रविवार, मार्च 25, 2018

"नीलकंठ का स्वप्न " जीवन में सार्थक कर्म को रेखांकित करता उपन्यास  - डॉ. वर्षा सिंह

पाठकमंच हेतु श्री जगदीश तोमर लिखित उपन्यास ‘नीलकंठ का स्वप्न’ पर समीक्षात्मक आलेख -
  जीवन में सार्थक कर्म को रेखांकित करता उपन्यास
                                          - डॉ. वर्षा सिंह
उपन्यास एक ऐसी विधा है जो अपने विस्तृत कैनवास पर अनेक रंगों की छटा बिखेरने को आमंत्रित करती है। किन्तु एक उपन्यासकार के लिए इसका विस्तार ही चुनौती बन कर सामने आता है। अनेक घटनाएं तथा अनेक पात्र और इन सबके बीच एक स्वाभाविक एवं सशक्त सामंजस्य बिठाया गया हो तभी उपन्यास प्रभावी बनता है। उपन्यासकार जगदीश तोमर ने अपने लेखकीय कौशल से जिस प्रभावी उपन्यास का सृजन किया है, उसका नाम है-‘नीलकंठ का स्वप्न’। सन् 1935 में मध्यप्रदेश के भिंड जिले के बझाई गांव में जन्में जगदीश तोमर ने एक लम्बा जीवन-संघर्ष अनुभव किया है जिसकी छाप उनके उपन्यास में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अपने 176 पृष्ठ के इस उपन्यास में उपन्यासकार ने कई समसामयिक प्रसंगों को सामने रखते हुए बड़े सहज ढंग से संस्मरणों को भी पिरोया है। अंग्रेजी साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के साथ ही उन्होंने कानून में भी उपाधि हासिल की है।
उपन्यास विधा के बारे में जगदीश तोमर ने स्वयं अपने प्राक्कथन में लिखा है कि - ‘‘उपन्यास का और एक वैशिष्ट्य है। उसमें लेखक के जीवन और जगत विषयक अनुभव एवं विचार प्रायः परिपक्व हो कर प्रकट होते हैं। इसलिए औपन्यासिक कृति, अपने स्तर एवं श्रेष्ठत्व के अनुपात में, संबंधित जनसमाज को, विचार और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से संवर्द्धित एवं परिमार्जित करने की अद्भुत क्षमता रखती है।’’ उनका यह कथन उनके इस उपन्यास पर खरा उतरता है।
जगदीश तोमर का उपन्यास ‘‘नीलकंठ का स्वप्न’’ अपने समय के समाज से संवाद करता हुआ अपने समकाल को मानवीय मूल्यों पर रचने का आग्रह करता है। यह उपन्यास हिन्दी साहित्य जगत में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज़ करने में सक्षम है। जगदीश तोमर का उन्यासकार हमारे समय के समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों का बड़ी गहराई से विवेचन करता है। समाज अनेक संकटों से घिरा हुआ है जिनमें जातिवाद, धार्मिक कट्टरतावाद, संप्रदायवाद, वर्चस्ववाद आदि प्रमुख हैं। ये सभी किस प्रकार व्यक्ति के विचारों की धार को मंद करने के लिए कटिबद्ध रहते हैं, इस उपन्यास के जरिए बाखूबी समझा जा सकता है। यूं भी कथा-साहित्य में जीवन को समग्रता से पकड़ने एवं उसे लोकरुचि में प्रस्तुत करने की अदभुत क्षमता होती है। इसीलिए तो कवि निराला ने कहा था कि ‘‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है।’’ जगदीश तोमर ने जीवन संग्राम को उपन्यास के कैनवास पर एक आकर्षक किन्तु गहन विचारों को संग्रेषित करने वाले कथानक को ‘‘नीलकंठ का स्वप्न’’ के रूप में बुना है। जिस प्रकार भगवान शिव ने समुद्र मिंन से निकले हलाहल विष को अपने कंठ में इसलिए धारण कर लिया था कि विष जगत् का संहार न कर सके, उसी तरह ‘‘नीलकंठ का स्वप्न’’ उपन्यास के बहुधा पात्र जगत् कल्याण का स्वप्न देखते हुए तमाम व्यवधानों एवं कष्टों को शांतिपूर्वक सहन करते दिखाई देते हैं।   
उपन्यास के तीन प्रमुख पात्र हैं- सुबोध बाबू, अमल दा और सुस्मिता। उपन्यास का मूल कथानक इन तीनों पात्रों का आधार ले कर आरम्भ होता है और इन्हीं तीनों पात्रों की जीवन परिणति पर अपने चरम पर पहुंचता है। इन तीनों पात्रों की जीवन शैली प्रत्यक्षतः परस्पर भिन्न भले ही है किन्तु इनके जीवन के उद्देश्य में अद्भुत समानता है। तीनों ने अपने जीवन को जनसेवा और लोकहित के प्रति समर्पित कर दिया है जिसके मूल में देश में राष्ट्रीय मूल्यों की पुनर्स्थापना निहित है।
आज समकालीन हिन्दी उपन्यास ने अपनी संरचना के भीतर जिस विशिष्टता को आत्मसात किया है, वह है अपने चारो ओर स्थित समय-समाज से संवाद स्थापित करने की कला। अतीत, वर्तमान ओर भविष्य का एक साथ विश्लेषण, जिससे उपन्यास का पाठक स्वयं निर्णय ले सके।
 उपन्यास के प्रमुख तीन पात्रों में सुबोध बाबू वयोवृद्ध हैं। वे अठहत्तर वर्ष की आयु पूर्ण कर चुके हैं। एक कार्यक्रम से लौटते समय ट्रेन रद्द हो जाने पर उन्हें अपनी एक शिष्या के घर ठहरना पड़ता है। यह शिष्या सुस्मिता है जो एक कला संस्थान में काम करती है। सुस्मिता के पास रहते हुए सुबोध बाबू को अनायास ही डायरी के वो पन्ने मिल जाते हैं जिनमें सुस्मिता ने अमल दा के प्रति अपने अनुराग को सांकेतिक रूप से लिखा था। सुबोध बाबू अमल दा से मिलने जाना चाहते हैं जो उन दिनों जैसलमेर में भील आदिवासियों के बीच रहते हुए जनजागरण का काम कर रहे थे। सुस्मिता सुबोध बाबू से कहती है कि वह पहले अमल दा को चिट्ठी लिख कर पूछ ले कि अमल दा जैसलमेर में कब तक रुकेंगे, इसके बाद ही सुबोध बाबू उनसे मिलने जैसलमेर जाएं। अमल दा के उत्तर की प्रतीक्षा में सुबोध बाबू सुस्मिता के घर पर ही रुके रहते हैं। दोनों के बीच एक स्वस्थ वैचारिक संबंध था जिसके कारण सुबोध बाबू के रुके रहने से सुस्मिता को भी कोई दुविधा नहीं रहती है। उसी दौरान दोनों को लोकप्रवंचना का सामना करना पड़ता है। महिला पत्रकार रंजना सुबोध बाबू का साक्षात्कार लेती है किन्तु जब वह साक्षात्कार प्रकाशित होता है तो वह स्वयं घबरा उठती है क्योंकि उसके किसी साथी ने उसके साक्षात्कार के शीर्षक को ही बदल दिया था। यह बदला हुआ शीर्षक था- ‘‘सुबोध जी सुस्मिता के साथ बिता रहे हैं जीवन की सांझ’’। रंजना व्यथित हो उठती है इस घटना से। सुस्मिता भी असहज हो जाती है किन्तु सुबोध बाबू रंजना और सुस्मिता को समझा-बुझा कर शांत करते हैं।  इस घटना के माध्यम से उपन्यासकार ने मीडिया से जुड़े उन लोगों का चेहरा सामने लाया है जो अपने अखबार की बिक्री बढ़ाने या अपने चैनल के टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए किसी समाचार को तोड़ने-मरोड़ने से नहीं चूकते हैं।
सत्य का मार्ग हमेशा आत्मिक सुख देता है किन्तु यह मार्ग हमेशा कठिन भी होता है। सुस्मिता जिस कला संस्थान में काम करती थी, वहां एक पेंटिग प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। प्रदर्शनी के दौरान अनेक पेंटिंग्स की बिक्री होती है जिसकी एक-एक पाई का हिसाब सुस्मिता अपने संस्थान को देती है फिर भी उस पर आरोप लगाया जाता है कि उसने पेंटिंग्स की बिक्री से मिली अधिकांश राशि अपने पास रख ली है। मामले की जांच चलती है और सुस्मिता निर्दोष सिद्ध होती है। लेकिन इसके बाद सुस्मिता उस कला संस्थान से त्यागपत्र दे कर अलग हो जाती है। जहां एक ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी पर संदेह किया जाए वहां रहना उचित भी नहीं था। सुस्मिता अमल दा के पदचिन्हों पर चलने का निर्णय लेती है। यह सच है कि अमल दा के व्यक्तित्व ने सुस्मिता को इतना प्रभावित किया था कि उनका सहज स्पर्श पा कर भी उसका रोम-रोम पुलक उठा था। प्रसंग सामान्यन्सा था किन्तु भावनाओं के प्रभाव ने उसमें  असामान्य अनुभूति पैदा कर दी थी। अमल दा ने सुस्मिता से कहा था -‘‘भीतर आ कर बैठो सुस्मिता। यूं दरवाजे पर कब तक खड़ी रहोगी।’’ जब सुस्मिता वहां से नहीं हिली तो अमल दा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा-‘‘चलो भीतर, बैठ कर बात करो।’’ और, प्रेम की सिहरन से भरी सुस्मिता वहां से भाग खड़ी हुई। अव्यक्त प्रेम का यह व्यक्त प्रस्तुतिकरण एक निर्दोष एवं सुंदर भाव पैदा करता है, साथ ही जिज्ञासा भी कि अब आगे क्या होगा।  
अमल दा यायावरी जीवन जीते हुए साम्प्रदायिक सद्भाव एवं राष्ट्रमूल्यों की स्थापना के कार्य में जुटे हुए थे। कभी वे जैसलमेर में रहते तो कभी ऋषिकेश पहुच जाते। कभी-कभी वे स्मृतियों के सहारे अपने बचपन के उस समय में जा पहुंचते जब वे जिला बांदा के गांव बझौंदा के लिए निकले थे किन्तु भटक कर एक अन्य गांव जा पहुंचे थे। वह मुस्लिम बाहुल्य गांव था। उस गांव में अमल दा जो ममत्व और आत्मीयता मिली थी उसने उन्हें यह जरूरी पाठ पढ़ा दिया था कि इंसान सब एक से होते हैं। साम्प्रदायिकता या धर्मान्धता तो उन पर थोप दी जाती है। इसी मानवता के पाठ को अपने जीवन में ढाल कर अमल दा ने जैसलमेर में मुस्लिम समुदाय द्वारा मस्ज़िद बनाने की इच्छा का साथ दिया। बस, अमल दा की शर्त यही थी कि मस्जिद के निर्माण में प्रत्येक समुदाय की सहमति हो, प्रत्येक समुदाय का सहयोग हो और मस्जिद के आहाते में एक ऐसा सभागार बनाया जाए जिसमें सर्वधर्म प्रार्थनाएं की जा सकें। अधिकांश मुस्लिमों को यह मंजूर था किन्तु कुछ अलगाववादियों को यह स्वीकार्य नहीं था। चंद ऐसे लोग अमल दा पर आरोप लगाते हैं कि वे जैसलमेर में साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं। अमल दा के विरुद्ध थाने में रिपोर्ट लिखा दी जाती है जिसके कारण उन्हें कुछ समय के लिए बंदी बना कर कारावास में डाल दिया जाता है। इस घटनाक्रम को बड़े की संतुलित ढंग से उपन्यासकार ने सामने रखा है। उपन्यासकार जगदीश तोमर का दीर्घ जीवन अनुभव इस घटनाक्रम में साफ़ झलकता है और साथ उनकी यह आकांक्षा कि समाज में प्रत्येक धर्म, जाति और समुदाय के लोग परस्पर प्रेम और सौहार्द्य से रहें। जांच-पड़ताल के बाद अमल दा पर लगाया गया आरोप झूठा सिद्ध होता है और वे एक बार फिर अपने कार्यों में जुट जाते हैं।
सम्प्रदायवाद और जातिवाद किसी भी समाज की उन्नति को रोकता है। देखा जाए तो सांप्रदायिकता की भावना मनुष्य के मानवीय पक्ष को दबा कर उसके अंदर की घृणा को जागृत करने का कार्य करता है। यही घृणा मनुष्य-मनुष्य के बीच कटुता पैदा करके किस प्रकार हमारे समकाल को दूषित करता है, इसकी गहरी पड़ताल करता है यह उपन्यास।
अमल दा और सुबोध बाबू दोनों की चारित्रिक विशेषताओं में दो समानताएं हैं- एक तो वे दोनों प्रेम के अशरीरी यानी प्लूटोनिक स्वरूप को अपनाते हैं और दूसरी समानता कि उनमें सन्यास भाव की तीव्रता है। ऋषिकेश में रहते समय अमल दा सन्यासी होने को तत्पर हो उठते हैं किन्तु फिर अपने कार्यों की अपूर्णता को देखते हुए उन्हें अपना यह विचार कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ता है। वहीं सुबोध बाबू जब भिंड जिले में अपने गांव बझाई पहुंचते हैं तो वे अपनी आयु की पूर्णता को महसूस करते हुए संल्लेखना द्वारा यानी धीरे-धीरे अन्न-जल त्याग कर समाधि मरण द्वारा यह संसार छोड़ने का प्रयास करते हैं। जब यह समाचार अमल दा और सुस्मिता को पता चलता है तो वे सुबोध बाबू के पास पहुंचते हैं और उन्हें संल्लेखना का विचार छोड़ देने के लिए मना लेते हैं।
उपन्यास में सुबोध बाबू, अमल दा और सुस्मिता के साथ और भी कई महत्वपूर्ण पात्र हैं जिनकी उपस्थिति कोई न कोई संदेश लिए हुए है। जैसे एक पात्र है प्रभा। वह पढ़ी-लिखी युवती है। वह आज के सामाजिक परिवेश के अनुरूप कापोरेट जगत से जुड़ने के बदले राष्ट्रसेवा के कार्यों से जुड़ना पसंद करती है। कुछ समय के लिए वह एक महाविद्यालय में अध्यापन कार्य भी करती है लेकिन जल्दी ही उसे पता चलता है कि महाविद्यालय का प्रबंधन किस प्रकार पंगु है। एक पूर्व सांसद का बेटा कक्षा में उद्दंउता करता है। प्रभा जब उसकी शिकायत प्रबंधन से करती है तो उसे जता दिया जाता है कि उस छात्र के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया जा सकता है क्योंकि वह पूर्व सांसद का बेटा है। इस घटना से क्षुब्ध हो कर महाविद्यालय की नौकरी छोड़ देती है ओर अमल दा के सामाजिक कार्यों में सक्रिय हो जाती है। प्रभा की मां विद्यावती और समाजसेविका कण्मणि रूपी महिला पात्र भी कथानक पर अपना समुचित प्रभाव छोड़ते हैं।
उपन्यासकार ने एक ऐसे रविवारीय विद्यालय की परिकल्पना अमल दा के हाथों साकार होते वर्णित किया है जिसमें सभी धर्मों और सभी समुदायों के बच्चों का एक साथ सर्वांगीण विकास हो सके। जगदीश तोमर का यह उपन्यास सोचने को विवश करता है कि समाज किस ओर जा रहा है और हमें वस्तुतः किन मूल्यों की आवश्यकता है। आज जब ग्लोबलाईजेशन और बाज़ारवाद ने समाज को भ्रमित कर रखा है, ऐसे कठिन समय में सामाजिक समभाव की आवश्यकता की ओर ध्यान दिलाना इस उपन्यास को सार्थक बनाता है। इस उपन्यास की विशेषता को यदि एक पंक्ति में कहा जाए तो यही सटीक होगा कि यह उपन्यास व्यष्टि को समष्टि में ढालकर सामाज में सकारात्मक परिवर्तन का नया पाठ रचता है और जीवन में सार्थक कर्म को रेखांकित करता है।
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- डॉ. वर्षा सिंह 
24 मार्च 2018
 

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