गुरुवार, जुलाई 19, 2018

साहित्य वर्षा-17 ग़ज़ल लेखन के युवा हस्ताक्षर: सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरे कॉलम "साहित्य वर्षा" की सत्रहवीं  कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के युवा कवि सुबोध श्रीवास्तव पर मेरा आलेख । ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 17

ग़ज़ल लेखन के युवा हस्ताक्षर: सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’
           - डॉ. वर्षा सिंह
                                       
सागर के युवा रचनाकारों में ग़ज़ल लेखन के प्रति समर्पित भाव का रुझान और उत्साह दिखाई देता है। यूं भी ग़ज़ल काव्य की वह विधा है जिसने भले ही अरबी और फारसी में जन्म लिया किन्तु हिन्दुस्तान की जमीन पर आने के बाद उर्दू से होती हुई हिन्दी में अपनी जगह बनाती चली गई। अब तो ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी आदि आंचलिक बोलियों में भी बेहतरीन ग़ज़लें  लिखी जा रही हैं। जहां तक सागर नगर का प्रश्न है तो यहां एक से एक ग़ज़ल लिखी गई हैं। जैसा कि कहा जाता है कि किसी भी कविमना को ग़ज़ल स्वतः अपनी ओर आकर्षित करती है और ग़ज़लकार से वह लिखवा लेती है जो वह चाहती है। सागर नगर के सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ एक ऐसे ही युवा ग़ज़लकार हैं जिन्हें लेखन के क्षेत्र में अभी कम ही समय हुआ है लेकिन अपनी ग़ज़लों के माध्यम से एक अलग पहचान बनाते जा रहे हैं।
25 जून 1971 को सागर में जन्मे सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ ने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से गणित में एम.एससी. किया। इस दौरान उन्हें ग़ज़ल सुनने का शौक लगा। धीरे-धीरे वे ग़ज़ल के उतार-चढ़ाव में इतने रम गए कि स्वयं भी ग़ज़लें लिखने लगे। उनका कहना है कि ‘‘पहले यूं ही एकाध शेर लिख कर खुश हो लेता था लेकिन लगभग सन् 2014 से मैंने ग़ज़ल लेखन को गंभीरता से लिया। लोगो ने मुझे प्रोत्साहित किया, मेरी ग़ज़लों को सराहा जिसका परिणाम है कि आज मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह ‘सिरे से ख़ारिज़’ प्रकाशन प्रक्रिया में है।’’
सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ स्वामी विवेकानंद विश्वविद्यालय, सागर में फाईनेंस ऑफीसर के पद पर कार्यरत हैं। वे अपने इस गणतीय कार्य के साथ ही स्वयं को ग़ज़ल लेखन से सतत जोड़े हुए हैं। सुबोध की ग़ज़लों में वर्तमान वातावरण की शुष्कता पर कटाक्ष के साथ ही नवीन बिम्ब देखने को मिलते हैं। उनकी यह ग़ज़ल देखें -
आदमी अब आदमी को बस गारा है
इस माहौल में डूबा चमन सारा है
जीस्त का सच मैं तुमको बतलाता हूं
दो बिंदुओं के बीच सफ़र सारा है
देख के कब्र को बताना मुमकिन नहीं
इनमें से कौन जीता, कौन हारा है

एक तीखी स्पष्टवादिता भी सुबोध की ग़ज़लों में उभर कर आती है। राजनीति और समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं से मिली कड़वाहट को वे उतनी ही कठोरता से अपनी ग़ज़लों में उतारते हैं जितनी कठोरता उस कड़वाहट को झेलने के बाद किसी भी संवेदनशील व्यक्ति में उत्पन्न हो सकती है। बिना लाग-लपेट के कही कई बात कितनी भी चुभे या खटके लेकिन उसकी सच्चाई को नकारना कठिन होता है। यह तथ्य सुबोध की इस ग़ज़ल में कुछ इस अंदाज़ में आया है कि -
ऐसी  कि तैसी ऐसे  निजाम की
तेरी  हलाल की,  मेरे हराम की
जम्हूरियत की बात सुनते नहीं वो
सुनते हैं तो पंडित की, इमाम की

यह तल्ख़ अंदाज़ उनकी कुछ और ग़ज़लों में भी देखा जा सकता है जिसमें वे आज के इंसान की प्रवृत्तियों पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि -
इंकलाब की बातों पर खूब ताली बजाएंगे
ये शरीफ़ लोग हैं फिर चुपचाप घर जाएंगे
पहले ये देखेंगे तमाशा बुज़दिली के साथ
फिर शाम को चौराहे पर मोमबत्ती जलाएंगे

आज जिस प्रकार पर्यावरण में प्रदूषण का जहर घुलता जा रहा है और देश की राजधानी दिल्ली हर साल जाड़ों में स्मॉग की चपेट में आ जाती है, वह हमारी पर्यावर को बचाने के प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। दिल्ली सरकार भी इस बात को स्वीकार कर चुकी है कि दिल्ली की हवा में प्रदूषण का स्तर खतरे के निशान को छूने लगा है। इस हालात पर तेज करते हुए सुबोध ‘सागर’ ने लिखा है कि -
अपनी  जेब में  अपना ही पता रखिए
आप दिल्ली में  अपनों को बता रखिए
ज़हर फैल चुका है यहां की फिजाओं में
हो सके तो साथ अपने लिए हवा रखिए 

रोजी-रोटी के लिए गांव छोड़ कर शहर की ओर पलायन की विवशता सदियों से चली आ रही है। अपना गांव, घर और अपनों को छोड़ कर अनजान शहर में दर-दर भटकना कितना पीड़ादायक होता है यह कोई भुक्तभोगी ही भली-भांति बता सकता है या फिर वह कवि जिसने इस पीड़ा की तह तक पहुंच कर उसे अपनी संवेदनाओं से महसूस किया हो। सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ ने अपनी एक ग़ज़ल में इस पीड़ा को बखूबी उतारा है। बानगी देखिए -
आ तो गए गांव छोड़ कर इधर, बाबा
मकानों में ढूंढ रहे हैं  कोई घर, बाबा
लोगो जैसा ही  मिजाज नगर का है
सर्दी में भी  पसीने से तरबातर, बाबा
मिलना न मिलना,  ये अलग बात है
रखता नहीं मैं कोशिशों में कसर, बाबा
दुआ ‘सागर’ अब भी  काम करती है
दवाओं में नहीं रहा  अब असर, बाबा

ऐसा नहीं है कि सुबोध ‘सागर’ की ग़ज़लों में सिर्फ तंज और तल्खियां ही हों, वे रूमानीयत की ग़ज़लें भी लिखते हैं। ये शेर देखें-
मुझको  इश्क़ का  कोई तजुर्बा न था
वो शख़्स वैसे ठीकठाक, पर भला न था
रकीबों ने अपना काम बाखूबी किया है
तुमको वो सुनाया मैंने जो कहा न था

सुबोध के किसी-किसी शेर में एक अनूठा चुटीलापन भी दिखाई देता है जो उसे पढ़ने या सुनने वाले को हंसाता और गुदगुदाता भी है। ये उदाहरण देखें-
वो कहता है, इस दौलत में धरा क्या है
यारो पता करो,  आखिर माज़रा क्या है
हूरें तो  सब की सब बंट चुकी  होंगी
मेरे वास्ते  जन्नत में अब रखा क्या है

सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ की ग़ज़लों में विचार और संवेदना का क्षेत्र विस्तृत है और अभिव्यक्ति में सहजता है जो ग़ज़ल के क्षेत्र में उनकी संभावनाओं को आश्वस्ति प्रदान करता है।       
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(साप्ताहिक सागर झील दि. 03.07.2018)
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