गुरुवार, मई 31, 2018

साहित्य वर्षा - 13 : संस्मरण लेखन पुरोधा प्रो. कांति कुमार जैन - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी तेरहवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ  साहित्यकार प्रो. कांतिकुमार जैन के संस्मरण लेखन पर मेरा आलेख ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....
साहित्य वर्षा - 13           
 संस्मरण लेखन पुरोधा प्रो. कांति कुमार जैन
     - डॉ. वर्षा सिंह                                                                                   
 drvarshasingh1@gmail.com

सागर की उर्वर भूमि ने हिन्दी साहित्य को विभिन्न विधाओं के उद्भट विद्वान दिये हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, ललित निबन्ध आदि के क्रम में संस्मरण लेखन को एक प्यी पहचान देने का श्रेय सागर के साहित्यकार को ही है , जिनका नाम है प्रो. कांति कुमार जैन। 09 सितम्बर 1932 को सागर के देवरीकलां में जन्में कांति कुमार जैन ने तत्कालीन कोरिया स्टेट (छत्तीसगढ़) के बैकुंठपुर से सन् 1948 में मैट्रिक उत्तीर्ण किया। मैट्रिक में हिन्दी में विशेष योग्यता के लिये उन्हें कोरिया दरबार की ओर से स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिये वे पुनः सागर आ गये। सागर विश्वविद्यालय के प्रतिभावान छात्रों में स्थान बनाते हुए उन्होंने सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं तथा स्वर्ण पदक प्राप्त किया। प्रा.े कांति कुमार जैन को अध्ययन- अध्यापन से आरम्भ से ही लगाव रहा। सन् 1956 से मध्यप्रदेश के अनेक महाविद्यालयों में शिक्षण कार्य करने के उपरांत सन् 1978 से 1992 तक डॉ, हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय में माखनलाल चतुर्वेदी पीठ पर हिन्दी प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष रहे। प्रो. कांति कुमार जैन सागर विश्वविद्यालय की बुंदेली पीठ से प्रकाशित होने वाली बुंदेली लोकसंस्कृति पर आधारित पत्रिका ‘ईसुरी’ का कुशल सम्पादन करते हुए इसकी ख्याति को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया।
प्रो. कांति कुमार जैन ने कई महत्वपूर्ण शोधात्मक पुस्तकें लिखीं। जिनमें ‘छत्तीसगढ़ी बोली : व्याकरण और कोश’, ‘नई कविता’, ‘भारतेंदु पूर्व हिन्दी गद्य’, ‘कबीरदास’, ‘इक्कीसवीं शताब्दी की हिन्दी’ तथा ‘छायावाद की मैदानी और पहाड़ी शैलियां’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। ललित एवं आलोचनात्मक निबन्धों के साथ ही जब संस्मरण लेखन में सक्रिय हुए तब उनकी विशिष्ट शैली ने हिन्दी साहित्य जगत में मानों एक नयी धारा चला दी। सन् 2002 में उनकी पहली संस्मरण पुस्तक ‘लौट कर आना नहीं होगा’ प्रकाशित हुई। मुक्तिबोध और परसाई के घनिष्ठ मित्रों में रहे प्रो. कांति कुमार जैन ने एक संस्मरण पुस्तक लिखी ‘तुम्हारा परसाई’ जो सन् 2004 में प्रकाशित हुई । इसके बाद सन् 2006 में ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’, सन् 2007 में ‘अब तो बात फैल गई’ और सन् 2011 में ‘बैकुण्ठपुर में बचपन’ प्रकाशित हुई।
संस्मरण हिन्दी में अपेक्षाकृत नयी विधा है जिसका आरम्भ द्विवेदी युग से माना जाता है। परंतु इस विधा का असली विकास छायावादी युग में हुआ। इस काल में सरस्वती, सुधा, माधुरी, विशाल भारत आदि पत्रिकाओं में संस्मरण प्रकाशित हुए। संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति भी माना गया है। साहित्य से इतर लोगों में अकसर आत्मकथा और संस्मरण को लेकर मतिभ्रम होने लगता है। किन्तु संस्मरण और आत्मकथा के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। आत्मकथा के लेखक का मुख्य उद्देश्य अपनी जीवनकथा का वर्णन करना होता है। इसमें कथा का प्रमुख पात्र स्वयं लेखक होता है। संस्मरण लेखक का दृष्टिकोण भिन्न रहता है। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियां तथा संवेदनायें संस्मरण का ताना-बाना बुनती हैं। संस्मरण लेखक एक निबन्धकार की भांति अपने स्मृतियों को गद्य के रूप में बांधता है और एक इतिहासकार के रूप में तत्संबंधित काल को प्रदर्शित करता है। कहने का आशय है कि संस्मरण निबंध और इतिहास का साहित्यिक मिश्रण होता है और जिसका मूल संबंध संस्मरण लेखक की स्मृतियों से होता है। वह अपने चारों ओर के जीवन का वर्णन करता है।
जैसा कि समीक्षक डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ‘बैकुण्ठपुर में बचपन’ के बारे में लिखती हैं-‘‘कांति कुमार जैन की संस्मरण पुस्तक ‘बैकुण्ठपुर में बचपन’ एक अलग कालखण्ड में ले जाती है। जहां पहुंचने पर कई बातें चमत्कृत कर देती हैं। कभी लगता है जैसे हम किसी परियों की कहानी से गुज़र रहे हों तो कभी, जीवन के कटु और खुरदुरे यथार्थ की चुभन महसूस होने लगती है लेकिन इन सबके साथ बचपन की भोली दृष्टि अपनी पूरी मासूमियत के साथ पग-पग साथ चलती है और कहीं-कहीं किशोरावस्था की दस्तक वाली यादें भी छलक कर बाहर आ जाती हैं। ......‘बैकुण्ठपुर में बचपन’ कांति कुमार जैन के सात वर्ष से सोलह वर्ष की आयु की स्मृतियों का लेखाजोखा मात्र नहीं है, यह संस्मरण-पुस्तक तत्कालीन समाज, राजनीति, आर्थिक व्यवस्थाओं और मानवीय चेष्टाओं का एक ऐसा दस्तावेज़ बनाती है जिसमें बालमन, किशोरावस्था और प्रौढ़ावस्था की दृष्टि, विचारों और विश्लेषणों का अद्भुत मिश्रण है। यूं भी हिन्दी साहित्य में आधुनिक संस्मरण विधा को नई स्थापना देने का श्रेय कांति कुमार जैन के संस्मरण लेखन खाते में है। कथ्य तो विशेष है ही, साथ ही, कांति कुमार जैन की सहज वर्णनात्मक कला ने पुस्तक के कलेवर को इतना प्रवाहमय बना दिया है कि एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद इसे पूरा करके ही पाठक इसे एक ओर रख सकेगा, बिलकुल टाईम मशीन में बैठ कर किसी अलग कालखण्ड की यात्रा पूरी करने जैसी अनुभूति के साथ।
लेखन क्षेत्र में सतत् सक्रिय रहने वाले प्रो. कांति कुमार जैन ने अपने मि़त्र मुक्तिबोध से जुड़ी स्मृतियों को सहेजते हुए ‘महागुरू मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर’ नाम से संस्मरण पुस्तक लिखी, जो सन् 2014 में प्रकाशित हुई। इसी क्रम में सन् 2015 में कोरिया के राजा पर ’एक था राजा’ प्रकाशित हुई, जिसकी भूमिका में  प्रो. कांति कुमार जैन ने लिखा है- ‘एक था राजा में कोरिया के राजा रामानुज प्रताप सिंहदेव के प्रादर्श प्रभाव और प्रशासन के नख चित्रात्मक संस्मरण। ये संस्मरण पूरे या सांगोपांग प्रकृति के नहीं हैं। बल्कि 65-70 वर्ष बाद भी जो व्यक्ति, स्थान, घटनायें या प्रसंग मेरी स्मृति में हिलते रह गये हैं, उनका कहीं हल्का, कहीं विस्तृत उल्लेख। प्रायः हल्का ही। यह सामग्री मैंने कुछ अपनी स्मृति से जुटाई है , कुछ जनश्रुतियों से, अधिकांश राजा रामानुज प्रताप सिंहदेव के चौथे पुत्र डॉ रामचंद्र सिंहदेव के सौजन्य से।’
प्रो. कांति कुमार जैन का एक बहुत ही रोचक संस्मरण है- ‘पप्पू खवास का कुनबा’ वे अपने संस्मरण लेखन में जिस प्रकार चुटेले शब्दों का सहज भाव से प्रयोग करते हैं उससे उनक ेलेखन में सदैव ताजा टटकेपन का बोध होता है। अपने संस्मरण लेखन के कारण कई बार उन्हें संकटों का भी सामना करना पड़ा, विरोध भी झेलना पड़ा, किन्तु उन्होंने अपनी लेखनी को रुकने नहीं दिया। वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत में प्रो. कांति कुमार जैन संस्मरण लेखन के पुरोधा एवं ‘संस्मरणाचार्य’ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं।
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(साप्ताहिक सागर झील दि. 29.05.2018)
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सोमवार, मई 28, 2018

माटी मेरे सागर की - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       आज 28 मई 2018 को " सागर दिनकर " में प्रकाशित मेरी रचना जो मेरे शहर सागर को समर्पित है... आप भी पढ़िए और Share कीजिए ❤
हार्दिक धन्यवाद #सागरदिनकर 🙏

माटी मेरे सागर की
                    - डॉ. वर्षा सिंह

मां के आंचल जैसी प्यारी ,  माटी मेरे सागर की ।।
सारे जग से अद्भुत न्यारी,  माटी मेरे सागर की ।।

भूमि यही वो जहां ‘’गौर’’ ने, दान दिया था शिक्षा का
पाठ पढ़ाया  था  हम सबको,  संस्कार की  कक्षा का
विद्या की यह है फुलवारी , माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी..................

विद्यासागर जैसे  ऋषि-मुनि की   पावनता  पाती है
धर्म, ज्ञान की, स्वाभिमान की अनुपम उज्जवल थाती है
श्रद्धा, क्षमा, त्याग की क्यारी,  माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी.............

‘वर्णी जी’  की तपो भूमि यह, यही भूमि ‘पद्माकर’ की
‘कालीचरण’ शहीद यशस्वी, महिमा  अद्भुत सागर की
सारा जग इस पर बलिहारी, माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी.................

नौरादेही   में   संरक्षित   वन   जीवों  का डेरा है
मैया  हरसिद्धी  का  मंदिर, रानगिरी  का  फेरा  है
आबचंद की गुफा दुलारी,  माटी मेरे  सागर  की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी...........

राहतगढ़  की छटा अनूठी ,झर-झर झरती जलधारा
गढ़पहरा,  धामौनी  बिखरा ,  बुंदेली   वैभव  सारा
राजघाट, रमना चितहारी, माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी................

एरण पुराधाम विष्णु का , सूर्यदेव हैं रहली में
देव बिहारी जी के हाथों सारा जग है मुरली में
पीली कोठी अजब सवारी , माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी....................

मेरा सागर मुझको प्यारा, यहीं हुए लाखा बंजारा
श्रम से अपने झील बना कर, संचित कर दी जल की धारा
‘वर्षा’-बूंदों की किलकारी , माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी...........
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बुधवार, मई 23, 2018

साहित्य वर्षा - 12 मानववादी दृष्टि के धनी डॉ. आर.डी. मिश्र - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी बारहवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ  साहित्यकार डॉ. आर. डी. मिश्र की मानववादी दृष्टि पर मेरा आलेख ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 12
            
      मानववादी दृष्टि के धनी डॉ. आर.डी. मिश्र
              - डॉ. वर्षा सिंह

मानववाद आज एक ज्वलंत विषय है। इस विषय पर बड़े-बड़े सेमिनार होते हैं एवं गहन चर्चाएं होती हैं। कई बार इस बिन्दु पर मतभेद भी उभर आते हैं कि मानववाद क्या है ? इस पर भी चिंतन किया जाता है कि मानववाद का स्वरूप कैसा होना चाहिए और इसे समाज में कैसे स्थापित रखा जाए। भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कुछ विद्वान यह मानते हैं कि मानववाद पश्चिम से आयी अवधारणा है। वे तर्क देते हैं कि भारतीय संस्कृति ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ पर आधारित है। मानववाद शब्द भले ही पश्चिम से आया हो किन्तु यह मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं का एक प्रचलित नाम है। उदार व्यक्ति संवेदनाओं के प्रति द्रवित होता है तो क्रूर व्यक्ति दुराग्रह से भर कर अट्टहास करने लगता है। एक मानवीय मूल्य को बचाना चाहता है तो दूसरा मिटाना चाहता है। इस प्रकार अच्छाई और बुराई दोनों ही मानव के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं और इन्हीं का लेखा -जोखा मानववाद को रचता है।
हिन्दी साहित्य की मूल चेतना ही मानववादी है क्योंकि इसमें मानवजीवन के प्रत्येक बिन्दु को र्प्याप्त बारीकी से परखा और विश्लेषित किया गया है। हिन्दी के आधुनिक युग के साहित्यकारों में ‘‘महाप्राण ’’ कहे जाने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपने साहित्य में मानव के सर्जक स्वरूप और उसकी विद्रूपताओं दोनों को सामने रखा है। समीक्षक एवं आलोचक डॉ. आर. डी. मिश्र ने निराला के गद्य साहित्य में मानववाद का सूक्ष्मता से अनुशीलन किया है। इस विषय पर उनकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं- ‘‘निराला काव्य की मानवीय चेतना ’’ और ’’मानववादः दृष्टि और धारणा’’। इनके अतिरिक्त डॉ. मिश्र की दो और उल्लेखनीय कृतियां हैं, पहली ‘‘उत्तरशती का सांस्कृतिक विघटन’’ और दूसरी ‘‘साहित्य और संस्कृतिः व्यक्तिबोध से युगबोध’’।
11 अक्टूबर 1935 को सागर में जन्में डॉ. रमेश दत्त मिश्र जिन्हें सभी डॉ. आर.डी. मिश्र के नाम से पुकारते हैं, प्रखर मानववादी द्ष्टिकोण के धनी हैं। डॉ. मिश्र की उच्च शिक्षा सागर विश्वविद्यालय में हुई। निराला के साहित्य पर शोधकार्य करने के साथ ही साहित्य एवं संस्कृति के विविध आयामों का गहन अध्ययन किया। सन् 1960 में रामकृष्ण मिशन, नागपुर में स्वामी यतीश्वरानंद महाराज से विधिवत् दीक्षा ग्रहण करने के बाद डॉ. मिश्र वहीं पर युगचेता सन्यासी स्वामी आत्मानंद के सम्पर्क में आए। तदोपरांत रायपुर आश्रम में उनके सानिंध्य में रह कर स्वामी विवेकानंद के नव्य वेदांत की चिंतना और ठाकुर रामकृष्णदेव की अनुभूतिप्रवणता को समझने का प्रयास किया। मध्यप्रदेश के विभिन्न शासकीय महाविद्यालयों में अनेक छोटे-बड़े स्थानों में रहते हुए डॉ. मिश्र अंततः अपने गृहनगर सागर में शासकीय महाविद्यालय के प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए।
डॉ. आर.डी. मिश्र एक ओजस्वी वक्ता भी रहे हैं। उनके उद्बोधनों में विवेकानंद के जीवनदर्शन की झलक मिलती रही है। डॉ. मिश्र ने जब निराला के साहित्य की व्याख्या की तो उसमें भी उन्होंने मानववाद को प्रमुखता दी। डॉ. मिश्र के शब्दों में - ‘‘उनका (निराला का) मानव देवत्व की तलाश में नहीं, उसकी ऊर्जा देवत्व को गंतव्य मान कर गतिमान नहीं होती, बल्कि देवत्व का पर्याय बन कर आती है। मानव, मानव के रूप में देवता है, यह सत्य निराला, युग के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं।‘‘
डॉ. मिश्र के अनुसार निराला के गद्य में वेदांत की अनुप्रेरणा और विवेकानंद की वाणी का प्रभाव ही नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विराटता और गहन चेतना भी विद्यमान है। कुछ आलोचक मानते हैं कि काव्य की अपेक्षा गद्य में मूल्य निर्णय की क्षमता अधिक होती है। जबकि निराला के काव्य और गद्य को यदि समान रूप से मूल्य निर्णायक साबित होती हैं। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वे कौन से कारण रहे हांगे जिन्होंने काव्य और गद्य दोनों का सृजन निराला से कराया ? इस प्रश्न का उत्तर डॉ. मिश्र ने इस प्रकार दिया है कि-‘‘निराला के भीतर एक समवेग तत्व निरंतर रहा है।..... जीवन के विविध पक्षों में अवगाहन करने के उपरांत जमीन से जुड़े निराला को जो कुछ मिला वह धरती की सम्वेदना का प्रतिफल ही था, इसी कारण एक अंतर्द्वद्व हमेशा चलता रहा। वे उद्वेलित होते रहे, जीवन की विषमताओं को ले कर उनकी पीड़ा थी उनके मन में। मानव, मानव का शोषण क्यों करता है ? यह सहज प्रश्न और जिज्ञासा उन्हें आकुल करती रही और अंतर्मन में अन्जाने में ही एक चिंतन प्रक्रिया बराबर चलती रही। यह उनके भीतर क्रंतिचेतना की पीठिका और प्रेरक बनी, और यही निष्पत्तियां बन कर उनके व्यक्तित्व को सहज सम्वेदना की दिशा देती रहीं।’’
डॉ. मिश्र ने निराला के गद्य में विद्यमान मानववाद का तीन बिन्दुओं में आकलन किया है- निराला के उपन्यासों में मानववाद, कथा साहित्य में मानववाद और रेखाचित्रों- संस्मरणों में मानववाद। इन तीनों बिन्दुओं के अध्ययन के उपरांत निराला के मानववादी दृष्टिकोण की विराटता, गहनता ओर विस्तार को समझना आसान हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये तीनों बिन्दु निराला के मानस के मानवीय पूर्णत्व से परिचित कराते हैं।
निराला के कथा साहित्य के मूल्यांकन को ले कर डॉ. मिश्र ने अपना असंतोष भी प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘उनके (निराला के) कथा साहित्य को केवल खानापूरी के लिए या तो मूल्यांकित कर दिया जाता है अथवा बंधे-बंधाये नियमों और कसौटियों पर उसका परीक्षण करके अपने अध्ययन- मूल्यांकन की औपचारिकता की पूर्ति कर ली जाती है।’’
डॉ. मिश्र मानते हैं कि निराला का कथा साहित्य एक अप्रत्यक्ष उपेक्षा का शिकार रहा और वह प्रेमचंद के कथा साहित्य के प्रभामंडल के पीछे छिपा रह गया। निराला का कथा साहित्य चर्चित अवश्य हुआ किन्तु उचित मूल्यांकन की कमी के चलते अपने जनबोध को भलीभांति उजागर नहीं कर पाया। निराला के रेखाचित्र और संस्मरणों के संदर्भ में डॉ. मिश्र ‘‘कुल्ली भाट’’ और ‘‘बिल्लेसुर बकरीहा ’’ को रेखांकित करते हैं। डॉ. मिश्र ने ‘‘कुल्ली भाट’’ को समानांतर व्यक्ति की चेतना-कथा निरूपित किया है। उनके अनुसार - ‘‘ ‘‘कुल्ली भाट’’ रचना निराला साहित्य की अनन्यतम घटना मानी जाती है।’’  वहीं ‘‘बिल्लेसुर बकरीहा’’ को डॉ. मिश्र ने मनुष्य की महत्वाकांक्षा का प्रस्तुतिकरण माना है जिसमें मानवीय जीवंतता, धरती का यथार्थबोध, मौजमस्ती की मानवीय अनुभूति के साथ-साथ व्यंग्य की अनुभूति भी होती है।
हिन्दी साहित्य में निराला को एक सम्मानित स्थान मिला है किन्तु उनके साहित्य को समग्रता से समझने के लिए जो दृष्टि आवश्यक है वह डॉ. मिश्र अपनी पुस्तकों के माध्यम से उपलब्ध कराते हैं। इसे हिन्दी साहित्य के लिए उनका विशेष अवदान माना जा सकता है।

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 22.05.2018)
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शुक्रवार, मई 18, 2018

साहित्य वर्षा - 11 ‘विजयपथ’ के कवि ललित मोहन  - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी ग्यारहवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ  कवि डॉ. ललित मोहन द्वारा लिखी गयी देशभक्ति की कविताओं पर मेरा आलेख ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 11
             
      ‘विजयपथ’ के कवि ललित मोहन
                              डॉ. वर्षा सिंह
                                                 drvarshasingh1@gmail.com

अपने देश और मातृभूमि के प्रति सम्मान रखना, स्वाभिमान प्रकट करना और उसके प्रति वफ़ादार रहना, देशभक्ति की भावना का सूचक है। ’शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा’ - पंडित जगदम्बा प्रसाद मिश्र की इस कालजायी कविता के ये शब्द हमें उन दिनों में आज़ादी की महत्ता एवं उसे प्राप्त करने के लिए चुकाई जाने वाली कीमत का अहसास कराते हैं जब देशभक्तों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी अपने देश को परतंत्रता से मुक्त कराने के लिए। वह दौर था जब देश का हर बच्चा बूढ़ा और जवान देश प्रेम की भावना से सराबोर था। देश स्वतंत्र हुआ। देश के चतुर्मुखी विकास ने हमें ग्लोबलाईजेशन तक पहुंचा दिया। ग्लोबलाईजेशन के इस दौर में अनुभव किया जाने लगा कि युवा पीढ़ी इस कदर अपना कैरियर बनाने में व्यस्त होती जा रही है कि वह अपने देशभक्तों की कुर्बानी की ओजपूर्ण कहानियां और भारतीय सैनिकों की बलिदान की ओर से विरत होती जा रही है। इसी कटु यथार्थ को ध्यान में रखते हुए देश की स्वतंत्रता की 70 वीं वर्षगांठ पर ’आजादी-70 : याद करो कुर्बानी’ नाम से स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में 15 दिनों का उत्सव मनाया गया था ताकि देश के युवाओं में देशभक्ति की भावना जागृत हो सके। आने वाली पीढ़ी में मातृभूमि के प्रति लगाव पैदा कर सकें। दूसरी ओर साहित्य अपनी भूमिका पूर्ववत् निभाता रहा। साहित्य में देशप्रेम को यथावत स्थान मिलता रहा। ऐसे अनेकों गीत हैं जो देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत हैं। देश के बच्चों एवं युवाओं में इस भावना के अलख को जगाए रखने में देश भक्ति से भरे गीत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। देशभक्ति का रागात्मक स्वरुप, देश के प्रति प्रेम, भक्ति-भावना, स्वर्णिम अतीत का गौरव गान यह सब गीतों में मुखर होता रहा है। लेकिन देश भक्ति गीतों का वह आवेग कम ही देखने को मिलता है जो देशभक्ति गीत संग्रह ‘विजय पथ’ में निबद्ध है।
22 दिसम्बर 1958 को सागर, मध्यप्रदेश में जन्मे ललित मोहन बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के साथ ही संचार एवं पत्रकारिता में विशिष्ट अध्ययन किया। उन्होंने संगीत प्रभाकर भी किया। जहां तक आजीविका का प्रश्न है तो वे राज्य शासन सेवा के प्रौढ़ शिक्षा विभाग में पर्यवेक्षक पद पर रहे। इसके बाद आकाशवाणी में बुंदेली कम्पीयर एवं उद्घोषक का कार्य किया। इसके बाद सन् 1986 में डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में ललित कला एवं प्रदशर्नकारी कला विभाग में व्याख्याता के पद पर पदस्थ हुए। यू.पी.एस.सी. द्वारा चयनित होने पर सन् 1992 से 1994 तक आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी का दायित्व सम्हाला। तदोपरांत पुनः डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में ललित कला एवं प्रदशर्नकारी कला विभाग में अपनी सेवाएं देने लगे।
डॉ. ललित मोहन ने साहित्य सेवा के साथ ही अनेक महत्वपूर्ण अभियानों में सहभागिता की तथा सम्मान भी प्राप्त किये। जैसे सन् 1979 में भोपाल से मुंबई साइकिल अभियान, सन् 1980 में पहलगाम से अमरनाथ पदयात्रा, सन् 1981 में माऊंट आबू में ट्रेकिंग, सन् 1988 में सागर से कन्याकुमारी स्कूटर अभियान, सन् 1991 में सागर से इम्फाल कार यात्रा आदि महत्वपूर्ण हैं। सन् 1998 में उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘अनंत पथ’ प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व स्थानीय समाचार पत्र साप्ताहिक जनप्रयोग में ललित मोहन का लिखा बुंदेली धारावाहिक ‘कक्का मठोले’ काफी चर्चित रहा।
वर्तमान में डॉ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर के ललित कला एवं प्रदर्शनकारी कला तथा पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष ललित मोहन का दूसरे गीत संग्रह ‘विजय पथ’ का प्रथम संस्करण सन् 1999 में प्रकाशित हुआ। वीर जवानों को समर्पित स्वदेश गीतों के इस संग्रह के प्रकाशक थे तत्कालीन संसद सदस्य, सागर लोकसभा वीरेन्द्र कुमार, जो वर्तमान में भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्री हैं। ‘विजय पथ’ में देश भक्ति की भावना के साथ ही उन सैनिकों के देश प्रेम को स्वर दिया गया है जो कठिन परिस्थितियों में सीमाओं पर डटे रह कर देश की रक्षा करते हैं। यह उदाहरण देखें-
ताकत वतन की सेनानी
तप कर लोहा बनते हैं
युद्ध शांति विपदाओं में
देश कर रक्षा करते हैं
सियाचिन और कारगिल की बर्फीली पहाड़ियों में जहां तापमान शून्य से 30 डिग्री से भी नीचे चला जाता है वहां भी जिस जज़्बे के साथ भारतीय सैनिक अपना कर्तव्य निर्वहन करते रहते हैं, उसे ललित मोहन ने इन पंक्तियों में बड़ी सुन्दरता के साथ पिरोया है-
गोली चलती धांय धांय
हवा मचलती सांय सांय
ठंडी ठंडी हिम घाटी
ताकत है अपनी माटी
आगे कदम बढ़ायेंगे
देश्मन से टकरायेंगे
सम्मुख गोली खायेंगे
विजय ध्वजा फहरायेंगे
कवि ने अपनी कविता के माध्यम से उन विदेशी शक्तियों को ललकारा है जो सीमाओं का अतिक्रमण करते रहते हैं तथा देश की शांति भंग करने का प्रयास करते रहते हैं-
मत देखो कश्मीर कारगिल
सरहद पार के रहने वालो
बंद करो ये ताका झांकी
अपना ही घर देखो भाला
...............................................
समय अभी है सावधान हो
पग प्यारे पीछे लौटा लो
इस धरती पर अटल शक्ति है
धरा गगन का प्रलय बचा लो
भौगोलिक रूप से भी विविधता में एकता वाले भारत की भूमि प्राकृतिक सौंदर्य की भी धनी है। इस तथ्य को ललित मोहन ने अपनी कविता ‘पावस धरा’ में बड़े सुन्दर ढंग से व्याख्यायित किया है -
निर्मल कलकल सरिता जल
झरनों की लय में मधुर छंद
ष्यामल बादल का भीगा तन
माटी से आती सोंधी गंध
ये धरती जग में न्यारी है
पावस धरा हमारी है
भूमि हिन्द की प्यारी है
कवि ने भारत के जन-जन के मन में स्थापित धार्मिक एकता एवं समभाव का स्मरण कराते हुए लिखा है -
राम का है धाम यहां
रोजा अजान रमजान
नानक ईशु की धरती
है भारत देश महान
उल्लेखनीय है कि ललित मोहन द्वारा रचित देश भक्ति गीत संग्रह ‘विजय पथ’ के लगभग डेढ़ दर्जन से अधिक संस्करणों का निःशुल्क वितरण किया जा चुका है। इसी तारतम्य में भारतीय सेना के सम्मान में देश भक्ति गीतों के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से ‘विजय पथ’ की सत्रह हजार प्रतियों का निःशुल्क वितरण अपने आप में एक कीर्तिमान है। इस संग्रह के गीत आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी प्रसारित होते रहते हैं। सैनिकों के शौर्य के जयगान से परिपूर्ण ‘विजय पथ’ देशभक्ति रचनाओं के क्रम में एक मील का पत्थर है।

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 15.05.2018)
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सोमवार, मई 14, 2018

साहित्य वर्षा - 10 ‘गीता’ के पद्यानुवाद के कवि डॉ. मनीष झा - डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय मित्रों, 

       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी दसवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ  साहित्यकार डॉ. मनीष झा द्वारा किये गए गीता के पद्यानुवाद पर मेरा आलेख ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 10

  ‘गीता’ के पद्यानुवाद के कवि डॉ. मनीष झा

   - डॉ. वर्षा सिंह


जब किसी रचना का एक-एक शब्द व्याख्यायित हो कर अंतस में समा जाए और फिर एक नवीन मौलिकाता के साथ यानी नए चोले में मुखरित हो तो वह सच्चा अनुवादकार्य होता है। इसे दूयरे शब्दों में कहा जाए तो अनुवाद कार्य अपने आप में चुनौती भरा कार्य है। इसे करते हुए मूल सामग्री के मर्म से भली-भांति तादात्म्य स्थापित होना आवश्यक हो जाता है। मूल सामग्री के मर्म को  आत्मसात किए बिना यदि अनुवाद कार्य किया जाता है तो वह भाषान्तरण, लिप्यांतरण अथवा शब्दांतरण तो हो सकता है किन्तु अनुवाद नहीं हो सकता है। उस पर पद्यानुवाद का कार्य तो और अधिक धैर्य, ज्ञान, सतर्कता और समर्पण की मांग करता है। पद्यानुवाद करने वाले के लिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि वह मूल सामग्री के मर्म को आत्मसात करे और साथ ही उसे इतना प्रचुर शब्द ज्ञान हो कि वह मूल के मर्म को काव्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए सही शब्द का चयन कर सके। जिससे मूल सामग्री अपने पूरे प्रभाव के साथ पद्यानुवाद में ढल सके। डॉ. मनीष चंद्र झा ने ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का पद्यानुवाद ‘गीतगीता’ के रूप में करते हुए पद्यानुवाद के सभी मानकों पर खरे उतरे हैं। उन्होंने पद्यानुवाद में भी कठिन मार्ग को चुना। डॉ. झा ने ‘गीता’ के श्लोकों को मुक्तछंद में नहीं बल्कि छंदबद्ध करते हुए दोहे और चौपाइयों में उतारा है। छंद अपने आप में विशेष श्रम मांगते हैं और यह श्रम डॉ. झा ने किया है।

26 सितम्बर 1969 में भागलपुर (बिहार) के ग्राम भ्रमरपुर में जन्मे डॉ. मनीष चंद्र झा ने मध्यप्रदेश के जबलपुर मेडिकल कॉलेज से एम.बी. बी. एस. तथा एम.एस. (अस्थिरोग) की उपाधि प्राप्त करने के बाद चिकित्साकार्य के लिए सागर नगर को अपने कार्यस्थल के रूप में चुना। उल्लेखनीय है कि उनकी जीवनसंगिनी डॉ. आराधना झा भी अस्थिरोग विशेषज्ञ हैं। सागर नगर के चिकित्सा क्षेत्र में झा दंपत्ति एक प्रतिष्ठित नाम हैं। चिकित्सा के साथ ही डॉ. मनीष चंद्र झा की साहित्य में भी अपार रूचि है और इसी रूचि के परिणाम स्वरूप उनकी प्रथम कृति ‘गीतगीता’ के रूप में पाठकों के सामने आई।           

‘श्रीभगवद्गीता’ भारतीय विचार दर्शन एवं जीवन दर्शन की अनुपम कृति है। यह ‘महाभारत’ महाकाव्य का अंश होते हुए भी अपने आप में सम्पूर्णता लिए हुए है। यह महाभारत के भीष्मपर्व में निहित है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर व्यक्ति के सामने आती हैं। यह व्यक्ति को उसके कर्त्तव्यों से परिचित कराती है, साथ ही अच्छे और बुरे में अन्तर करना भी सिखाती है। 

‘श्रीभगवद्गीता’ की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जब कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवों की सेनाएं आमने-सामने आ खड़ी हुईं और युद्ध आरंभ करने के लिए मात्र एक हुंकार की देरी थी, तभी अर्जुन की दृष्टि सामने खड़े योद्धाओं पर पड़ी। उसके सामने उसके सभी कौरव भाई, मामा, चाचा आदि रिश्तेदार खड़े थे। उन सबसे बढ़ कर भीष्म पितामह जिनका अर्जुन बहुत सम्मान करता था, वे भी उस पंक्ति में खड़े थे जिन पर अर्जुन को अपने बाणों से वर्षा करनी थी। अर्जुन यह सोच कर स्तब्ध रह गया कि मैं अपने भाइयों, अपने संबंधियों पर कैसे बाण चला सकता हूं? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा। यह विचार आते ही उसने श्री कृष्ण से कहा कि मैं यह युद्ध नहीं लडूंगा। मुझसे अपने भाइयों, अपने पितामह जैसे संबंधियों पर शस्त्र नहीं चलाया जा सकेगा। उस घड़ी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि युद्ध लड़ने के रूप में जो कार्य तुम करने जा रहे हो वह धर्म सम्मत है। बुराई का नाश कभी अधर्म हो ही नहीं सकता है। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, वे तुम्हारे संबंधी नहीं वरन् अधर्म के अनुयायी हैं अतः इनका नाश करना तुम्हारा धर्म है। यही बात समझाते हुए श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान अर्जुन को दिया वही गीता का ज्ञान कहलाया। महर्षि वेदव्यास ने इस ज्ञान को ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के रूप में ‘‘महाभारत’’ महाकाव्य में समाहित किया है। 

‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का महत्व आज भी प्रसंगिक है। आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति कोई भी काम करने से पहले उसके अच्छे परिणाम पाने की कामना करने लगता है और इस चक्कर में वह अपना संयम गवां बैठता है। ऐसे में अच्छे परिणाम नहीं मिलते हैं और वह हताश हो कर ग़लत क़दम उठाने लगता है। अतः आज के वातावरण में ‘गीता’ का यह सुप्रसिद्ध श्लोक मार्गदर्शक का काम करता है- 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।


इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो पूर्ण निष्ठा से साथ व्यक्ति कर्म नहीं कर सकेगा। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना काम करते रहो।

इस श्लोक का बहुत ही सुंदर पद्यानुवाद डॉ. मनीष चंद्र झा ने इन शब्दों में किया है-

कहि प्रभु फल तजि कामनाए कर्म करे निष्काम।

संयासी  योगी   वही,  नहिं  अक्रिय  विश्राम।।


इसी तरह वर्तमान जीवन में दिखावा इतना अधिक बढ़ गया है कि मन की शांति ही चली गई है। यह भी मिल जाए, वह भी मिल जाए की लालसा व्यक्ति को निरन्तर भटकाती रहती है। आज युवा पीढ़ी कर्मशील मनुष्य नहीं बल्कि ‘पैकेज़’ में क़ैद दास बनते जा रहे हैं क्यों कि उन्हें पैकेज़ की चार अंकों की राशि दिखाई देती है, जीवन की स्थिरता और मन की शांति नहीं। दुख की बात यह है कि उन्हें इस दासत्व के मार्ग में माता-पिता और अभिभावक ही धकेलते हैं। जबकि ऐसा करके वे अपने बुढ़ापे का सहारा भी खो बैठते हैं। इस संबंध में ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में कहा गया है -

  विहाय कामान्यः कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।

  निर्ममो निरहंकार स शांति मधि गच्छति।।

अर्थात् मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।


डॉ. मनीष चंद्र झा के शब्दों में इसी भाव को देखिए -

विषयन इन्द्रिन के संयोगा,  जे आरम्भ  सुधा  सम भोगा।

अंत परंतु गरल सम जेकी, वह सुख राजस कहहि विवेकी।। 


धृतराष्ट्र संजय से कहते हैं कि कुरुक्षेत्र के युद्धीभूमि पर जो भी हो रहा है, वह मुण्े अपनी दिव्यदृष्टि से देख कर बताओ-

कहि राजा  धृतराष्ट्र  हे संजय  कहो यथार्थ।

धर्म  धरा  कुरुक्षेत्र में,  जिन  ठाड़े  समरार्थ।।

मेरे सुत   औ पांडु के,  सैन्य सहित सब वीर।

कौन जतन करि भांति के, दकखि बताओ धीर।।


इस पर संजय अपनी दिव्यदृष्टि से कुरुक्षेत्र का विवरण देना आरम्भ करते हैं-

संजय कहि देखि भरि नैना, व्यूह खड़े पांडव की सेना।

द्रोण निकट दुर्योंधन जाई,  राजा कहे वचन ऐहि नाई।।


ऐसा सरल पद्यानुवाद किसी भी पाठक के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर के ही रहेगा। यह समय भी ‘गीता’ के उपदेशों को अपने जीवन में उतारने का है। आज ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के महत्व को सभी स्वीकार रहे हैं। बड़े-बड़े मैनेजमेंट गुरु ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में मैनेजमेंट के गुर ग्रहण कर लोगों को बता रहे हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां ‘गीता’ के श्लोकों का प्रयोग अपने कर्मचारियों में नई ऊर्जा का संचार करने के लिए कर रही हैं। कर्मचारियसों को ‘गीता’ का ज्ञान देने के लिए मोटिवेशन गुरुओं एवं ‘गीता’ के अध्येताओं को बुलाया जाता है। कहने का आशय यह है कि वर्तमान जीवन में भी ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ की प्रसंगिकता पूर्ववत् बनी हुई है जबकि आज युवाओं में संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का ज्ञान कम हो गया है। सीधा-सीधा उपदेशात्मक ज्ञान भी उन्हें लुभा नहीं पाता है। ऐसे में सरल शब्दों में पद्यानुवाद अत्यंत प्रभावशाली परिणाम दे सकता है। यूं भी पद्य की रागात्मकता देर तक मन-मस्तिष्क में ध्वनित होती रहती है तथा दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ती है। इस संदर्भ में जीवन को सही दिशा देने वाली ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का सरल भाषा में पद्यानुवाद कर डॉ. मनीष चंद्र झा ने अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। क्योंकि बाज़ार में उपलब्ध अर्थ एवं टीका सहित ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में श्लोकों के गद्य में अर्थ दिए रहते हैं जिनसे श्लोकों का अर्थ तो पता चल जाता है किन्तु श्लोकों के मर्म से रागात्मक जुड़ाव नहीं हो पाता है। डॉ. झा ने ‘गीता’ को सामान्य बोलचाल की भाषा में अनूदित कर सामान्य जन के लिए  ‘गीता’ के मर्म को समझने योग्य बना दिया है। ‘गीतगीता’ दोहे-चौपाइयों में निबद्ध है जिससे इसमें सुंदर लयात्मकता है, गेयता है।

डॉ. मनीष चंद्र झा आकाशवाणी और दूरदर्शन में भी अपनी छंदमुक्त और छंदबद्ध रचनाओं का पाठ कर चुके हैं तथा साहित्यसृजन में सतत् सक्रिय रहते हैं किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘गीतगीता’ उनकी एक अनुपमकृति है और उन्हें सागर के साहित्याकाश में दैदिप्यमान तारे की भांति स्थापित करती है।

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 08.05.2018)

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साहित्य वर्षा - 10
  ‘गीता’ के पद्यानुवाद के कवि डॉ. मनीष झा
   - डॉ. वर्षा सिंह

जब किसी रचना का एक-एक शब्द व्याख्यायित हो कर अंतस में समा जाए और फिर एक नवीन मौलिकाता के साथ यानी नए चोले में मुखरित हो तो वह सच्चा अनुवादकार्य होता है। इसे दूयरे शब्दों में कहा जाए तो अनुवाद कार्य अपने आप में चुनौती भरा कार्य है। इसे करते हुए मूल सामग्री के मर्म से भली-भांति तादात्म्य स्थापित होना आवश्यक हो जाता है। मूल सामग्री के मर्म को  आत्मसात किए बिना यदि अनुवाद कार्य किया जाता है तो वह भाषान्तरण, लिप्यांतरण अथवा शब्दांतरण तो हो सकता है किन्तु अनुवाद नहीं हो सकता है। उस पर पद्यानुवाद का कार्य तो और अधिक धैर्य, ज्ञान, सतर्कता और समर्पण की मांग करता है। पद्यानुवाद करने वाले के लिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि वह मूल सामग्री के मर्म को आत्मसात करे और साथ ही उसे इतना प्रचुर शब्द ज्ञान हो कि वह मूल के मर्म को काव्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए सही शब्द का चयन कर सके। जिससे मूल सामग्री अपने पूरे प्रभाव के साथ पद्यानुवाद में ढल सके। डॉ. मनीष चंद्र झा ने ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का पद्यानुवाद ‘गीतगीता’ के रूप में करते हुए पद्यानुवाद के सभी मानकों पर खरे उतरे हैं। उन्होंने पद्यानुवाद में भी कठिन मार्ग को चुना। डॉ. झा ने ‘गीता’ के श्लोकों को मुक्तछंद में नहीं बल्कि छंदबद्ध करते हुए दोहे और चौपाइयों में उतारा है। छंद अपने आप में विशेष श्रम मांगते हैं और यह श्रम डॉ. झा ने किया है।
26 सितम्बर 1969 में भागलपुर (बिहार) के ग्राम भ्रमरपुर में जन्मे डॉ. मनीष चंद्र झा ने मध्यप्रदेश के जबलपुर मेडिकल कॉलेज से एम.बी. बी. एस. तथा एम.एस. (अस्थिरोग) की उपाधि प्राप्त करने के बाद चिकित्साकार्य के लिए सागर नगर को अपने कार्यस्थल के रूप में चुना। उल्लेखनीय है कि उनकी जीवनसंगिनी डॉ. आराधना झा भी अस्थिरोग विशेषज्ञ हैं। सागर नगर के चिकित्सा क्षेत्र में झा दंपत्ति एक प्रतिष्ठित नाम हैं। चिकित्सा के साथ ही डॉ. मनीष चंद्र झा की साहित्य में भी अपार रूचि है और इसी रूचि के परिणाम स्वरूप उनकी प्रथम कृति ‘गीतगीता’ के रूप में पाठकों के सामने आई।          
‘श्रीभगवद्गीता’ भारतीय विचार दर्शन एवं जीवन दर्शन की अनुपम कृति है। यह ‘महाभारत’ महाकाव्य का अंश होते हुए भी अपने आप में सम्पूर्णता लिए हुए है। यह महाभारत के भीष्मपर्व में निहित है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर व्यक्ति के सामने आती हैं। यह व्यक्ति को उसके कर्त्तव्यों से परिचित कराती है, साथ ही अच्छे और बुरे में अन्तर करना भी सिखाती है।
‘श्रीभगवद्गीता’ की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जब कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवों की सेनाएं आमने-सामने आ खड़ी हुईं और युद्ध आरंभ करने के लिए मात्र एक हुंकार की देरी थी, तभी अर्जुन की दृष्टि सामने खड़े योद्धाओं पर पड़ी। उसके सामने उसके सभी कौरव भाई, मामा, चाचा आदि रिश्तेदार खड़े थे। उन सबसे बढ़ कर भीष्म पितामह जिनका अर्जुन बहुत सम्मान करता था, वे भी उस पंक्ति में खड़े थे जिन पर अर्जुन को अपने बाणों से वर्षा करनी थी। अर्जुन यह सोच कर स्तब्ध रह गया कि मैं अपने भाइयों, अपने संबंधियों पर कैसे बाण चला सकता हूं? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा। यह विचार आते ही उसने श्री कृष्ण से कहा कि मैं यह युद्ध नहीं लडूंगा। मुझसे अपने भाइयों, अपने पितामह जैसे संबंधियों पर शस्त्र नहीं चलाया जा सकेगा। उस घड़ी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि युद्ध लड़ने के रूप में जो कार्य तुम करने जा रहे हो वह धर्म सम्मत है। बुराई का नाश कभी अधर्म हो ही नहीं सकता है। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, वे तुम्हारे संबंधी नहीं वरन् अधर्म के अनुयायी हैं अतः इनका नाश करना तुम्हारा धर्म है। यही बात समझाते हुए श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान अर्जुन को दिया वही गीता का ज्ञान कहलाया। महर्षि वेदव्यास ने इस ज्ञान को ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के रूप में ‘‘महाभारत’’ महाकाव्य में समाहित किया है।
‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का महत्व आज भी प्रसंगिक है। आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति कोई भी काम करने से पहले उसके अच्छे परिणाम पाने की कामना करने लगता है और इस चक्कर में वह अपना संयम गवां बैठता है। ऐसे में अच्छे परिणाम नहीं मिलते हैं और वह हताश हो कर ग़लत क़दम उठाने लगता है। अतः आज के वातावरण में ‘गीता’ का यह सुप्रसिद्ध श्लोक मार्गदर्शक का काम करता है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।

इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो पूर्ण निष्ठा से साथ व्यक्ति कर्म नहीं कर सकेगा। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना काम करते रहो।
इस श्लोक का बहुत ही सुंदर पद्यानुवाद डॉ. मनीष चंद्र झा ने इन शब्दों में किया है-
कहि प्रभु फल तजि कामनाए कर्म करे निष्काम।
संयासी  योगी   वही,  नहिं  अक्रिय  विश्राम।।

इसी तरह वर्तमान जीवन में दिखावा इतना अधिक बढ़ गया है कि मन की शांति ही चली गई है। यह भी मिल जाए, वह भी मिल जाए की लालसा व्यक्ति को निरन्तर भटकाती रहती है। आज युवा पीढ़ी कर्मशील मनुष्य नहीं बल्कि ‘पैकेज़’ में क़ैद दास बनते जा रहे हैं क्यों कि उन्हें पैकेज़ की चार अंकों की राशि दिखाई देती है, जीवन की स्थिरता और मन की शांति नहीं। दुख की बात यह है कि उन्हें इस दासत्व के मार्ग में माता-पिता और अभिभावक ही धकेलते हैं। जबकि ऐसा करके वे अपने बुढ़ापे का सहारा भी खो बैठते हैं। इस संबंध में ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में कहा गया है -
  विहाय कामान्यः कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।
  निर्ममो निरहंकार स शांति मधि गच्छति।।
अर्थात् मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।

डॉ. मनीष चंद्र झा के शब्दों में इसी भाव को देखिए -
विषयन इन्द्रिन के संयोगा,  जे आरम्भ  सुधा  सम भोगा।
अंत परंतु गरल सम जेकी, वह सुख राजस कहहि विवेकी।।

धृतराष्ट्र संजय से कहते हैं कि कुरुक्षेत्र के युद्धीभूमि पर जो भी हो रहा है, वह मुण्े अपनी दिव्यदृष्टि से देख कर बताओ-
कहि राजा  धृतराष्ट्र  हे संजय  कहो यथार्थ।
धर्म  धरा  कुरुक्षेत्र में,  जिन  ठाड़े  समरार्थ।।
मेरे सुत   औ पांडु के,  सैन्य सहित सब वीर।
कौन जतन करि भांति के, दकखि बताओ धीर।।

इस पर संजय अपनी दिव्यदृष्टि से कुरुक्षेत्र का विवरण देना आरम्भ करते हैं-
संजय कहि देखि भरि नैना, व्यूह खड़े पांडव की सेना।
द्रोण निकट दुर्योंधन जाई,  राजा कहे वचन ऐहि नाई।।

ऐसा सरल पद्यानुवाद किसी भी पाठक के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर के ही रहेगा। यह समय भी ‘गीता’ के उपदेशों को अपने जीवन में उतारने का है। आज ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के महत्व को सभी स्वीकार रहे हैं। बड़े-बड़े मैनेजमेंट गुरु ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में मैनेजमेंट के गुर ग्रहण कर लोगों को बता रहे हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां ‘गीता’ के श्लोकों का प्रयोग अपने कर्मचारियों में नई ऊर्जा का संचार करने के लिए कर रही हैं। कर्मचारियसों को ‘गीता’ का ज्ञान देने के लिए मोटिवेशन गुरुओं एवं ‘गीता’ के अध्येताओं को बुलाया जाता है। कहने का आशय यह है कि वर्तमान जीवन में भी ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ की प्रसंगिकता पूर्ववत् बनी हुई है जबकि आज युवाओं में संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का ज्ञान कम हो गया है। सीधा-सीधा उपदेशात्मक ज्ञान भी उन्हें लुभा नहीं पाता है। ऐसे में सरल शब्दों में पद्यानुवाद अत्यंत प्रभावशाली परिणाम दे सकता है। यूं भी पद्य की रागात्मकता देर तक मन-मस्तिष्क में ध्वनित होती रहती है तथा दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ती है। इस संदर्भ में जीवन को सही दिशा देने वाली ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का सरल भाषा में पद्यानुवाद कर डॉ. मनीष चंद्र झा ने अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। क्योंकि बाज़ार में उपलब्ध अर्थ एवं टीका सहित ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में श्लोकों के गद्य में अर्थ दिए रहते हैं जिनसे श्लोकों का अर्थ तो पता चल जाता है किन्तु श्लोकों के मर्म से रागात्मक जुड़ाव नहीं हो पाता है। डॉ. झा ने ‘गीता’ को सामान्य बोलचाल की भाषा में अनूदित कर सामान्य जन के लिए  ‘गीता’ के मर्म को समझने योग्य बना दिया है। ‘गीतगीता’ दोहे-चौपाइयों में निबद्ध है जिससे इसमें सुंदर लयात्मकता है, गेयता है।
डॉ. मनीष चंद्र झा आकाशवाणी और दूरदर्शन में भी अपनी छंदमुक्त और छंदबद्ध रचनाओं का पाठ कर चुके हैं तथा साहित्यसृजन में सतत् सक्रिय रहते हैं किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘गीतगीता’ उनकी एक अनुपमकृति है और उन्हें सागर के साहित्याकाश में दैदिप्यमान तारे की भांति स्थापित करती है।
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साहित्य वर्षा - 9 शायर अशोक मिजाज़ और उनकी हिन्दी ग़ज़लें - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, 

       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी नवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ शायर अशोक मिज़ाज और उनकी हिन्दी ग़ज़लेंं।....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ..

साहित्य वर्षा - 9

 शायर अशोक मिजाज़ और उनकी हिन्दी ग़ज़लें 

       - डॉ. वर्षा सिंह


            ग़ज़ल लिखी नहीं, कही जाती है। जो दिल में होता है उसे कहते समय बनावट या मिलावट की कृत्रिम कारीगरी नहीं होती। जबकि खालिस दिमागी यानी विशुद्ध वैचारिक लेखन में संवेदनाओं के साथ ही सैद्धांतिक कठोरता रहती है। चूंकि ग़ज़ल का संबंध सीधे दिल से होता है इसलिए वैचारिकता होते हुए भी ग़ज़ल में कथ्य की प्रस्तुति स्वाभाविक प्रवाह और गेयता लिए होती है। भूमंडलीकरण, बाजारवाद, दलित विमर्श, लोक चेतना और स्त्री-विमर्श, हिंदी गजल में नुकीली एकाग्रता के साथ व्यक्त हो रहे हैं। गजल के इस परिदृश्य में कथ्य की सार्थकता, शेर की अभिव्यक्ति में लोच, लय और रवानी के साथ विसंगति का प्रतिवाद है।


23 जनवरी 1957 को सागर में जन्मे, उर्दू ग़ज़ल में अच्छी-खासी दखल रखने वाले शायर अशोक मिज़ाज ने जब हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में क़दम रखा तो ग़ज़ल के छांदासिक निभाव की कोई कठिनाई उनके सामने नहीं थी। आशोक मिज़ाज ने हिन्दी ग़ज़ल के यथार्थवाद को बड़ी खूबसूरती से साधा है। यूं तो अशोक मिज़ाज की सारी ग़ज़लें अनुभूतियों की व्यापकता के बहुरंगी आयामों से भरी-पूरी हैं और संवेदना को गहरे तक दस्तक देने वाली हैं किन्तु कुछ शेर तराशे हुए हीरे के समान अपने अद्भुत चमकदार आकर्षण से अंतःचेतना से एकाकार हो कर अपनी पारदर्शी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम हैं। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों का सरोकार आज की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और यहां तक कि पारिवारिक दशाओं से भी है। मिज़ाज कहते हैं कि - 

मेरे  लफ़्जों के   परदे में  मेरा  संसार देखोगे

कभी  तनहाइयों में  जब  मेरे  अश्आर देखोगे

दिखाई कुछ नहीं देगा, समझ में कुछ न आएगा

गुज़रती  रेल की  जब पास से  रफ़्तार देखोगे 


अशोक मिज़ाज एक ग़ज़लकार ही नहीं अपितु ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य के प्रति सजग और अध्ययनशील चिंतक भी हैं। शिल्पगत रूप में ग़ज़ल को ठीक उसी रूप में स्वीकार करने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं जिस रूप में ग़ज़ल अरबी, फ़ारसी कर बहरों की रचना-ध्वनि के निश्चित क्रम में अपनी पैदाईश के समय सामने आई थी। शिल्प के मामले में अशोक मिज़ाज जहां एक ओर चौकन्ने रह कर अरबी की प्रचीन बहरों में अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं, वहीं कथ्य और भाषा के मामले में अर्वाचीन प्रयोगवादिता को स्वीकार करते हुए समकालीन सोच की दस्तावेज़ी ग़ज़लें कहने में अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। उनकी ग़ज़लों में वैयक्तिक प्रबुद्धता साफ़ दिखाई देती है। जैसे यह शेर - 

बदल रहे हैं  यहां  सब रिवाज़  क्या होगा

मुझे ये फ़िक्र है, कल का समाज क्या होगा

दिलो-दिमाग़  के  बीमार  हैं  जहां  देखो

मैं  सोचता हूं  यहां  रामराज  क्या  होगा 


सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संदर्भों के बिम्ब भी इन ग़ज़लों में बखूबी उभर कर आए हैं। तेजी से बदलते परिवेश को ले कर अशोक मिज़ाज की चिन्ता इन शब्दों में मुखर होती है, यह उदाहरण देखें -

फैला हुआ है ज़हरे-सियासत  कहां-कहां

करते  फिरेंगे  आप हिफ़ाज़त  कहां-कहां

मज़हब धरम के नाम पे हमने ये क्या किया

शरमा रही है  आज  रफ़ाक़त  कहां-कहां


समसामयिक मूल्यों के पतन पर गहरी चोट करते इन मिसरों की व्यंजना प्रत्येक व्यक्ति को आत्म मंथन करने को विवश कर सकती है। आज हम जिस परिवेश और यथार्थ में सांसें ले रहे हैं,वह पूरी तरह से कष्टदायी है। एक प्रबुद्ध गजलकार के नाते अशोक मिज़ाज इस पीड़ा को अच्छी तरह समझते हैं और अपनी गजलों में व्यक्त करते हैं। इसीलिए उनके शेर वर्तमान राजनीति के गिरते स्तर पर तीखा कटाक्ष करते हैं। एक बानगी देखिए -

सियासत में  हमारा भी  कुछ ऐसा  हाल है जैसे

किसी  बदनाम औरत से  शराफ़त  हार जाती है

बड़े लोगों के कपड़ों तक कहां कीचड़ पहुंचता है

अगर दौलत हो, ओहदा हो, ज़िल्लत हार जाती है


भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद की भागमभाग में जीवन की सरसता कहीं खोती जा रही है। औद्योगिक नगरों के रूप में असंवेदनशीलता का विस्तृत मरुथल सामने दिखाई देता है। जो शहर अभी आत्मीयता का अर्थ जानते हैं, वे भी तेजी से अपरिचय का लबादा ओढ़ते जा रहे हैं। इस तथ्य को अत्यंत बारीकी से शायर ने कुछ इस तरह बयान किया है -

ये  नगर  भी  कारखानों का  नगर  हो जाएगा

इन दरख़्तों की जगह कुछ चिमनियां रह जाएंगी 


इस प्रकार की ग़ज़लों में मात्र गहन मानवीय सरोकार है। अशोक मिज़ाज के सरोकार समाज और राजनीति पर आ कर ही नहीं ठहर जाते हैं वरन् काव्य की समकालीन दशा के प्रति भी चिन्ता प्रकट करते हैं। उनकी चिन्ता ग़ज़ल जैसी कोमल विधा से खिलवाड़ करने वालों को ले कर भी है। ग़ज़ल जैसी विधा को गंभीरता से न लेने वालों के लिए वे कहते हैं-

कल क्या थी और आज ये क्या हो गई ग़ज़ल

ग़ज़लों की भीड़-भाड़ में  ही  खो गई ग़ज़ल


समकालीनता के निर्वहन के साथ पुरातन और पारम्परिक मूल्यों का परिपोषण का जो स्वरूप अशोक मिजाज की ग़ज़लों में दिखाई देता है वह उनके इन शेरों से बखूबी बयां   होता है जो कि उनके ग़ज़ल संग्रह ‘किसी किसी पे ग़ज़ल मेहरबान होती है’ में संग्रहीत हैं-

सारी  तारीफ़   उस   हुनर  की है

‘मीर’ ‘ग़ालिब’ ‘जिगर’ ‘ज़फ़र’ की है

अपनी हस्ती  तो बस  सिफ़र की है

सारी   खूबी   तेरी   नज़र  की है


मन की उड़ान कितनी भी विस्तृत हो लेकिन जीवन की सच्चाइयां उस धरातल पर इंसान को खींच लाती हैं जहां कभी सम्पूर्णता का अहसास नहीं हो पाता है। श्रृंगारिक कल्पनाओं और जीवन के रोजमर्रा के सच के बीच बेहतरीन संतुलन बिठाते हुए अशोक मिजाज कहते हैं - 

बाग़ में  नागफनी  का  भी  शज़र लगता है

खूबसूरत  हो  अगर   ऐब  हुनर  लगता है

कितनी चीज़ों की कमी अब भी नज़र आती है

           जब भी देखूं तो अधूरा-सा ये  घर लगता है


स्व. डॉ. शिव कुमार मिश्र की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है कि ‘‘उनके (अशोक मिज़ाज) अधिकतर शेर देर तक दिलो-दिमाग़ पर दस्तक देते हैं।’’ जब ग़ज़लों में जीवन का समग्र अपने सकल यथार्थ के साथ बड़ी सहजता से प्रस्तुत हो रहा हो तो उनका देर तक मन को आलोड़ित करना स्वाभाविक है। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों में दुख भी है, सुख भी, मोह है, पीड़ा भी है, कल्पना है तो यथार्थ भी है। यथार्थ भी ऐसा कि मानो ग़ज़ल पढ़ने या सुनने वाले की आंखों के आगे दृश्य उभर जाएं -  

रोकती  हैं  रास्ता  जब  लाल-पीली बत्तियां

याद आती  हैं  मुझे  वो  गांव की पगडंडियां

आपका इक फोन नंबर हो तो लिखवा दीजिए

वक़्त ले लेती हैं कितना आती जाती चिट्ठियां 

 

अहद प्रकाश ने अशोक मिज़ाज की ग़ज़लगोई पर टिप्पणी करते हुए बहुत सही लिखा है कि,‘‘हिन्दी भाषा में लिखी इनकी ग़ज़लें हर तरह से प्रशंसनीय और विचारणीय हैं। इनके हर एक शेर में एक नया आसमान खुलता नज़र आता है जिसमें हज़ारहा ज़मीनें समन्दरों के साथ नए दृश्य और नए बिम्ब प्रस्तुत करती नज़र आती हैं। वे इस सदी के स्वच्छ और खरे शाइर हैं।’’ 

अशोक मिज़ाज के संदर्भ में यह बेझिझक कहा जा सकता है कि ग़ज़लकार को समकालीन ग़ज़ल कहने का शऊर हासिल है, उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल का मिज़ाज मौज़ूद है तो अश्आर अपने फ़ॉर्म और तक़नीकी पहलुओं पर खरे उतरते हैं। 

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 01.05.2018)

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साहित्य वर्षा - 9
             
शायर अशोक मिजाज़ और उनकी हिन्दी ग़ज़लें
       - डॉ. वर्षा सिंह

ग़ज़ल लिखी नहीं, कही जाती है। जो दिल में होता है उसे कहते समय बनावट या मिलावट की कृत्रिम कारीगरी नहीं होती। जबकि खालिस दिमागी यानी विशुद्ध वैचारिक लेखन में संवेदनाओं के साथ ही सैद्धांतिक कठोरता रहती है। चूंकि ग़ज़ल का संबंध सीधे दिल से होता है इसलिए वैचारिकता होते हुए भी ग़ज़ल में कथ्य की प्रस्तुति स्वाभाविक प्रवाह और गेयता लिए होती है। भूमंडलीकरण, बाजारवाद, दलित विमर्श, लोक चेतना और स्त्री-विमर्श, हिंदी गजल में नुकीली एकाग्रता के साथ व्यक्त हो रहे हैं। गजल के इस परिदृश्य में कथ्य की सार्थकता, शेर की अभिव्यक्ति में लोच, लय और रवानी के साथ विसंगति का प्रतिवाद है।

23 जनवरी 1957 को सागर में जन्मे, उर्दू ग़ज़ल में अच्छी-खासी दखल रखने वाले शायर अशोक मिज़ाज ने जब हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में क़दम रखा तो ग़ज़ल के छांदासिक निभाव की कोई कठिनाई उनके सामने नहीं थी। आशोक मिज़ाज ने हिन्दी ग़ज़ल के यथार्थवाद को बड़ी खूबसूरती से साधा है। यूं तो अशोक मिज़ाज की सारी ग़ज़लें अनुभूतियों की व्यापकता के बहुरंगी आयामों से भरी-पूरी हैं और संवेदना को गहरे तक दस्तक देने वाली हैं किन्तु कुछ शेर तराशे हुए हीरे के समान अपने अद्भुत चमकदार आकर्षण से अंतःचेतना से एकाकार हो कर अपनी पारदर्शी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम हैं। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों का सरोकार आज की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और यहां तक कि पारिवारिक दशाओं से भी है। मिज़ाज कहते हैं कि -
मेरे  लफ़्जों के   परदे में  मेरा  संसार देखोगे
कभी  तनहाइयों में  जब  मेरे  अश्आर देखोगे
दिखाई कुछ नहीं देगा, समझ में कुछ न आएगा
गुज़रती  रेल की  जब पास से  रफ़्तार देखोगे

अशोक मिज़ाज एक ग़ज़लकार ही नहीं अपितु ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य के प्रति सजग और अध्ययनशील चिंतक भी हैं। शिल्पगत रूप में ग़ज़ल को ठीक उसी रूप में स्वीकार करने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं जिस रूप में ग़ज़ल अरबी, फ़ारसी कर बहरों की रचना-ध्वनि के निश्चित क्रम में अपनी पैदाईश के समय सामने आई थी। शिल्प के मामले में अशोक मिज़ाज जहां एक ओर चौकन्ने रह कर अरबी की प्रचीन बहरों में अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं, वहीं कथ्य और भाषा के मामले में अर्वाचीन प्रयोगवादिता को स्वीकार करते हुए समकालीन सोच की दस्तावेज़ी ग़ज़लें कहने में अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। उनकी ग़ज़लों में वैयक्तिक प्रबुद्धता साफ़ दिखाई देती है। जैसे यह शेर -
बदल रहे हैं  यहां  सब रिवाज़  क्या होगा
मुझे ये फ़िक्र है, कल का समाज क्या होगा
दिलो-दिमाग़  के  बीमार  हैं  जहां  देखो
मैं  सोचता हूं  यहां  रामराज  क्या  होगा

सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संदर्भों के बिम्ब भी इन ग़ज़लों में बखूबी उभर कर आए हैं। तेजी से बदलते परिवेश को ले कर अशोक मिज़ाज की चिन्ता इन शब्दों में मुखर होती है, यह उदाहरण देखें -
फैला हुआ है ज़हरे-सियासत  कहां-कहां
करते  फिरेंगे  आप हिफ़ाज़त  कहां-कहां
मज़हब धरम के नाम पे हमने ये क्या किया
शरमा रही है  आज  रफ़ाक़त  कहां-कहां

समसामयिक मूल्यों के पतन पर गहरी चोट करते इन मिसरों की व्यंजना प्रत्येक व्यक्ति को आत्म मंथन करने को विवश कर सकती है। आज हम जिस परिवेश और यथार्थ में सांसें ले रहे हैं,वह पूरी तरह से कष्टदायी है। एक प्रबुद्ध गजलकार के नाते अशोक मिज़ाज इस पीड़ा को अच्छी तरह समझते हैं और अपनी गजलों में व्यक्त करते हैं। इसीलिए उनके शेर वर्तमान राजनीति के गिरते स्तर पर तीखा कटाक्ष करते हैं। एक बानगी देखिए -
सियासत में  हमारा भी  कुछ ऐसा  हाल है जैसे
किसी  बदनाम औरत से  शराफ़त  हार जाती है
बड़े लोगों के कपड़ों तक कहां कीचड़ पहुंचता है
अगर दौलत हो, ओहदा हो, ज़िल्लत हार जाती है

भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद की भागमभाग में जीवन की सरसता कहीं खोती जा रही है। औद्योगिक नगरों के रूप में असंवेदनशीलता का विस्तृत मरुथल सामने दिखाई देता है। जो शहर अभी आत्मीयता का अर्थ जानते हैं, वे भी तेजी से अपरिचय का लबादा ओढ़ते जा रहे हैं। इस तथ्य को अत्यंत बारीकी से शायर ने कुछ इस तरह बयान किया है -
ये  नगर  भी  कारखानों का  नगर  हो जाएगा
इन दरख़्तों की जगह कुछ चिमनियां रह जाएंगी

इस प्रकार की ग़ज़लों में मात्र गहन मानवीय सरोकार है। अशोक मिज़ाज के सरोकार समाज और राजनीति पर आ कर ही नहीं ठहर जाते हैं वरन् काव्य की समकालीन दशा के प्रति भी चिन्ता प्रकट करते हैं। उनकी चिन्ता ग़ज़ल जैसी कोमल विधा से खिलवाड़ करने वालों को ले कर भी है। ग़ज़ल जैसी विधा को गंभीरता से न लेने वालों के लिए वे कहते हैं-
कल क्या थी और आज ये क्या हो गई ग़ज़ल
ग़ज़लों की भीड़-भाड़ में  ही  खो गई ग़ज़ल

समकालीनता के निर्वहन के साथ पुरातन और पारम्परिक मूल्यों का परिपोषण का जो स्वरूप अशोक मिजाज की ग़ज़लों में दिखाई देता है वह उनके इन शेरों से बखूबी बयां   होता है जो कि उनके ग़ज़ल संग्रह ‘किसी किसी पे ग़ज़ल मेहरबान होती है’ में संग्रहीत हैं-
सारी  तारीफ़   उस   हुनर  की है
‘मीर’ ‘ग़ालिब’ ‘जिगर’ ‘ज़फ़र’ की है
अपनी हस्ती  तो बस  सिफ़र की है
सारी   खूबी   तेरी   नज़र  की है

मन की उड़ान कितनी भी विस्तृत हो लेकिन जीवन की सच्चाइयां उस धरातल पर इंसान को खींच लाती हैं जहां कभी सम्पूर्णता का अहसास नहीं हो पाता है। श्रृंगारिक कल्पनाओं और जीवन के रोजमर्रा के सच के बीच बेहतरीन संतुलन बिठाते हुए अशोक मिजाज कहते हैं -
बाग़ में  नागफनी  का  भी  शज़र लगता है
खूबसूरत  हो  अगर   ऐब  हुनर  लगता है
कितनी चीज़ों की कमी अब भी नज़र आती है
           जब भी देखूं तो अधूरा-सा ये  घर लगता है

स्व. डॉ. शिव कुमार मिश्र की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है कि ‘‘उनके (अशोक मिज़ाज) अधिकतर शेर देर तक दिलो-दिमाग़ पर दस्तक देते हैं।’’ जब ग़ज़लों में जीवन का समग्र अपने सकल यथार्थ के साथ बड़ी सहजता से प्रस्तुत हो रहा हो तो उनका देर तक मन को आलोड़ित करना स्वाभाविक है। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों में दुख भी है, सुख भी, मोह है, पीड़ा भी है, कल्पना है तो यथार्थ भी है। यथार्थ भी ऐसा कि मानो ग़ज़ल पढ़ने या सुनने वाले की आंखों के आगे दृश्य उभर जाएं - 
रोकती  हैं  रास्ता  जब  लाल-पीली बत्तियां
याद आती  हैं  मुझे  वो  गांव की पगडंडियां
आपका इक फोन नंबर हो तो लिखवा दीजिए
वक़्त ले लेती हैं कितना आती जाती चिट्ठियां

अहद प्रकाश ने अशोक मिज़ाज की ग़ज़लगोई पर टिप्पणी करते हुए बहुत सही लिखा है कि,‘‘हिन्दी भाषा में लिखी इनकी ग़ज़लें हर तरह से प्रशंसनीय और विचारणीय हैं। इनके हर एक शेर में एक नया आसमान खुलता नज़र आता है जिसमें हज़ारहा ज़मीनें समन्दरों के साथ नए दृश्य और नए बिम्ब प्रस्तुत करती नज़र आती हैं। वे इस सदी के स्वच्छ और खरे शाइर हैं।’’
अशोक मिज़ाज के संदर्भ में यह बेझिझक कहा जा सकता है कि ग़ज़लकार को समकालीन ग़ज़ल कहने का शऊर हासिल है, उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल का मिज़ाज मौज़ूद है तो अश्आर अपने फ़ॉर्म और तक़नीकी पहलुओं पर खरे उतरते हैं।
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गुरुवार, मई 03, 2018

साहित्य वर्षा -2‘प्रीत का पाहुन’ और कवि सीरोठिया का छायावादी स्वर - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसमें सागर शहर  के वरिष्ठ कवि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के काव्य पर मैंने यह आलेख लिखा है- "प्रीत का पाहुन और कवि सीरोठिया का छायावादी स्वर " । कृपया पढ़िए और मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को जानिए ....
साहित्य वर्षा - 2
            
‘प्रीत का पाहुन’ और कवि सीरोठिया का छायावादी स्वर
                             - डॉ. वर्षा सिंह
                                                                        आदि मानव ने जब पंक्षियों के मधुर कंठों का गायन सुना होगा, नदियों-झरनों के नाद घोष में आत्मा की पुकार अनुभव की होगी, उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में चांद-तारों की रोशनी में, फूलों की हंसी में सौंदर्य भाव बोध अनुभव किया होगा, उसी समय से गीतों ने आकार पाया होगा। अनेक विद्वान मानते हैं कि गीत काव्य की शायद सबसे पुरानी विधा है। महाकवि निराला ने ‘गीतिका’ की भूमिका में कहा है, ‘गीत-सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी निःशब्द-संगीत से स्वर-सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व, स्वर का पूंजीभूत रूप है।’ 
जीवन के विभिन्न रस-भावों के अनुभव से गीत की उत्पत्ति होती है। यह लयात्मकता शब्द की उड़ान से उत्पन्न होती है। स्वर, पद और ताल से युक्त जो गान होता है वह गीत कहलाता है। गीत, सहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। इसमें एक मुखड़ा तथा कुछ अंतरे होते हैं। प्रत्येक अंतरे के बाद मुखड़े को दोहराया जाता है। गीत में एक ही भाव, एक ही विचार एक ही अवस्था का चित्रण होता है।
डॉ. भगवतशरण उपाध्याय ने गीत को परिभाषित करते हुए कहा है- ‘‘गीत कविता की वह विधा है जिसमें स्वानुभूति प्रेरित भावावेश की आर्द्र और कोमल आत्माभिव्यक्ति होती है।’’
इसी सन्दर्भ में केदार नाथ सिंह कहते हैं - ‘‘गीत कविता का एक अत्यन्त निजी स्वर है ग़ीत सहज, सीधा, अकृत्रिम होता है।’’
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- “गीत वास्तव में काव्य का सबसे तरल रूप है।’’
इस प्रकार गीत की मूल विशेषताएं है गीत में कवि की भावना की पूर्ण व व्यापक अभिव्यंजना समाई रहती है। गीत कवि के भावावेश अवस्था से उत्पन्न होता है। गीत एक पद में एक ही भाव की निबद्ध रचना होता है। संगीतात्मकता भी इसका एक विशेषगुण है।
गीत एक ऐसी विधा है जिससे मनुष्य का जुड़ाव अपने जन्म से ही हो जाता है। मां की लोरी के रूप में गीत के शब्द, छंद, स्वर मनुष्य के हृदय में बस जाते हैं। गीत की सबसे बड़ी शक्ति होती है उसकी ध्वन्यात्मकता। गीत हृदय से उत्पन्न होते हैं। संवेदनाओं, अनुभूतियों व भावनाओं के ज्वार जब उमड़ते हैं तो गीत किसी नदी के जल के समान बह निकलते हैं। उनमें भावनाओं की वे सारी तरंगें होती हैं जो गीत को सुनने और पढ़ने वाले के हृदय को रससिक्त कर देती है। जैसे लोरी के लिए हृदय में ममत्व की आवश्यकता होती है उसी प्रकार गीत रचने के लिए प्रत्येक भावना को आत्मसात् कर लेने की क्षमता की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही आवश्यकता होती है अभिव्यक्ति के उस कौशल की जो कठोर से कठोर तथ्य को कोमलता के साथ प्रस्तुत कर सके। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया में वह कौशल है कि जिससे वे दुनिया के तमाम खुरदुरे अहसास को बड़ी ही कोमलता से अपने गीतों में ढाल देते हैं। यूं भी एक चिकित्सक जब गीत लिखता है तो उसमें संवेदनाओं का एक अलग ही स्वर होता है। एक ऐसा स्वर जिसमें जगत की तमाम कोमल भावनाओं का अनहद नाद समाहित रहता है। व्यक्ति व समाज की भावनाओं, संवेदनाओं व अपेक्षाओं को अपेक्षाकृत अधिक निकट से परखता है, जान पाता है एवं ह्ृदय तल की गहराई से अनुभव कर पाता है। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने अपने जीवन में एक सफल चिकित्सक होने के साथ ही एक सफल गीतकार की भूमिका को भी आत्मसात किया है। यूं तो अब तक उनके चार गीत संग्रह ‘‘साक्षी समय है’’, ‘‘गीतों का मधुबन’’,‘‘सुधियों का आंचल’’ तथा ‘‘रजनीगंधा अपनेपन की’’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘‘प्रीत का पाहुन’’ डॉ. सीरोठिया का पांचवां गीत संग्रह है। 
‘प्रीत का पाहुन’ के गीत मूलतः छायावादी हैं। संयोग एवं वियोग इन गीतों का मूल विषय भाव है। इन गीतों में प्रेम, मिलन, विरह, स्मृतियां, एवं सामाजिक सरोकार का सुंदर समन्वय हैं। प्रस्तुत कृति, जिसमें भावपक्ष तो उत्कृष्ट है ही कलापक्ष भी सफल, सुगठित व श्रेष्ठ है। यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि जब गीत विधा नवगीत और मुक्तिका से हो कर अपने मूल स्वरूप को पुनः पाने के लिए जूझ रही है, ‘‘प्रीत का पाहुन’’ जैसी कृति का प्रकाशित होना गीत के संघर्ष के विजय का प्रतीक बन कर उभरता दिखाई देता है। हरिवंश राय ‘बच्चन’, गोपाल दास ‘नीरज’ जैसे गीतकारों ने जिस लयात्मकता और संवाद भाव से गीत लिखे हैं वही भाव डॉ. सिरोठिया के गीतों में दिखाई देता है। डॉ सीरोठिया ने ‘‘आत्म निवेदन’’ में इस बारे में स्वयं लिखा है कि ‘‘गीतों की सफलता और सार्थकता संवाद शैली में होती है।’’ इस संवाद शैली का एक उदाहरण देखिए -
आसमान के चांद-सितारे
  मिटा न पाए जो अंधियारे
    तुमने मन के अंधियारों में
      नेह दीप उजियार दिया है
        तुमने कितना प्यार दिया है।   (पृ. 35)
  
अपनों द्वारा प्रदत्त पीड़ा अधिक कष्टदायी होती है, नैराश्य भी उत्पन्न करती है परन्तु डॉ सीरोठिया के विरहगीतों में भी नैराश्य नहीं है अपितु व्यक्तिगत दुख दुनियावी दुख से एकाकार होता चलता है जैसे ये पंक्तियां देखें -
          मुस्कुराहट के नए मैं गीत लिख कर क्या करूंगा
          बस्तियां जब प्यार की वीरान होती जा रही हैं

इसी गीत के अंतिम बंध की पंक्तियां -’
          पिंडलियों का दर्द जब
            हर सांस भारी हो रहा है
             मंज़िलों के गीत मोहक
              किस तरह मैं गुनगुनाऊं
               कौन सौंपेगा किसे अब
                बोझ दायित्वों का आगे-
                 पीढ़ियां आपस में जब
                  अनजान होती जा रही हैं।   (पृ. 53-54)

डॉ सीरोठिया के गीतों में प्रेम के प्रति समर्पण की विशेष छटा दिखाई देती है। एक ऐसी छटा जिसमें लौकिक प्रेम से आगे बढ़ कर अलौकिक प्रेम ध्वनित होने लगता हैं। जैसे शायर मौजीराम ‘मौजी’ का मशहूर शेर है- 
         दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार
         जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली

प्रेम जब सप्रयास किया जाए तो वह प्रेम नहीं होता, वास्तविक प्रेम स्वतः घटने वाली घटना होती है जिसमें प्रियजन के प्रति समस्त चेष्टाएं स्वतः होती जाती हैं-
        सच कहता हूं अनजाने ही गीत रचे सब
          मैंने तो बस केवल नाम तुम्हारा गाया।
             सदा सत्य, शिव, सुन्दरता का सम्बल जिसमें
             प्यार मुझे वह पावन इक प्रतिमान रहा है,
             मेरे मन का रहा समर्पण इस सीमा तक
             अपने प्रिय का रूप मुझे भगवान रहा है,
             सच कहता हूं अनजाने हो गई प्रार्थना
             मैंने तो सिर मन मंदिर के द्वार झुकाया।  (पृ. 67)

गोपाल सिंह नेपाली ने कवि और वियोग का जो संबंध अपनी इन पंक्तियों में व्यक्त किया है कि - ‘‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजे होंगे गान
                   निकलकर आँखों से चुपाचाप, बही होगी कविता अनजान।’’
- यही भाव डॉ. सीरोठिया के विरह गीतों में एक अलग ही गरिमा के साथ प्रकट होता है। ये दो पंक्तियां देखिए -
         रही तुम्हारे मन में नफ़रत, मेरे मन में प्यार रहा
         यही हमारे रिश्ते का बस, जीवन में आधार रहा।   (पृ. 97)

या फिर इन पंक्तियों को देखिए -
        कोर नयन की बेमौसम जब भर आती है
        आकुल मन को पीड़ा अकसर दुलराती है     (पृ. 107)

डॉ. सीरोठिया ने अपने गीतों में नवीन बिम्बों का बड़े सुंदर ढंग से प्रयोग किया है। यदि कोई अपना सगा-संबंधी किसी बात पर रूठ जाए तो मन विकट दुविधा में पड़ जाता है। किसी तरह उस रूठे हुए संबंधी को मना भी लिया जाए और यदि वह मिलने आ भी जाए तो भी वह उलाहना देने से नहीं चूकता हैं। इसी विडम्बना को कवि ने प्रकृति और सामाजिक संबंधों की परस्पर तुलना करते हुए लिखा है कि- ‘
        रूठे रिश्तेदारों जैसे
          बहुत दिनों में आए बादल
            प्राण जले अंगारों जैसे
              तन-मन सब अकुलाए बादल।  (पृ. 47)

‘‘प्रीत का पाहुन’’ गीत संग्रह भाव-अनुभूतिजन्य गीत-कृति है अतः कलापक्ष को सप्रयास नहीं सजाया गया है अपितु वह कलात्मक गुणों से स्वतः ही शोभायमान है, सशक्त है। भाषा शुद्ध सरल साहित्यिक हिन्दी है। शब्दावली सुगठित सरल सुग्राह्य है। शैली छायावादी होते हुए भी दुरूह नहीं है। आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी बिम्ब प्रधान प्रयोग भी है। जल की तरह निर्मल एवं पारदर्शी भावनाओं को उकेरतीं ये गीत-रचनाएं कवि के रागात्मक आयाम से न केवल परिचय कराती हैं, बल्कि उनकी कहन, उनके शब्द रागात्मकता का सुंदर पाठ भी पढ़ाते हैं। ऐसा पाठ जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और ऐसी दुनिया के निर्माण में सहायक बनता है जहां मनुष्य के ही नहीं वरन् जड़-चेतन के भी गीत गाये जाते हैं।
कहा जा सकता है कि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के गीतों में जीवन को ऊर्जा प्रदान करने वाली स्वतःस्फूर्त चेतना है। लोकधर्मी चेतना से ध्वनित डॉ सीरोठिया के इन गीतों में घनीभूत आत्मसंवेदना का सुंदर समन्वय है। हिंदी गीतों के संवर्द्धन और पुनर्स्थापन के प्रति डॉ सीरोठिया का यह गीत संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
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धन्यवाद सागर झील !!!

(साप्ताहिक सागर झील दि. 27.02.2018)
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