बुधवार, मई 23, 2018

साहित्य वर्षा - 12 मानववादी दृष्टि के धनी डॉ. आर.डी. मिश्र - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी बारहवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ  साहित्यकार डॉ. आर. डी. मिश्र की मानववादी दृष्टि पर मेरा आलेख ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 12
            
      मानववादी दृष्टि के धनी डॉ. आर.डी. मिश्र
              - डॉ. वर्षा सिंह

मानववाद आज एक ज्वलंत विषय है। इस विषय पर बड़े-बड़े सेमिनार होते हैं एवं गहन चर्चाएं होती हैं। कई बार इस बिन्दु पर मतभेद भी उभर आते हैं कि मानववाद क्या है ? इस पर भी चिंतन किया जाता है कि मानववाद का स्वरूप कैसा होना चाहिए और इसे समाज में कैसे स्थापित रखा जाए। भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कुछ विद्वान यह मानते हैं कि मानववाद पश्चिम से आयी अवधारणा है। वे तर्क देते हैं कि भारतीय संस्कृति ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ पर आधारित है। मानववाद शब्द भले ही पश्चिम से आया हो किन्तु यह मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं का एक प्रचलित नाम है। उदार व्यक्ति संवेदनाओं के प्रति द्रवित होता है तो क्रूर व्यक्ति दुराग्रह से भर कर अट्टहास करने लगता है। एक मानवीय मूल्य को बचाना चाहता है तो दूसरा मिटाना चाहता है। इस प्रकार अच्छाई और बुराई दोनों ही मानव के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं और इन्हीं का लेखा -जोखा मानववाद को रचता है।
हिन्दी साहित्य की मूल चेतना ही मानववादी है क्योंकि इसमें मानवजीवन के प्रत्येक बिन्दु को र्प्याप्त बारीकी से परखा और विश्लेषित किया गया है। हिन्दी के आधुनिक युग के साहित्यकारों में ‘‘महाप्राण ’’ कहे जाने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपने साहित्य में मानव के सर्जक स्वरूप और उसकी विद्रूपताओं दोनों को सामने रखा है। समीक्षक एवं आलोचक डॉ. आर. डी. मिश्र ने निराला के गद्य साहित्य में मानववाद का सूक्ष्मता से अनुशीलन किया है। इस विषय पर उनकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं- ‘‘निराला काव्य की मानवीय चेतना ’’ और ’’मानववादः दृष्टि और धारणा’’। इनके अतिरिक्त डॉ. मिश्र की दो और उल्लेखनीय कृतियां हैं, पहली ‘‘उत्तरशती का सांस्कृतिक विघटन’’ और दूसरी ‘‘साहित्य और संस्कृतिः व्यक्तिबोध से युगबोध’’।
11 अक्टूबर 1935 को सागर में जन्में डॉ. रमेश दत्त मिश्र जिन्हें सभी डॉ. आर.डी. मिश्र के नाम से पुकारते हैं, प्रखर मानववादी द्ष्टिकोण के धनी हैं। डॉ. मिश्र की उच्च शिक्षा सागर विश्वविद्यालय में हुई। निराला के साहित्य पर शोधकार्य करने के साथ ही साहित्य एवं संस्कृति के विविध आयामों का गहन अध्ययन किया। सन् 1960 में रामकृष्ण मिशन, नागपुर में स्वामी यतीश्वरानंद महाराज से विधिवत् दीक्षा ग्रहण करने के बाद डॉ. मिश्र वहीं पर युगचेता सन्यासी स्वामी आत्मानंद के सम्पर्क में आए। तदोपरांत रायपुर आश्रम में उनके सानिंध्य में रह कर स्वामी विवेकानंद के नव्य वेदांत की चिंतना और ठाकुर रामकृष्णदेव की अनुभूतिप्रवणता को समझने का प्रयास किया। मध्यप्रदेश के विभिन्न शासकीय महाविद्यालयों में अनेक छोटे-बड़े स्थानों में रहते हुए डॉ. मिश्र अंततः अपने गृहनगर सागर में शासकीय महाविद्यालय के प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए।
डॉ. आर.डी. मिश्र एक ओजस्वी वक्ता भी रहे हैं। उनके उद्बोधनों में विवेकानंद के जीवनदर्शन की झलक मिलती रही है। डॉ. मिश्र ने जब निराला के साहित्य की व्याख्या की तो उसमें भी उन्होंने मानववाद को प्रमुखता दी। डॉ. मिश्र के शब्दों में - ‘‘उनका (निराला का) मानव देवत्व की तलाश में नहीं, उसकी ऊर्जा देवत्व को गंतव्य मान कर गतिमान नहीं होती, बल्कि देवत्व का पर्याय बन कर आती है। मानव, मानव के रूप में देवता है, यह सत्य निराला, युग के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं।‘‘
डॉ. मिश्र के अनुसार निराला के गद्य में वेदांत की अनुप्रेरणा और विवेकानंद की वाणी का प्रभाव ही नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विराटता और गहन चेतना भी विद्यमान है। कुछ आलोचक मानते हैं कि काव्य की अपेक्षा गद्य में मूल्य निर्णय की क्षमता अधिक होती है। जबकि निराला के काव्य और गद्य को यदि समान रूप से मूल्य निर्णायक साबित होती हैं। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वे कौन से कारण रहे हांगे जिन्होंने काव्य और गद्य दोनों का सृजन निराला से कराया ? इस प्रश्न का उत्तर डॉ. मिश्र ने इस प्रकार दिया है कि-‘‘निराला के भीतर एक समवेग तत्व निरंतर रहा है।..... जीवन के विविध पक्षों में अवगाहन करने के उपरांत जमीन से जुड़े निराला को जो कुछ मिला वह धरती की सम्वेदना का प्रतिफल ही था, इसी कारण एक अंतर्द्वद्व हमेशा चलता रहा। वे उद्वेलित होते रहे, जीवन की विषमताओं को ले कर उनकी पीड़ा थी उनके मन में। मानव, मानव का शोषण क्यों करता है ? यह सहज प्रश्न और जिज्ञासा उन्हें आकुल करती रही और अंतर्मन में अन्जाने में ही एक चिंतन प्रक्रिया बराबर चलती रही। यह उनके भीतर क्रंतिचेतना की पीठिका और प्रेरक बनी, और यही निष्पत्तियां बन कर उनके व्यक्तित्व को सहज सम्वेदना की दिशा देती रहीं।’’
डॉ. मिश्र ने निराला के गद्य में विद्यमान मानववाद का तीन बिन्दुओं में आकलन किया है- निराला के उपन्यासों में मानववाद, कथा साहित्य में मानववाद और रेखाचित्रों- संस्मरणों में मानववाद। इन तीनों बिन्दुओं के अध्ययन के उपरांत निराला के मानववादी दृष्टिकोण की विराटता, गहनता ओर विस्तार को समझना आसान हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये तीनों बिन्दु निराला के मानस के मानवीय पूर्णत्व से परिचित कराते हैं।
निराला के कथा साहित्य के मूल्यांकन को ले कर डॉ. मिश्र ने अपना असंतोष भी प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘उनके (निराला के) कथा साहित्य को केवल खानापूरी के लिए या तो मूल्यांकित कर दिया जाता है अथवा बंधे-बंधाये नियमों और कसौटियों पर उसका परीक्षण करके अपने अध्ययन- मूल्यांकन की औपचारिकता की पूर्ति कर ली जाती है।’’
डॉ. मिश्र मानते हैं कि निराला का कथा साहित्य एक अप्रत्यक्ष उपेक्षा का शिकार रहा और वह प्रेमचंद के कथा साहित्य के प्रभामंडल के पीछे छिपा रह गया। निराला का कथा साहित्य चर्चित अवश्य हुआ किन्तु उचित मूल्यांकन की कमी के चलते अपने जनबोध को भलीभांति उजागर नहीं कर पाया। निराला के रेखाचित्र और संस्मरणों के संदर्भ में डॉ. मिश्र ‘‘कुल्ली भाट’’ और ‘‘बिल्लेसुर बकरीहा ’’ को रेखांकित करते हैं। डॉ. मिश्र ने ‘‘कुल्ली भाट’’ को समानांतर व्यक्ति की चेतना-कथा निरूपित किया है। उनके अनुसार - ‘‘ ‘‘कुल्ली भाट’’ रचना निराला साहित्य की अनन्यतम घटना मानी जाती है।’’  वहीं ‘‘बिल्लेसुर बकरीहा’’ को डॉ. मिश्र ने मनुष्य की महत्वाकांक्षा का प्रस्तुतिकरण माना है जिसमें मानवीय जीवंतता, धरती का यथार्थबोध, मौजमस्ती की मानवीय अनुभूति के साथ-साथ व्यंग्य की अनुभूति भी होती है।
हिन्दी साहित्य में निराला को एक सम्मानित स्थान मिला है किन्तु उनके साहित्य को समग्रता से समझने के लिए जो दृष्टि आवश्यक है वह डॉ. मिश्र अपनी पुस्तकों के माध्यम से उपलब्ध कराते हैं। इसे हिन्दी साहित्य के लिए उनका विशेष अवदान माना जा सकता है।

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 22.05.2018)
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