प्रिय मित्रों,
स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी सातवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ कवि एवं शायर डॉ. गजाधर सागर की ग़ज़लों में समसामयिक परिवेश।.... और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को ....
साहित्य वर्षा : 7
डॉ. गजाधर सागर की ग़ज़लों में समसामयिक परिवेश
- डॉ. वर्षा सिंह
सागर नगर के काव्यात्मक पन्ने पर ग़ज़ल विधा के संदर्भ में यूं तो कई नाम हैं किन्तु अपने काव्यात्मक सरोकारों के कारण एक नाम अलग से रेखांकित किया जा सकता है और वह नाम है डॉ. गजाधर सागर का। एक लम्बे अरसे से डॉ. गजाधर सागर ग़ज़लें लिख रहे हैं। उनकी ग़ज़लों का समसामयिक परिवेश से सरोकार साफ़-साफ़ दिखाई देता है। चूंकि डॉ. सागर को उर्दू ग़ज़ल के शिल्प का भी बखूबी ज्ञान है इसलिऐ वे बड़ी सरलता से अपनी ग़ज़लों को उर्दू लहज़े में ढालते हैं।
कभी इस पार जाते हैं, कभी उस पार जाते हैं।
परिंदे सरहदों को तोड़ सौ-सौ बार जाते हैं।
मसाइब के पहाड़ों से, वो कैसे पार पाएंगे
इरादे जो कि पहले से, ही हिम्मत हार जाते हैं।
जब से हिन्दी ग़ज़ल के रूप में ग़ज़लों का एक और भाषाई रूप परवान चढ़ा तब से उर्दू और हिन्दी ग़ज़लों के शिल्प को ले कर चिन्तन भी जन्मने लगा। संदर्भगत् चर्चा आवश्यक है कि ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भांति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भांति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को ’हुस्नेमतला’ कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा ’ऊला’ और दूसरा मिसरा ’सानी’ कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को ’जू काफ़िया’ कहते हैं। डॉ. गजाधर सागर ग़ज़ल के शिल्पगत नियमों का गंभीरता से पालन करते हैं। उदाहरण देखिए -
जो हो सके तो ज़ीस्त में इतना कमाल कर ।
अपनी ख़ुशी से और को भी कुछ निहाल कर।
अय दिल हज़ार बार सही देखभाल कर।
किरदार को ज़रूर ही रख ले संभाल कर
ये वक़्त कह रहा है कि इतना ख़्याल कर।
अपने लिए न और का जीना मुहाल कर
जिन को दिया था हमने कलेजा निकाल कर।
हिन्दी में गज़ल लिखने की परम्परा काफी पुरानी है। अमीर खुसरो को यदि हिन्दी का पहला रचनाकार माना जाता हैं तो हिन्दी के पहले गजलकार भी अमीर खुसरो ही हैं। अमीर खुसरो ने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी काव्य रचना की अंगभूत विधा के रूप में ग़ज़ल रचना का भी सूत्रपात किया। ख़ुसरो ने अपने समय की प्रचलित खड़ी बोली अर्थात् हिन्दवी में काव्य रचना की प्रक्रिया में फारसी साहित्य की इस प्रमुख विधा के कलेवर को अपनाकर नए प्रयोग के साथ उसे नया मुकाम देने की कोशिश की। ग़ज़ल का रदीफ़ फ़ारसी में है और क़ाफ़िया हिन्दवी में है। खुसरो के बाद कबीर और मीरा ने भी अपनी भक्ति भावना को व्यक्त करने के लिए इस विधा को अपनाया। शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं। दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तियों से दोहा। मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है। इस तारतम्य में डॉ. गजाधर सागर का यह मतला देखें -
हर दिल में आ चली हैं तभी से ख़राबियां।
चेहरों पे जब से आ गई हैं बेहिजाबियां।
ग़ज़ल की अपनी पृष्ठभूमि और हिंदी साहित्य की सामंती एवं दरबारी मानसिकता विरोधी प्रकृति इसका प्रमुख कारण रहा है। फ़ारसी साहित्य में विलासी राजाओं के विलास और मनोरंजन के लिए गज़लकार आशिक और माशूका की रोमैंटिक कथाओं को अभिव्यक्त करते थे। इसमें आम जनता के दुःख दर्द या प्रगतिशील चेतना की अभिव्यक्ति की कोई संभावना नहीं थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने हिंदी की साहित्य परंपरा में इसे सामंती एवं दरबारी चेतना मानते हुए ऐसे विषयों को साहित्य के लिए वर्जित घोषित किया है । यही कारण है कि जब शमशेर ने पारंपरिक रूमानी संस्कार के दायरे से बाहर आकर ग़ज़ल को लोक जीवन की सच्चाई और समग्रता से जोड़ने का ‘दुस्साहस’ किया तो डॉ. राम विलास शर्मा ने यह कहकर खारिज कर दिया कि“ ग़ज़ल तो दरबारों से निकली हुई विधा है, जो प्रगतिशील मूल्यों को व्यक्त करने में अक्षम है !“ लेकिन भारतीय कवियों ने उनके इस विचार को झुठलाते हुए ग़ज़ल को भारतीय मानको पर स्थापित ही नहीं किया बल्कि बेहद लोकप्रिय विधा बना दिया। शायरों ने आमज़िन्दगी की दुश्वारियों को अपनी ग़ज़लों का विषय बनाया और उसे पूरी संज़ीदगी से सामने रखा। यही खूबी डॉ. गजाधर सागर के इन शेरों में देखी जा सकती है-
उनसे कभी तो पूछिए होती है भूक क्या
देखे हैं जिनने वक़्त पे पत्थर उबालकर।
“सागर“ चले चले न चले दोस्ती मगर
हर्गिज़ न दोस्ती में कभी तू सवाल कर।
डॉ. गजाधर सागर आज मानवता के गिरते हुए स्तर से परेशान नज़र आते हैं। उनका मानना है कि जो व्यक्ति दूसरों के दुख-दर्द में शामिल हो और दूसरों के काम आए वही सच्चा इंसान है।
बुग़्ज़ कीना रखे है, आदमी आज दिल में
आदमीयत रखे जो, आदमी वो सही है।
तीरगी के मुक़ाबिल, हो चिराग़ां भले कुछ
जो मिटा दे अंधेरा, रौशनी वो सही है।
अपनी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉ. सागर कहते हैं कि सूरतें भले ही कितनी भी अच्छी क्यों न हों लेकिन जिनके मन में खोट है वे भलाई का काम कर ही नहीं सकते हैं -
सूरतें वो ,हैं भला किस ,काम की
ठीक ही जिन ,की नहीं हैं ,सीरतें
ऐसा नहीं है कि डॉ. सागर का सरोकार ज़िन्दगी के सिर्फ़ खुरदरेपन से हो, वे कोमल भावनाओं को भी उसकी शिद्दत से अपनी ग़ज़लों में रखते हैं-
रोज़ मिलने का बहाना हो गया
आपसे जब दोस्ताना हो गया
अब न भटकेगा ये दिल दर दर कभी
एक जब पुख़्ता ठिकाना हो गया
आपकी चाहत के सादे तीर का
ख़ुद-ब-ख़ुद ये दिल निशाना हो गया
सागर नगर के काव्य-संसार में डॉ. गजाधर सागर ने अपनी जो जगह बनाई है वह उनके समसामयिक परिवेश के सामाजिक सरोकारों के रूप में उनकी ग़ज़लों में तो दिखाई देती ही है, साथ ही उन्हें एक संज़ीदा शायर के रूप में स्थापित करती है।
-----------------------
(साप्ताहिक सागर झील दि. 17.04.2018)
#साप्ताहिक_सागर_झील #साहित्य_वर्षा #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sahitya_Varsha #Sagar #Sagar_Jheel #Weekly
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें