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मंगलवार, अक्तूबर 20, 2020

हरसिद्धी देवी | रानगिर | सागर | नवरात्रि | शुभकामनाएं | डॉ. वर्षा सिंह

🙏🚩 सभी ब्लॉग पाठकों को नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं 🚩🙏

🚩 जय मैया हरसिद्धी रानगिर 🚩
प्रिय मित्रों, मध्यप्रदेश के सागर ज़िले में आदि शक्ति मां जगदम्बा कई रूपों में विराजमान हैं। यहां रहली तहसील में उनका एक रूप है - रानगिर की मां हरसिद्धी देवी। यहां सामान्य तौर पर पूरे साल भक्त देवी के दर्शन करने आते हैं। शारदीय नवरात्र में इस सिद्ध पीठ में भक्तों की भीड़ पूरे नौ दिन लगी रहती है। किन्तु इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण भक्तों की संख्या कम ही है। मेलों का आयोजन भी नहीं किया गया है। 
      सागर से करीब 46 किलोमीटर दूर स्थित प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र रानगिर अपने आप में इसलिए भी विशिष्ट है क्योंकि यहां देहार नदी के किनारे स्थित प्राचीन मंदिर में विराजीं मां हरसिद्धि देवी की मूर्ति दिन में तीन रूप में अपने भक्तों को दर्शन देती हैं। दुर्गा सप्तशती में दुर्गा कवच के आधार पर स्वयं ब्रह्मा जी ने ऋषियों को नवदुर्गा के नामों का उल्लेख करते हुए कहा है कि-
“प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चंद्रघण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।
पंचमं स्कंदमातेति,षष्ठं कात्यायनीति च ,
सप्तमं कालरात्रीति,महागौरीति चाष्टमम् ।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।।
    नवीं देवी सिद्धिदात्री भक्तों की मनोकामनाएं सिद्ध करने वाली देवी ही रानगिर में हरसिद्धी के रूप में विराजमान हैं । सुबह के समय कन्या, दोपहर में युवा और शाम के समय प्रौढ़ रुप में माता दर्शन देती हैैं। यह सूर्य, चंद्र, अग्नि शक्ति के प्रकाशमय, तेजोमय व अमृतमय करने का संकेत है। किवदंती है कि देवी भगवती के 52 सिद्ध शक्ति पीठों में से एक रानगिर है। जहां सती की रान गिरी थी। इसलिए इस क्षेत्र को रानगिर कहा जाता है। 

   एक किंवदंती यह भी है कि रानगिर में एक अहीर था जो दुर्गा का परम भक्त था,वह अहीर बहुत बलशाली था तो अपने राज्य की तरफ से युद्ध लड़ने जाता था तो उसकी नन्हीं बेटी जंगल में रोज़ गाय चराने जाती थी जहाँ पर उसे एक कन्या रोज़ भोजन भी कराती थी और चांदी के सिक्के भी देती थी । यह बात बेटी रोज़ अपने पिता को सुनाती थी । एक दिन जब अहीर युद्ध पर जा रहा था तो उसने सोचा चलो रास्ते में देखते चलूं कि आखिर कौन है वह स्त्री जो मेरी पुत्री को रोज भोजन कराती और चाँदी के सिक्के देती है। झुरमुट में छिपकर अहीर ने देखा कि एक दिव्य कन्या बिटिया को भोजन करा रही है तो वह समझ गया कि यह तो साक्षात जगदम्बा हैं । जैसे ही अहीर दर्शन के लिए आगे बढ़ा तो कन्या अदृश्य हो गई और उसके बाद वहां यह अनगढ़ पाषाण प्रतिमा प्रकट हो गई और इसके बाद इसी अहीर ने इस प्रतिमा पर छाया प्रबंध कराया और मंदिर बनवाया तब से प्रतिमा आज भी उसी स्थान पर विराजमान है ।

 एक प्रचलित कथा यह भी है कि- शिवभक्त रावण ने इस पर्वत पर घोर तपस्या के फलस्वरूप इस स्थान का नाम रावणगिरि रखा गया जो कालांतर में संक्षिप्त होकर रानगिर बन गया । एक कथा के अनुसार पुराण-पुरुष भगवान राम ने वनवास के समय इस पर्वत पर अपने चरण रखे और इस पर्वत का नाम रामगिरि पड़ गया जो अपभ्रंश स्वरूप आज का रानगिर बन गया। ऐसा भी संभव प्रतीत होता है क्योंकि इस पर्वत के समीप स्थित एक गाँव आज भी रामपुर के नाम से जाना जाता है ।
 रानगिर देवी मंदिर के निर्माण काल के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते किंतु कहा जाता है कि सन् 1727 ईस्वी में इस पर्वत पर महाराजा छत्रसाल और नवाब बंगस खान और धामोनी के फ़ौज़दार ख़ालिक के बीच युद्ध हुआ था । यद्यपि महाराजा छत्रसाल ने सागर जिला पर अनेक बार आक्रमण किया जिसका विवरण लालकवि ने अपने ग्रंथ छत्रप्रकाश में इस प्रकार किया है –
“वहाँ तै फेरी रानगिर लाई , ख़ालिक चमूं तहौं चलि आई,
उमड़ि रानगिर में रन कीन्हों,ख़ालिक चालि मान मैं दीन्हौं”
नवाब के खिलाफ युद्ध लड़ने में सहायता करने के लिए राजा छत्रसाल स्वयं चल कर होरा गोत्र के यदुवंशी घोषी अहीर राजा कीरत सिंह जूदेव से मदद मांगी ।
इस लड़ाई में महाराजा छत्रसाल और महाराजा कीरत सिंह जूदेव विजय हुई थे जब युद्ध के बाद जब कीरत सिंह जूदेव और महाराजा छत्रसाल वापस लौट रहे थे तो राजा कीरत ने छत्रसाल से कहा कि आपने यदुकुल की कन्या और रानगिर वाली माता के दर्शन की कहानी सुनी होगी क्यों न आज दर्शन कर लेंं। उसके बाद राजा छत्रसाल और राजा कीरत सिंह जूदेव उस स्थान पर पहुंचे जहांं दोनों को देवी माता ने दर्शन दिए और दोनों राजाओं और उनकी पूरी सेना को भोजन करवाया। रानगिर की महिमा से प्रभावित होकर महाराज कीरत सिंह जूदेव और महाराजा छत्रसाल ने मंदिर का निर्माण करवाया था। 
इस धार्मिक स्थल तक जाने के दो मार्ग हैं पहला - सागर शहर से दक्षिण में झांसी-लखनादौन राष्ट्रीयकृत राजमार्ग क्र.-26 पर 24 कि.मी. चलकर तिराहे से पूर्व में 8 कि.मी. पक्का सड़क मार्ग और दूसरा रहली से सागर मार्ग पर 8 कि.मी. चलकर पांच मील से दक्षिण में पक्की सड़क से 12 कि.मी. का रास्ता।
इस मंदिर का निर्माण दुर्ग-शैली में किया गया है ।बाहरी परकोटे से चौकोर बरामदा जोड़ा गया है,  जिसकी छत पर चढ़कर ऊपर ही ऊपर मंदिर की परिक्रमा की जा सकती है ।
चैत्र और क्वांर में नवरात्रि के समय इस स्थान का महत्व द्विगुणित हो जाता है।
🚩 जय मैया हरसिद्धी रानगिर 🚩

जय भगवति देवि नमो वरदे 
जय पापविनाशिनि बहुफलदे। 
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे 
प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥

जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे 
जय पावकभूषितवक्त्रवरे। 
जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥

जय महिषविमर्दिनि शूलकरे 
जय लोकसमस्तकपापहरे। 
जय देवि पितामहविष्णुनते 
जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥

जय षण्मुखसायुधईशनुते 
जय सागरगामिनि शम्भुनुते।
जय दु:खदरिद्रविनाशकरे 
जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥

जय देवि समस्तशरीरधरे 
जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे। 
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे 
जय वाञ्छितदायिनि सिद्धिवरे॥5॥

एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:। 
गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥

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गुरुवार, अक्तूबर 01, 2020

वृद्धजन पर कविताएं | अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस जो अंग्रेज़ी में International Day Of Older Persons के नाम से जाना जाता है, इसे प्रत्येक वर्ष 01 अक्टूबर को मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 14 दिसम्बर, 1990 को निर्णय लेने के बाद 01 अक्तूबर 1991 का दिन ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध-दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा। 'अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस' को कई और भी नाम दिए गए हैं जैसे -  'अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस', 'अंतरराष्ट्रीय वरिष्‍ठ नागरिक दिवस',  'विश्व प्रौढ़ दिवस', 'अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस' 'सीनियर सिटीजन डे', Day of Senior Citizen आदि। किन्तु इन सबका उद्देश्य एक है, और वह है अपने वरिष्‍ठ नागरिकों का सम्मान करना एवं उनके सम्बन्ध में चिंतन करना। वर्तमान समय में वृद्ध समाज अत्यधिक कुंठा ग्रस्त है। उनके पास जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनसे किसी बात पर परामर्श नहीं लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व ही देता है। वृद्ध जन स्वयं को उपेक्षित,  निष्प्रयोज्य महसूस करने लगे हैं। अपने वरिष्ठ नागरिकों को, बुज़ुर्गों को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इस दिशा में ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है।
कवियों, शायरों ने वृद्ध जन के प्रति अनेक कविताएं लिखी हैं। कुछ कविताएं आज 
अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस के अवसर पर मैं आप सब से साझा कर रही हूं।

सीनियर सिटीजन दिवस
कुंवर कुसमेश
           
मान जो भी मिल रहा वो नौजवाँ तेवर को है। 
अब बुजुर्गों का तो बस सम्मान कहने भर को है। 
पल रहे वृद्धाश्रम में जाने कितने वृद्ध जन ,
सीनियर सिटीजन दिवस यूँ एक अक्टूबर को है। 
            🍁 - कुँवर कुसुमेश
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वृद्धजन दिवस

डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

उन सभी वृद्धजन को मेरा प्रणाम -
जो नहीं जानते 
कि आज है वृद्ध जन्म दिवस !!!
वह जो लगा रहा है अदालत के चक्कर
दशकों से 
अपने मृत बेटे को न्याय दिलाने,
झुक गई है उसकी कमर 
घिस गया है चश्मा, 
उस वृद्ध को मेरा प्रणाम !
वह मां जो अपनों के द्वारा 
ठुकरा दी गई 
और बैठी है सड़क के किनारे 
टूटा, पिचका कटोरा लिए भीख मांगते 
पेट की खातिर 
दुआएं देती अपने बच्चों को 
उस मां को प्रणाम ! 
मेरा प्रणाम, उस दादी को, उस नानी को,
उस दादा को, उस नाना को
जो अपने नाती-पोतों को 
लेना चाहते हैं अपनी गोद में
सुनाना चाहते हैं एक कहानी 
मगर छोड़ दिए गए हैं घर से दूर 
एक वृद्ध आश्रम में। 
तो, मेरा प्रणाम उन सभी वृद्धजन को 
जो नहीं जानते कि आज वृद्धजन दिवस है !!!
        🍁 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

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दादी जियो हजारों साल

डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक

हम बच्चों के जन्मदिवस को,
धूम-धाम से आप मनातीं।
रंग-बिरंगे गुब्बारों से,
पूरे घर को आप सजातीं।।

आज मिला हमको अवसर ये,
हम भी तो कुछ कर दिखलाएँ।
दादी जी के जन्मदिवस को,
साथ हर्ष के आज मनाएँ।।

अपने नन्हें हाथों से हम,
तुमको देंगे कुछ उपहार।
बदले में हम माँग रहे हैं,
दादी से प्यार अपार।।

अपने प्यार भरे आँचल से,
दिया हमें है साज-सम्भाल।
यही कामना हम बच्चों की
दादी जियो हजारों साल।।
        🍁- डॉ.  रूपचंद्र शास्त्री मयंक
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काया से बुज़ुर्ग

योगेन्द्र यश

खुद  हरे  पत्ते   ही   शाखा   छोड़  देते है,
और  पतंग  बन  उड़के माँझा तोड़ देते है!

संस्कारों  को  देते   बेहतरीन   सलीके  से,
बच्चों को वो लगाके रखते अपने  सीने से,
राह  पे  इनकी  चलके  राह  मोड़  देते  है,
और  पतंग  बन  उड़के माँझा तोड़ देते है!

खुद  हरे  पत्ते   ही   शाखा  छोड़  देते  है,
और  पतंग  बन उड़के  माँझा तोड़ देते है!

काया से बुज़ुर्ग  लेकिन  जवाँ  इरादे  होते,
आँखों पे चश्मा होता नज़रों में ज़माने होते,
टूटके  वो  खुद  ही   रिश्ता  जोड़  देते  है,
खुद  हरे   पत्ते   ही  शाखा   छोड़  देते  है!

खुद   हरे  पत्ते  ही   शाखा   छोड़  देते  है,
और  पतंग  बन उड़के माँझा तोड़  देते  है!
       🍁 - योगेन्द्र "यश"
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वो बूढ़ी निगाहें

शांतनु सान्याल

काश जान पाते उसके बचपन के हसीं
लम्हात क्या थे, 
वो बूढ़ा माथे पे बोझ लादे हुए 
मुख़्तलिफ़ ट्रेनों का पता देता रहा, 
मुद्दतों प्लेटफ़ॉर्म में तनहा ही रहा, 
काश, जान पाते 
उसकी मंज़िल का पता क्या था,
शहर की उस बदनाम बस्ती में
पुराने मंदिर के ज़रा पीछे,
मुग़लिया मस्जिद के बहुत क़रीब,
शिफर उदास वो बूढ़ी निगाहें तकती हैं गुज़रते राहगीरों को, 
काश जान पाते उसकी नज़र में 
मुहब्बत के मानी क्या थे,
वृद्धाश्रम में अनजान, भूले बिसरे वो तमाम
झुर्रियों में सिमटी जिंदगी, 
काश जान पाते, वो उम्मीद की गहराई
जब पहले पहल तुमने चलना सिखा था,
वो मुसाफिरों की भीड़, कोलाहल, 
जो बम के फटते ही रेत की मानिंद 
बिखर गई ख़ून और हड्डियों में 
काश जान पाते कि  
उनके लहू का रंग 
हमसे कहीं अलहदा तो न था, 
ख़ामोशी की भी ज़बाँ होती है,
करवट बदलती परछाइयाँ
और सुर्ख़ भीगी पलकों में कहीं,
काश हम जान पाते ख़ुद के सिवा भी
ज़िन्दगी जीते हैं और भी लोग 
      🍁 - शांतनु सान्याल

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बूढ़ी देह

अनीता सैनी दीप्ति

वह ख़ुश थी,बहुत ही ख़ुश 
आँखों से झलकते पानी ने कहा। 
असीम आशीष से नवाज़ती रही 
लड़खड़ाती ज़बान कुछ शब्दों ने कहा।  

पुस्तक थमाई थी मैंने हाथ में उसके 
एक नब्ज़ से उसने एहसास को छू लिया। 
कहने को कुछ नहीं थी वह मेरी 
एक ही नज़र में  ज़िंदगी को छू लिया। 

परिवार एक पहेली समर्पण चाबी 
अनुभव की सौग़ात एक मुलाक़ात में थमा गई। 
पोंछ न सकी आँखों से पीड़ा उसकी 
 मन में लिए मलाल घर पर अपने आ गई। 

अकेलेपन की अलगनी में अटकी  सांसें 
जीवन के अंतिम पड़ाव का अनुभव करा गई। 
स्वाभिमान उसका समाज ने अहंकार कहा  
अपनों की बेरुख़ी से बूढ़ी देह कराह  गई। 
    🍁 - अनीता सैनी 'दीप्ति'

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वृद्ध जन

सुशील कुमार शर्मा

बोझिल मन 
अकेला खालीपन 
बढ़ती उम्र। 
 
सारा जीवन 
तुम पर अर्पण 
अब संघर्ष। 
 
वृद्ध जन 
तिल-तिल मरते 
क्या न करते?
     🍁 - सुशील कुमार शर्मा

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माँ को वृद्धाश्रम मत भेज

रवि पाटीदार

जिस माँ ने तुम्हें जीवन दिया
उस माँ को क्यों तुम भूलना चाहते हो,
तुम इतने क्यों लाचार बनना चाहते हो।
बार-बार माँ तुमसे यही कहती है कि अपना ले
माँ को वृद्धाश्रम मत भेज।
तुम्हारे घर के सामने मुझे
छोटी सी कुटिया मुझे रहने के लिए दे दे ,
मैं उसमें रह लूँगी।
तुम सुख दो या दुःख दो
मुझे कोई फ़र्क नही पड़ता,
बस तुम दिन में एक बार दिख जाओ
इसी बात की मुझे खुशी हो।
फिर माँ वही कहती है अपना ले
माँ को वृद्धाश्रम मत भेज।
        🍁 -  रवि पाटीदार

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ढलती सांझ का दर्शन

मीना भारद्वाज

   कुछ नये के फेर में ,
   अपना पुराना भूल गए ।
    देख मन की खाली स्लेट ,
    कुछ सोचते से रह गए ।।

     ढलती सांझ का दर्शन ,
     शिकवे-गिलों में डूब गया ।
     दिन-रात की दहलीज पर मन ,
     सोचों में उलझा रह गया ।।

     दो और दो  के जोड़ में ,
     भावों का निर्झर सूख गया ।     
     तेरा था साथ  रह गया ,
     मेरा सब पीछे छूट गया ।।
             🍁 - मीना भारद्वाज
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और अंत में प्रस्तुत है मेरी यानी इस ब्लॉग की लेखिका डॉ. वर्षा सिंह की वृद्ध दिवस पर यह ग़ज़ल -

बूढ़ा दरवेश

डॉ. वर्षा सिंह

बूढ़ी आंखें जोह रही हैं एक टुकड़ा संदेश मां- बाबा को छोड़ के बिटवा बसने गया विदेश 

घर का आंगन, तुलसी बिरवा और काठ का घोड़ा 
पोता-पोती, बहू बिना ये सूना लगे स्वदेश

जीपीएफ से एफडी तक किया निछावर जिस पे
निपट परायों जैसा अब तो वही आ रहा पेश

"तुम बूढ़े हो, क्या समझोगे" यही कहा था उसने 
जिस की चिंता करते करते श्वेत हो गए केश

"वर्षा" हो या तपी दुपहरी दरवाजे वो बैठा बिखरी सांसों से जीवित है जो बूढ़ा दरवेश
            🍁 - डॉ. वर्षा सिंह

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अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस

राष्ट्रपिता गांधी हो जाना सबके बस की बात नहीं | गांधी जयंती विशेष | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिवस 02 अक्टूबर को हम सभी महात्मा गांधी जी का स्मरण कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। गांधी जी कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वास्तविक अर्थों में वे महापुरुष थे। उनमें अनेक खूबियां थीं। उन जैसा बन पाना किसी के लिए भी आसान नहीं है।

राष्ट्रपिता गांधी हो जाना सबके बस की बात नहीं
                                 - डॉ. वर्षा सिंह

सत्य अहिंसा को अपनाना सबके बस की बात नहीं
राष्ट्रपिता गांधी हो जाना सबके बस की बात नहीं

आजादी का स्वप्न देखना, देशभक्त हो कर रहना
बैरिस्टर का पद ठुकराना, सबके बस की बात नहीं

एक लंगोटी, एक शॉल में, गोलमेज चर्चा करना
हुक्मरान से रुतबा पाना, सबके बस की बात नहीं

आजादी जिसकी नेमत हो, वही आमजन बीच रहे
लोभ, मोह, सत्ता ठुकराना, सबके बस की बात नहीं

आत्मशुद्धि के लिए निरंतर, महाव्रती हो कर रहना
हंस कर सारे कष्ट उठाना, सबके बस की बात नहीं

सच के साथ प्रयोगों की "वर्षा" में शुष्क बने रहना
ऐसी अद्भुत  राह दिखाना, सबके बस की बात नहीं
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