बुधवार, मार्च 21, 2018

साहित्य वर्षा - 4 ... कवि महेन्द्र फुसकेले की कविताएं और नारी सम्वेदना - डाॅ. वर्षा सिंह

साहित्य वर्षा : 4
कवि महेन्द्र फुसकेले की कविताएं और नारी सम्वेदना
                    - डाॅ. वर्षा सिंह
                                           
        प्राचीन काल में नारी की स्थिति अत्यन्त उच्च थी। नारी को देवी के रूप में पूजा जाता था। वेद शास्त्रों में कहा गया है…
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ।।
 नारी को देवी माना गया है.... विद्या की देवी सरस्वती,   धन की देवी लक्ष्मी , शक्ति की देवी दुर्गा, पवित्रता की देवी गंगा आदि। देवीतुल्य शिक्षित स्त्री पूरे समाज को शिक्षित करने की क्षमता रखती है। वैदिक काल में नारी को भी पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। महासती अनुसुइया, सीता सरीखी स्त्रियां पत्नी के रूप में पतिपरायणा थीं । कात्यायनी जैसी विदुषी स्त्रियां शास्त्रार्थ भी करती थीं। उस काल में  पितृसत्‍तात्‍मक समाज था, लेकिन नारी को भी पूरा सम्मान दिया जाता था। वर्तमान में स्त्री के सम्मान को पुनः स्थापित करने के लिये अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। साहित्यकार भी नारी को उसका खोया हुआ सम्मान दिलाने के लिए अनेक विधाओं में साहित्य सृजन कर रहे हैं। स्त्री के मानवीय गुणों से प्रभावित लेखकों, कवियों, निबंधकारों ने अपने साहित्य में नारी को प्रमुखता से स्थान दिया है।
       हर दौर में मानवीय सरोकारों में स्त्री की पीड़ा प्रत्येक साहित्यकार संवेदनशीलता एवं सृजन का केन्द्र रही है। सन् 1934 को जन्में, सकल मानवता के प्रति चिंतनशील सागर नगर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं उपन्यासकार महेन्द्र फुसकेले ने जब कविताओं का सृजन किया तो उनकी कविताओं में अपनी संपूर्णता के साथ स्त्री की उपस्थिति स्वाभाविक थी। ‘तेंदू के पत्ता में देवता’, ‘मैं तो ऊंसई अतर में भींजी’, ‘कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइओ’ नामक अपने उपन्यासों में स्त्री पक्ष को जिस गम्भीरता से उन्होंने प्रस्तुत किया है, वही गम्भीरता उनकी कविताओं में भी दृष्टिगत होती है। कविता संग्रह ‘स्त्री तेरे हजार नाम ठहरे’ उनके काव्यात्मक स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण पक्ष उजागर करता है। वे अपनी एक कविता में कहते हैं -
स्त्री तो स्त्री है
अनेक रूप, अनेक भूमिकाएं
विवाहित स्त्री एवं कुंवारी स्त्री
संतान के बिना स्त्री
बच्चों वाली स्त्री
स्त्री तो बस स्त्री है, वामा है...।
स्त्री है मूलधुरी, आदिशक्ति।
ऐसा प्रतीत होता है मानो उपन्यासकार फुसकेले स्त्री की पीड़ा, संघर्ष और महत्ता को भावात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए कविता का मार्ग चुनते हैं। वे अपने काव्य संग्रह की शीर्षक कविता ‘स्त्री तेरे हजार नाम ठहरे’ में एक बदचलन स्त्री की व्यथा कथा संवाद के रूप में कुछ इस प्रकार सामने रखते हैं -
बदचलन ठहराई गई एक स्त्री से
जो पूछा मैंने
तो उसने बताया
पति की मौत के बाद   
सरपंच को अपनी देह
नहीं सौंपने के अपराध में नौ कोस तक
चरित्रहीन विख्यात कर दी गई मैं।
      यह कटु सत्य है कि स्त्री पर किसी भी तरह का लांछन लगाना सबसे आसान काम होता है, और दुर्भाग्यवश बिना सच्चाई को परखे पूरा समाज भी उस लांछन को सही मान बैठता है। फिर चाहे अग्नि परीक्षा में खरी उतरी सीता ही क्यों न हो। इस मानसिकता पर प्रहार करते हुए कवि ने इसी कविता में आगे लिखा है -
जा कर कोई क्यों नहीं
उस चरित्र-शिरोमणि
सरपंच से पूछता
वह अब तक कितनी स्त्रियों की देह मसल चुका है।
      स्त्री को अपने जीवन में कदम-कदम पर विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। एक कठिनाई जो जीवनपर्यंत उससे जुड़ी रहती है वह है उसकी सुंदरता या असुंदरता।
बाज़ारतंत्र के इस वर्तमान में बाज़ार का पूरा प्रचार-प्रसार, पूरा का पूरा विज्ञापन उद्योग, समूचा मनोरंजन उद्योग जैसे सिर्फ स्त्री की देह पर टिका है। साबुन से लेकर आटोमोबाइल तक बेचने के लिए स्त्री देह का इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसने स्त्री की दैहिक आज़ादी को एक नई तरह की छुपी हुई गुलामी में बदल डाला है। यह अनायास नहीं है कि जिस दौर में स्त्री लगातार आज़ादी और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ी है, उसी दौर में स्त्री उत्पीड़न भी बढ़ा है, देह का कारोबार भी बढ़ा है, उसका आयात-निर्यात भयावह घृणित स्तरों तक फैला है। आज का बाज़ार जो गोरेपन की क्रीमों से भरा रहता है, वह भी इसी मानसिकता को बढ़ावा देता रहता है कि औरतों की चमड़ी का रंग गोरा ही होना चाहिए। जब समाज में स्त्री को उसकी योग्यता से नहीं बल्कि चमड़ी के रंग से आंका जाने लगता है तो तमाम प्रकार की वैचारिक विकृतियां पनपने लगती हैं, जिसका शिकार बनना पड़ता है स्त्रियों को। महेन्द्र फुसकेले की एक कविता है ‘दृष्टि सौंदर्य की’। कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
       अदालत में एक स्त्री पर
       तलाक़ का मुक़द्दमा चला
       स्त्री ने बताया
       पति का आरोप है कि मैं सुंदर नहीं हूं
       ............ कि वह असुंदर है
       उसका रंग साफ़ नहीं, बदसूरत है।
      ‘‘भार्या: गले का नौलखा हार’’ कविता में कवि ने एक सुघड़ गृहणी के रूप में पत्नी के दायित्वों और उसके समर्पण को रेखांकित करते हुए इस पीड़ा को प्रकट किया है कि एक पत्नी को समाज में वह सम्मान नहीं दिया जाता है जो उसे मिलना चाहिए। अपनी इसी बात को कवि ने इन शब्दों में कहा है कि -
गृहकार्य की चिंता में डूबी पत्नी
समाज में असम्मानित
क्यों नहीं पत्नी दिवस
मनाता परिवार और समाज ?
पत्नी ही संवारती घर-कुटुम्ब को
पत्नी दिवस की तैयारी
हो शुभारंभ।
       
            भारतीय समाज में एक विडम्बना आज भी व्याप्त है कि अनेक परिवारों में बेटी को जन्म देना मां का अपराध माना जाता है। बेटी को जन्म देते ही मां तानों और उलाहनों के कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। सभी वैज्ञानिक तथ्यों को भुला कर यह मान लिया जाता है कि बेटी के जन्म के लिए सिर्फ मां ही जिम्मेदार होती है और ऐसी मां को जीवन भर परिवार की प्रताड़ना सहनी पड़ती है। ‘कभी तो हंसो मां’ कविता में एक बेटे के शब्दों में अपनी मां की उस पीड़ा को व्यक्त किया गया है जो उसने लगातार दो बेटियां पैदा करने के कारण भुगती थी। महेन्द्र फुसकेले की इन पंक्तियों पर गौर करें -
खेत के अधगिरे खड़ेरा में
मुझे अपने कंधे पर बैठाले हुए
खूब रोई मां छुप कर।
मां का कसूर था
उसने मेरी दो छोटी बहनों को
एक के बाद एक जना।
             स्त्री के अस्तित्व का विवरण उसके लावण्य के वर्णन के बिना अधूरा है। शायद इसीलिए जीवन के यथार्थ की कठोरता के बीच कवि स्त्री में वसंत को देखता है-
जो वसंत
दिलों की मखमली सेज पर
उबासी ले रहा है
वह जल्दी अंगड़ाई ले लेगा
स्त्री के गेसुओं से
स्त्री की वेणी से खुलक आवेगा।
       महेन्द्र फुसकेले की कविताओं में स्त्री पर विमर्श नारा बन कर नहीं अपितु सहज प्रवाह बन कर बहता है। उनकी कविताओं में नारी की सम्वेदनाओं के प्रति गहन चिंतन बहुत ही व्यावहारिक और सुंदर ढ़ंग से प्रकट हुआ है।
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