सोमवार, मई 14, 2018

साहित्य वर्षा - 9 शायर अशोक मिजाज़ और उनकी हिन्दी ग़ज़लें - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, 

       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी नवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ शायर अशोक मिज़ाज और उनकी हिन्दी ग़ज़लेंं।....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ..

साहित्य वर्षा - 9

 शायर अशोक मिजाज़ और उनकी हिन्दी ग़ज़लें 

       - डॉ. वर्षा सिंह


            ग़ज़ल लिखी नहीं, कही जाती है। जो दिल में होता है उसे कहते समय बनावट या मिलावट की कृत्रिम कारीगरी नहीं होती। जबकि खालिस दिमागी यानी विशुद्ध वैचारिक लेखन में संवेदनाओं के साथ ही सैद्धांतिक कठोरता रहती है। चूंकि ग़ज़ल का संबंध सीधे दिल से होता है इसलिए वैचारिकता होते हुए भी ग़ज़ल में कथ्य की प्रस्तुति स्वाभाविक प्रवाह और गेयता लिए होती है। भूमंडलीकरण, बाजारवाद, दलित विमर्श, लोक चेतना और स्त्री-विमर्श, हिंदी गजल में नुकीली एकाग्रता के साथ व्यक्त हो रहे हैं। गजल के इस परिदृश्य में कथ्य की सार्थकता, शेर की अभिव्यक्ति में लोच, लय और रवानी के साथ विसंगति का प्रतिवाद है।


23 जनवरी 1957 को सागर में जन्मे, उर्दू ग़ज़ल में अच्छी-खासी दखल रखने वाले शायर अशोक मिज़ाज ने जब हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में क़दम रखा तो ग़ज़ल के छांदासिक निभाव की कोई कठिनाई उनके सामने नहीं थी। आशोक मिज़ाज ने हिन्दी ग़ज़ल के यथार्थवाद को बड़ी खूबसूरती से साधा है। यूं तो अशोक मिज़ाज की सारी ग़ज़लें अनुभूतियों की व्यापकता के बहुरंगी आयामों से भरी-पूरी हैं और संवेदना को गहरे तक दस्तक देने वाली हैं किन्तु कुछ शेर तराशे हुए हीरे के समान अपने अद्भुत चमकदार आकर्षण से अंतःचेतना से एकाकार हो कर अपनी पारदर्शी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम हैं। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों का सरोकार आज की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और यहां तक कि पारिवारिक दशाओं से भी है। मिज़ाज कहते हैं कि - 

मेरे  लफ़्जों के   परदे में  मेरा  संसार देखोगे

कभी  तनहाइयों में  जब  मेरे  अश्आर देखोगे

दिखाई कुछ नहीं देगा, समझ में कुछ न आएगा

गुज़रती  रेल की  जब पास से  रफ़्तार देखोगे 


अशोक मिज़ाज एक ग़ज़लकार ही नहीं अपितु ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य के प्रति सजग और अध्ययनशील चिंतक भी हैं। शिल्पगत रूप में ग़ज़ल को ठीक उसी रूप में स्वीकार करने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं जिस रूप में ग़ज़ल अरबी, फ़ारसी कर बहरों की रचना-ध्वनि के निश्चित क्रम में अपनी पैदाईश के समय सामने आई थी। शिल्प के मामले में अशोक मिज़ाज जहां एक ओर चौकन्ने रह कर अरबी की प्रचीन बहरों में अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं, वहीं कथ्य और भाषा के मामले में अर्वाचीन प्रयोगवादिता को स्वीकार करते हुए समकालीन सोच की दस्तावेज़ी ग़ज़लें कहने में अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। उनकी ग़ज़लों में वैयक्तिक प्रबुद्धता साफ़ दिखाई देती है। जैसे यह शेर - 

बदल रहे हैं  यहां  सब रिवाज़  क्या होगा

मुझे ये फ़िक्र है, कल का समाज क्या होगा

दिलो-दिमाग़  के  बीमार  हैं  जहां  देखो

मैं  सोचता हूं  यहां  रामराज  क्या  होगा 


सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संदर्भों के बिम्ब भी इन ग़ज़लों में बखूबी उभर कर आए हैं। तेजी से बदलते परिवेश को ले कर अशोक मिज़ाज की चिन्ता इन शब्दों में मुखर होती है, यह उदाहरण देखें -

फैला हुआ है ज़हरे-सियासत  कहां-कहां

करते  फिरेंगे  आप हिफ़ाज़त  कहां-कहां

मज़हब धरम के नाम पे हमने ये क्या किया

शरमा रही है  आज  रफ़ाक़त  कहां-कहां


समसामयिक मूल्यों के पतन पर गहरी चोट करते इन मिसरों की व्यंजना प्रत्येक व्यक्ति को आत्म मंथन करने को विवश कर सकती है। आज हम जिस परिवेश और यथार्थ में सांसें ले रहे हैं,वह पूरी तरह से कष्टदायी है। एक प्रबुद्ध गजलकार के नाते अशोक मिज़ाज इस पीड़ा को अच्छी तरह समझते हैं और अपनी गजलों में व्यक्त करते हैं। इसीलिए उनके शेर वर्तमान राजनीति के गिरते स्तर पर तीखा कटाक्ष करते हैं। एक बानगी देखिए -

सियासत में  हमारा भी  कुछ ऐसा  हाल है जैसे

किसी  बदनाम औरत से  शराफ़त  हार जाती है

बड़े लोगों के कपड़ों तक कहां कीचड़ पहुंचता है

अगर दौलत हो, ओहदा हो, ज़िल्लत हार जाती है


भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद की भागमभाग में जीवन की सरसता कहीं खोती जा रही है। औद्योगिक नगरों के रूप में असंवेदनशीलता का विस्तृत मरुथल सामने दिखाई देता है। जो शहर अभी आत्मीयता का अर्थ जानते हैं, वे भी तेजी से अपरिचय का लबादा ओढ़ते जा रहे हैं। इस तथ्य को अत्यंत बारीकी से शायर ने कुछ इस तरह बयान किया है -

ये  नगर  भी  कारखानों का  नगर  हो जाएगा

इन दरख़्तों की जगह कुछ चिमनियां रह जाएंगी 


इस प्रकार की ग़ज़लों में मात्र गहन मानवीय सरोकार है। अशोक मिज़ाज के सरोकार समाज और राजनीति पर आ कर ही नहीं ठहर जाते हैं वरन् काव्य की समकालीन दशा के प्रति भी चिन्ता प्रकट करते हैं। उनकी चिन्ता ग़ज़ल जैसी कोमल विधा से खिलवाड़ करने वालों को ले कर भी है। ग़ज़ल जैसी विधा को गंभीरता से न लेने वालों के लिए वे कहते हैं-

कल क्या थी और आज ये क्या हो गई ग़ज़ल

ग़ज़लों की भीड़-भाड़ में  ही  खो गई ग़ज़ल


समकालीनता के निर्वहन के साथ पुरातन और पारम्परिक मूल्यों का परिपोषण का जो स्वरूप अशोक मिजाज की ग़ज़लों में दिखाई देता है वह उनके इन शेरों से बखूबी बयां   होता है जो कि उनके ग़ज़ल संग्रह ‘किसी किसी पे ग़ज़ल मेहरबान होती है’ में संग्रहीत हैं-

सारी  तारीफ़   उस   हुनर  की है

‘मीर’ ‘ग़ालिब’ ‘जिगर’ ‘ज़फ़र’ की है

अपनी हस्ती  तो बस  सिफ़र की है

सारी   खूबी   तेरी   नज़र  की है


मन की उड़ान कितनी भी विस्तृत हो लेकिन जीवन की सच्चाइयां उस धरातल पर इंसान को खींच लाती हैं जहां कभी सम्पूर्णता का अहसास नहीं हो पाता है। श्रृंगारिक कल्पनाओं और जीवन के रोजमर्रा के सच के बीच बेहतरीन संतुलन बिठाते हुए अशोक मिजाज कहते हैं - 

बाग़ में  नागफनी  का  भी  शज़र लगता है

खूबसूरत  हो  अगर   ऐब  हुनर  लगता है

कितनी चीज़ों की कमी अब भी नज़र आती है

           जब भी देखूं तो अधूरा-सा ये  घर लगता है


स्व. डॉ. शिव कुमार मिश्र की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है कि ‘‘उनके (अशोक मिज़ाज) अधिकतर शेर देर तक दिलो-दिमाग़ पर दस्तक देते हैं।’’ जब ग़ज़लों में जीवन का समग्र अपने सकल यथार्थ के साथ बड़ी सहजता से प्रस्तुत हो रहा हो तो उनका देर तक मन को आलोड़ित करना स्वाभाविक है। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों में दुख भी है, सुख भी, मोह है, पीड़ा भी है, कल्पना है तो यथार्थ भी है। यथार्थ भी ऐसा कि मानो ग़ज़ल पढ़ने या सुनने वाले की आंखों के आगे दृश्य उभर जाएं -  

रोकती  हैं  रास्ता  जब  लाल-पीली बत्तियां

याद आती  हैं  मुझे  वो  गांव की पगडंडियां

आपका इक फोन नंबर हो तो लिखवा दीजिए

वक़्त ले लेती हैं कितना आती जाती चिट्ठियां 

 

अहद प्रकाश ने अशोक मिज़ाज की ग़ज़लगोई पर टिप्पणी करते हुए बहुत सही लिखा है कि,‘‘हिन्दी भाषा में लिखी इनकी ग़ज़लें हर तरह से प्रशंसनीय और विचारणीय हैं। इनके हर एक शेर में एक नया आसमान खुलता नज़र आता है जिसमें हज़ारहा ज़मीनें समन्दरों के साथ नए दृश्य और नए बिम्ब प्रस्तुत करती नज़र आती हैं। वे इस सदी के स्वच्छ और खरे शाइर हैं।’’ 

अशोक मिज़ाज के संदर्भ में यह बेझिझक कहा जा सकता है कि ग़ज़लकार को समकालीन ग़ज़ल कहने का शऊर हासिल है, उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल का मिज़ाज मौज़ूद है तो अश्आर अपने फ़ॉर्म और तक़नीकी पहलुओं पर खरे उतरते हैं। 

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 01.05.2018)

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साहित्य वर्षा - 9
             
शायर अशोक मिजाज़ और उनकी हिन्दी ग़ज़लें
       - डॉ. वर्षा सिंह

ग़ज़ल लिखी नहीं, कही जाती है। जो दिल में होता है उसे कहते समय बनावट या मिलावट की कृत्रिम कारीगरी नहीं होती। जबकि खालिस दिमागी यानी विशुद्ध वैचारिक लेखन में संवेदनाओं के साथ ही सैद्धांतिक कठोरता रहती है। चूंकि ग़ज़ल का संबंध सीधे दिल से होता है इसलिए वैचारिकता होते हुए भी ग़ज़ल में कथ्य की प्रस्तुति स्वाभाविक प्रवाह और गेयता लिए होती है। भूमंडलीकरण, बाजारवाद, दलित विमर्श, लोक चेतना और स्त्री-विमर्श, हिंदी गजल में नुकीली एकाग्रता के साथ व्यक्त हो रहे हैं। गजल के इस परिदृश्य में कथ्य की सार्थकता, शेर की अभिव्यक्ति में लोच, लय और रवानी के साथ विसंगति का प्रतिवाद है।

23 जनवरी 1957 को सागर में जन्मे, उर्दू ग़ज़ल में अच्छी-खासी दखल रखने वाले शायर अशोक मिज़ाज ने जब हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में क़दम रखा तो ग़ज़ल के छांदासिक निभाव की कोई कठिनाई उनके सामने नहीं थी। आशोक मिज़ाज ने हिन्दी ग़ज़ल के यथार्थवाद को बड़ी खूबसूरती से साधा है। यूं तो अशोक मिज़ाज की सारी ग़ज़लें अनुभूतियों की व्यापकता के बहुरंगी आयामों से भरी-पूरी हैं और संवेदना को गहरे तक दस्तक देने वाली हैं किन्तु कुछ शेर तराशे हुए हीरे के समान अपने अद्भुत चमकदार आकर्षण से अंतःचेतना से एकाकार हो कर अपनी पारदर्शी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम हैं। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों का सरोकार आज की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और यहां तक कि पारिवारिक दशाओं से भी है। मिज़ाज कहते हैं कि -
मेरे  लफ़्जों के   परदे में  मेरा  संसार देखोगे
कभी  तनहाइयों में  जब  मेरे  अश्आर देखोगे
दिखाई कुछ नहीं देगा, समझ में कुछ न आएगा
गुज़रती  रेल की  जब पास से  रफ़्तार देखोगे

अशोक मिज़ाज एक ग़ज़लकार ही नहीं अपितु ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य के प्रति सजग और अध्ययनशील चिंतक भी हैं। शिल्पगत रूप में ग़ज़ल को ठीक उसी रूप में स्वीकार करने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं जिस रूप में ग़ज़ल अरबी, फ़ारसी कर बहरों की रचना-ध्वनि के निश्चित क्रम में अपनी पैदाईश के समय सामने आई थी। शिल्प के मामले में अशोक मिज़ाज जहां एक ओर चौकन्ने रह कर अरबी की प्रचीन बहरों में अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं, वहीं कथ्य और भाषा के मामले में अर्वाचीन प्रयोगवादिता को स्वीकार करते हुए समकालीन सोच की दस्तावेज़ी ग़ज़लें कहने में अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। उनकी ग़ज़लों में वैयक्तिक प्रबुद्धता साफ़ दिखाई देती है। जैसे यह शेर -
बदल रहे हैं  यहां  सब रिवाज़  क्या होगा
मुझे ये फ़िक्र है, कल का समाज क्या होगा
दिलो-दिमाग़  के  बीमार  हैं  जहां  देखो
मैं  सोचता हूं  यहां  रामराज  क्या  होगा

सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संदर्भों के बिम्ब भी इन ग़ज़लों में बखूबी उभर कर आए हैं। तेजी से बदलते परिवेश को ले कर अशोक मिज़ाज की चिन्ता इन शब्दों में मुखर होती है, यह उदाहरण देखें -
फैला हुआ है ज़हरे-सियासत  कहां-कहां
करते  फिरेंगे  आप हिफ़ाज़त  कहां-कहां
मज़हब धरम के नाम पे हमने ये क्या किया
शरमा रही है  आज  रफ़ाक़त  कहां-कहां

समसामयिक मूल्यों के पतन पर गहरी चोट करते इन मिसरों की व्यंजना प्रत्येक व्यक्ति को आत्म मंथन करने को विवश कर सकती है। आज हम जिस परिवेश और यथार्थ में सांसें ले रहे हैं,वह पूरी तरह से कष्टदायी है। एक प्रबुद्ध गजलकार के नाते अशोक मिज़ाज इस पीड़ा को अच्छी तरह समझते हैं और अपनी गजलों में व्यक्त करते हैं। इसीलिए उनके शेर वर्तमान राजनीति के गिरते स्तर पर तीखा कटाक्ष करते हैं। एक बानगी देखिए -
सियासत में  हमारा भी  कुछ ऐसा  हाल है जैसे
किसी  बदनाम औरत से  शराफ़त  हार जाती है
बड़े लोगों के कपड़ों तक कहां कीचड़ पहुंचता है
अगर दौलत हो, ओहदा हो, ज़िल्लत हार जाती है

भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद की भागमभाग में जीवन की सरसता कहीं खोती जा रही है। औद्योगिक नगरों के रूप में असंवेदनशीलता का विस्तृत मरुथल सामने दिखाई देता है। जो शहर अभी आत्मीयता का अर्थ जानते हैं, वे भी तेजी से अपरिचय का लबादा ओढ़ते जा रहे हैं। इस तथ्य को अत्यंत बारीकी से शायर ने कुछ इस तरह बयान किया है -
ये  नगर  भी  कारखानों का  नगर  हो जाएगा
इन दरख़्तों की जगह कुछ चिमनियां रह जाएंगी

इस प्रकार की ग़ज़लों में मात्र गहन मानवीय सरोकार है। अशोक मिज़ाज के सरोकार समाज और राजनीति पर आ कर ही नहीं ठहर जाते हैं वरन् काव्य की समकालीन दशा के प्रति भी चिन्ता प्रकट करते हैं। उनकी चिन्ता ग़ज़ल जैसी कोमल विधा से खिलवाड़ करने वालों को ले कर भी है। ग़ज़ल जैसी विधा को गंभीरता से न लेने वालों के लिए वे कहते हैं-
कल क्या थी और आज ये क्या हो गई ग़ज़ल
ग़ज़लों की भीड़-भाड़ में  ही  खो गई ग़ज़ल

समकालीनता के निर्वहन के साथ पुरातन और पारम्परिक मूल्यों का परिपोषण का जो स्वरूप अशोक मिजाज की ग़ज़लों में दिखाई देता है वह उनके इन शेरों से बखूबी बयां   होता है जो कि उनके ग़ज़ल संग्रह ‘किसी किसी पे ग़ज़ल मेहरबान होती है’ में संग्रहीत हैं-
सारी  तारीफ़   उस   हुनर  की है
‘मीर’ ‘ग़ालिब’ ‘जिगर’ ‘ज़फ़र’ की है
अपनी हस्ती  तो बस  सिफ़र की है
सारी   खूबी   तेरी   नज़र  की है

मन की उड़ान कितनी भी विस्तृत हो लेकिन जीवन की सच्चाइयां उस धरातल पर इंसान को खींच लाती हैं जहां कभी सम्पूर्णता का अहसास नहीं हो पाता है। श्रृंगारिक कल्पनाओं और जीवन के रोजमर्रा के सच के बीच बेहतरीन संतुलन बिठाते हुए अशोक मिजाज कहते हैं -
बाग़ में  नागफनी  का  भी  शज़र लगता है
खूबसूरत  हो  अगर   ऐब  हुनर  लगता है
कितनी चीज़ों की कमी अब भी नज़र आती है
           जब भी देखूं तो अधूरा-सा ये  घर लगता है

स्व. डॉ. शिव कुमार मिश्र की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है कि ‘‘उनके (अशोक मिज़ाज) अधिकतर शेर देर तक दिलो-दिमाग़ पर दस्तक देते हैं।’’ जब ग़ज़लों में जीवन का समग्र अपने सकल यथार्थ के साथ बड़ी सहजता से प्रस्तुत हो रहा हो तो उनका देर तक मन को आलोड़ित करना स्वाभाविक है। अशोक मिज़ाज की ग़ज़लों में दुख भी है, सुख भी, मोह है, पीड़ा भी है, कल्पना है तो यथार्थ भी है। यथार्थ भी ऐसा कि मानो ग़ज़ल पढ़ने या सुनने वाले की आंखों के आगे दृश्य उभर जाएं - 
रोकती  हैं  रास्ता  जब  लाल-पीली बत्तियां
याद आती  हैं  मुझे  वो  गांव की पगडंडियां
आपका इक फोन नंबर हो तो लिखवा दीजिए
वक़्त ले लेती हैं कितना आती जाती चिट्ठियां

अहद प्रकाश ने अशोक मिज़ाज की ग़ज़लगोई पर टिप्पणी करते हुए बहुत सही लिखा है कि,‘‘हिन्दी भाषा में लिखी इनकी ग़ज़लें हर तरह से प्रशंसनीय और विचारणीय हैं। इनके हर एक शेर में एक नया आसमान खुलता नज़र आता है जिसमें हज़ारहा ज़मीनें समन्दरों के साथ नए दृश्य और नए बिम्ब प्रस्तुत करती नज़र आती हैं। वे इस सदी के स्वच्छ और खरे शाइर हैं।’’
अशोक मिज़ाज के संदर्भ में यह बेझिझक कहा जा सकता है कि ग़ज़लकार को समकालीन ग़ज़ल कहने का शऊर हासिल है, उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल का मिज़ाज मौज़ूद है तो अश्आर अपने फ़ॉर्म और तक़नीकी पहलुओं पर खरे उतरते हैं।
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