr Varsha Singh |
सवालों की कतारें
- डॉ. वर्षा सिंह
सुबह ताज़ा हवा में झर रहे थे, फूल पीले से
नहीं गुंथ पा रहे थे चोटियों में, बाल गीले से
सपन जो रात को देखा, खुली आंखों से अक्सर
किसी को हमसफ़र पाया नई राहों में अक्सर
अज़ब-सी कसमसाहट, लग रहे थे बंध ढीले से
सुबह ताज़ा हवा में झर रहे थे, फूल पीले से
शिक़ायत ज़िन्दगी से है, मगर क्या है न जाने
उदासी की वज़ह क्या है, कोई आए बताने
लिखे थे गीत जिस पर, लग रहे काग़ज़ वो सीले से
सुबह ताज़ा हवा में झर रहे थे, फूल पीले से
सवालों की कतारें कम नहीं होतीं ज़रा भी
हुई मुश्क़िल नहीं दिखता जवाबों का सिरा भी
हुए है चाहतों के पंख जैसे स्याह-नीले से
सुबह ताज़ा हवा में झर रहे थे, फूल पीले से
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