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🚩 जय मैया हरसिद्धी रानगिर 🚩
प्रिय मित्रों, मध्यप्रदेश के सागर ज़िले में आदि शक्ति मां जगदम्बा कई रूपों में विराजमान हैं। यहां रहली तहसील में उनका एक रूप है - रानगिर की मां हरसिद्धी देवी। यहां सामान्य तौर पर पूरे साल भक्त देवी के दर्शन करने आते हैं। शारदीय नवरात्र में इस सिद्ध पीठ में भक्तों की भीड़ पूरे नौ दिन लगी रहती है। किन्तु इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण भक्तों की संख्या कम ही है। मेलों का आयोजन भी नहीं किया गया है।
सागर से करीब 46 किलोमीटर दूर स्थित प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र रानगिर अपने आप में इसलिए भी विशिष्ट है क्योंकि यहां देहार नदी के किनारे स्थित प्राचीन मंदिर में विराजीं मां हरसिद्धि देवी की मूर्ति दिन में तीन रूप में अपने भक्तों को दर्शन देती हैं। दुर्गा सप्तशती में दुर्गा कवच के आधार पर स्वयं ब्रह्मा जी ने ऋषियों को नवदुर्गा के नामों का उल्लेख करते हुए कहा है कि-
“प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चंद्रघण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।
पंचमं स्कंदमातेति,षष्ठं कात्यायनीति च ,
सप्तमं कालरात्रीति,महागौरीति चाष्टमम् ।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।।
नवीं देवी सिद्धिदात्री भक्तों की मनोकामनाएं सिद्ध करने वाली देवी ही रानगिर में हरसिद्धी के रूप में विराजमान हैं । सुबह के समय कन्या, दोपहर में युवा और शाम के समय प्रौढ़ रुप में माता दर्शन देती हैैं। यह सूर्य, चंद्र, अग्नि शक्ति के प्रकाशमय, तेजोमय व अमृतमय करने का संकेत है। किवदंती है कि देवी भगवती के 52 सिद्ध शक्ति पीठों में से एक रानगिर है। जहां सती की रान गिरी थी। इसलिए इस क्षेत्र को रानगिर कहा जाता है।
एक किंवदंती यह भी है कि रानगिर में एक अहीर था जो दुर्गा का परम भक्त था,वह अहीर बहुत बलशाली था तो अपने राज्य की तरफ से युद्ध लड़ने जाता था तो उसकी नन्हीं बेटी जंगल में रोज़ गाय चराने जाती थी जहाँ पर उसे एक कन्या रोज़ भोजन भी कराती थी और चांदी के सिक्के भी देती थी । यह बात बेटी रोज़ अपने पिता को सुनाती थी । एक दिन जब अहीर युद्ध पर जा रहा था तो उसने सोचा चलो रास्ते में देखते चलूं कि आखिर कौन है वह स्त्री जो मेरी पुत्री को रोज भोजन कराती और चाँदी के सिक्के देती है। झुरमुट में छिपकर अहीर ने देखा कि एक दिव्य कन्या बिटिया को भोजन करा रही है तो वह समझ गया कि यह तो साक्षात जगदम्बा हैं । जैसे ही अहीर दर्शन के लिए आगे बढ़ा तो कन्या अदृश्य हो गई और उसके बाद वहां यह अनगढ़ पाषाण प्रतिमा प्रकट हो गई और इसके बाद इसी अहीर ने इस प्रतिमा पर छाया प्रबंध कराया और मंदिर बनवाया तब से प्रतिमा आज भी उसी स्थान पर विराजमान है ।
एक प्रचलित कथा यह भी है कि- शिवभक्त रावण ने इस पर्वत पर घोर तपस्या के फलस्वरूप इस स्थान का नाम रावणगिरि रखा गया जो कालांतर में संक्षिप्त होकर रानगिर बन गया । एक कथा के अनुसार पुराण-पुरुष भगवान राम ने वनवास के समय इस पर्वत पर अपने चरण रखे और इस पर्वत का नाम रामगिरि पड़ गया जो अपभ्रंश स्वरूप आज का रानगिर बन गया। ऐसा भी संभव प्रतीत होता है क्योंकि इस पर्वत के समीप स्थित एक गाँव आज भी रामपुर के नाम से जाना जाता है ।
रानगिर देवी मंदिर के निर्माण काल के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते किंतु कहा जाता है कि सन् 1727 ईस्वी में इस पर्वत पर महाराजा छत्रसाल और नवाब बंगस खान और धामोनी के फ़ौज़दार ख़ालिक के बीच युद्ध हुआ था । यद्यपि महाराजा छत्रसाल ने सागर जिला पर अनेक बार आक्रमण किया जिसका विवरण लालकवि ने अपने ग्रंथ छत्रप्रकाश में इस प्रकार किया है –
“वहाँ तै फेरी रानगिर लाई , ख़ालिक चमूं तहौं चलि आई,
उमड़ि रानगिर में रन कीन्हों,ख़ालिक चालि मान मैं दीन्हौं”
नवाब के खिलाफ युद्ध लड़ने में सहायता करने के लिए राजा छत्रसाल स्वयं चल कर होरा गोत्र के यदुवंशी घोषी अहीर राजा कीरत सिंह जूदेव से मदद मांगी ।
इस लड़ाई में महाराजा छत्रसाल और महाराजा कीरत सिंह जूदेव विजय हुई थे जब युद्ध के बाद जब कीरत सिंह जूदेव और महाराजा छत्रसाल वापस लौट रहे थे तो राजा कीरत ने छत्रसाल से कहा कि आपने यदुकुल की कन्या और रानगिर वाली माता के दर्शन की कहानी सुनी होगी क्यों न आज दर्शन कर लेंं। उसके बाद राजा छत्रसाल और राजा कीरत सिंह जूदेव उस स्थान पर पहुंचे जहांं दोनों को देवी माता ने दर्शन दिए और दोनों राजाओं और उनकी पूरी सेना को भोजन करवाया। रानगिर की महिमा से प्रभावित होकर महाराज कीरत सिंह जूदेव और महाराजा छत्रसाल ने मंदिर का निर्माण करवाया था।
इस धार्मिक स्थल तक जाने के दो मार्ग हैं पहला - सागर शहर से दक्षिण में झांसी-लखनादौन राष्ट्रीयकृत राजमार्ग क्र.-26 पर 24 कि.मी. चलकर तिराहे से पूर्व में 8 कि.मी. पक्का सड़क मार्ग और दूसरा रहली से सागर मार्ग पर 8 कि.मी. चलकर पांच मील से दक्षिण में पक्की सड़क से 12 कि.मी. का रास्ता।
इस मंदिर का निर्माण दुर्ग-शैली में किया गया है ।बाहरी परकोटे से चौकोर बरामदा जोड़ा गया है, जिसकी छत पर चढ़कर ऊपर ही ऊपर मंदिर की परिक्रमा की जा सकती है ।
चैत्र और क्वांर में नवरात्रि के समय इस स्थान का महत्व द्विगुणित हो जाता है।
🚩 जय मैया हरसिद्धी रानगिर 🚩
जय भगवति देवि नमो वरदे
जय पापविनाशिनि बहुफलदे।
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे
प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥
जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे
जय पावकभूषितवक्त्रवरे।
जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥
जय महिषविमर्दिनि शूलकरे
जय लोकसमस्तकपापहरे।
जय देवि पितामहविष्णुनते
जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥
जय षण्मुखसायुधईशनुते
जय सागरगामिनि शम्भुनुते।
जय दु:खदरिद्रविनाशकरे
जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥
जय देवि समस्तशरीरधरे
जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे
जय वाञ्छितदायिनि सिद्धिवरे॥5॥
एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।
गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥
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