सूखा फूल मिला हो जैसे किसी पुराने नाविल में
फ़र्क यही होता है जीवनदाता में और क़ातिल में
अर्थ बदल जाते हैं अक़्सर सपनों वाली झिलमिल में
लेकिन दोस्त वही सच्चा है काम जो आये मुश्किल में
छिपी हुई रहती है दुनिया नन्हीं सी इस्माइल में
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भगवान महावीर जयंती के पावन पर्व पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
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#MahavirJayanti
#MahaveerJayanti
#महावीर_जन्म_कल्याणक
#महावीर_जयंती
कह दिया मौसम ने सब कुछ, किन्तु वो समझा नहीं
क्या पता समझा भी हो तो, कुछ कभी कहता नहीं
ज़िंदगी में यूं भी पहले उलझनें कुछ कम न थीं
की जो सुलझाने की कोशिश, कुछ मगर सुलझा नहीं
भीड़ में, एकांत में, गुलज़ार में, वीरान में
कौन जाने क्या हुआ है, मन कहीं लगता नहीं
इस क़दर बदले हुए हैं, बंधनों के मायने
है खुला पिंजरा, परिंदा अब मगर उड़ता नहीं
लाख कोशिश कीजिये, "वर्षा" यकीनन जानिये
लग कभी सकता किसी की, सोच पर पहरा नहीं
- डॉ. वर्षा सिंह
बेबसी में ज़िन्दगानी
बोतलों में बंद पानी
काटना होगा जो बोया
है यही चिंता पुरानी
नीर के स्त्रोतों से कब तक
और होगी छेड़खानी
कल धरा का रूप क्या हो !
दिख रही जो आज धानी
गर नहीं सत्ता रहेगी
कौन राजा, कौन रानी !
क्या किया, सोचो कभी तो
गुम कुंआ, नदिया सुखानी
काटना होगा जो बोया
रीत दुनिया की पुरानी
रह न जाये याद बन कर
बूंद-"वर्षा" की कहानी
- डॉ. वर्षा सिंह
🚩🚩 श्री रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं !!! 🚩🚩
श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम् | नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम् ||🚩
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम् | पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनक सुतावरम् ||🚩
भज दीन बन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम् | रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम् ||🚩
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम् | आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर - दूषणम् ||🚩
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम् | मम हृदय कंज निवास कुरु कामादि खल दल गंजनम् ||🚩
मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरों। करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो।।🚩
एही भांती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली। तुलसी भवानी पूजिपूनी पूनी मुदित मन मंदिर चली।।🚩
जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाए कहीं | मंजुल मंगल मूल बाम अंग फर्कन लगे || 🚩
🚩 श्री रामचन्द्र जी की जय🚩
🚩 सियापति रघुनाथ जी की जय🚩
🚩जानकीवल्लभ करुणानिधान रघुवीर जी की जय 🚩
एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
चल दिये थे वो अकेले, काफ़िला देखा नहीं
देश को देखा था, अपना फ़ायदा देखा नहीं
बांध कर सिर पर कफ़न निकले थे जो बेख़ौफ़ हो
मंज़िलों पर थी नज़र फिर रास्ता देखा नहीं
देश को आज़ाद करने का ज़ुनूं दिल में लिए
हंस के बंदी बन गये थे, कठघरा देखा नहीं
उन शहीदों को नमन है, जो वतन पर मिट गये
ताज कांटों का पहन कर आईना देखा नहीं
राजगुरु, सुखदेव, "वर्षा", भगत सिंह, आज़ाद ने
आंधियों में आशियों का आसरा देखा नहीं
- डॉ. वर्षा सिंह
साहित्य वर्षा - 3
डॉ सुरेश आचार्य के व्यंग्यों में समाज दर्शन
- डॉ. वर्षा सिंह
व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक कला है जो रोचक किन्तु प्रहारक होती है। जैसा कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि -‘व्यंग्य वह है, जहां कहने वाला अधरोष्ठ में हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।’ (कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ.164)
जहां द्विवेदी जी ने व्यंग्य के कटाक्ष को अचूक अस्त्र माना वहीं हरिशंकर परसाईं ने व्यंग्य को जीवन का परिचायक माना। परसाई जी के अनुसार जीवन मात्र अच्छाइयों से भरा हुआ नहीं है, इसमें बुराइयां भी हैं, झूठ भी है और विसंगतियां भी है। परसाईं जी की दृष्टि में-‘ व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है....यह नारा नहीं है।’ (सदाचार का ताबीज, हरिशंकर परसाईं, पृ.3)
डॉ. सुरेश आचार्य हिन्दी साहित्य जगत् के एक प्रतिष्ठित व्यंग्यकार ही नहीं वरन् प्रखर आलोचक भी हैं। व्यंग्य के लिए समाज इतना उर्वर क्यों है? उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर अपने शोधपूर्ण ग्रंथ ‘व्यंग्य का समाज दर्शन’ में विस्तार पूर्वक दिया है। उल्लेखनीय है कि ‘व्यंग्य का समाज दर्शन’ पर ही डॉ आचार्य को डी. लिट् की उपाधि प्रदान की गई। इस ग्रंथ में कुल तेरह अध्यायों में व्यंग्य, हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की प्रवृत्तियों एवं व्यंग्य के समाज चिन्तन के एक-एक बिन्दुओं को बड़ी बारीकी से जांचा-परखा गया है।
हिन्दी में व्यंग्य विधा की मीमांसा करने वाले व्यंग्यकार सुरेश आचार्य के स्वयं के व्यंग्यों में गहन सामाजिक सरोकार दृष्टिगत होता है। उनके व्यंग्यों में समाज अपनी पूरी समग्रता के साथ सामने आता है। उनके समाज में राजनीति भी है, अर्थशास्त्र भी है, मनोविज्ञान है तो इतिहास भी है। सुरेश आचार्य का समाज व्यष्टि नहीं समष्टि को प्रतिबिम्बित करता है। इसीलिए उनके व्यंगों में एक ऐसा लोच है कि जिसमें किसी भी देशकाल का प्रसंग आसानी से समा जाता है और यही लोच गंभीर चिंतन के साथ खिलखिलाकर हंसने की दावत भी देता है। यह डॉ आचार्य के भीतर मौजूद जिंदादिल लेखक से पाठकों को साक्षात्कार कराता है। व्यंग्य में जिंदादिली के संदर्भ में डॉ. आचार्य ने अपने शोधग्रंथ में स्वयं लिखा है कि ‘‘भारतेन्दु का जमाना इस दृष्टि से याद किया जाएगा कि उनका युग ज़िन्दादिल रचनाकारों का युग है।’’ वे आगे लिखते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इसे स्वीकारा है। इसी क्रम में यदि आकलन किया जाए तो एक अद्यतन कड़ी के रूप में डॉ सुरेश आचार्य के व्यंग्य भी इसी श्रृंखला में दिखाई देते हैं।
अपने व्यंग्य संग्रहों ‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’, ‘गठरी में लागे चोर’, ‘इधर भी हैं, उधर भी हैं’ में डॉ आचार्य ने वर्तमान सामाजिक परिवेश की बखूबी चीरफाड़ की है। उनका मानना है कि गंभीर बीमारी के ईलाज के लिए ऑपरेशन करना भी जरूरी होता है। वे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और नैतिक पतन की बीमारियों को ठीक करने के लिए तथा उनकी जड़ तक पहुंचने के लिए अपने व्यंग्य का औजार ले कर एक कुशल चिकित्सक की भांति आगे आते हैं और बीमारी के कारण को ऐसे ढूंढ निकालते हैं कि उसमें बीमारी को ठीक करने के उपाय स्वतः ही दिखाई देते लगते हैं। यही व्यंग्य कला की सबसे बड़ी विशेषता भी है कि व्यंग्य लोकरूचि को जगाने वाला हो, गुदगुदाने वाला हो लेकिन गरिष्ठ, बलिष्ठ और उपदेशात्मक नहीं हो। डॉ. आचार्य के व्यंग्य इन सभी शर्तों पर चारे उतरते हैं। डॉ आचार्य के व्यंग्यों में समाज दर्शन शीर्षकों से ही किसी साईनबोर्ड की भांति चमकने लगता है और उसे पूरा पढ़ने के लिए पढ़ने के आकर्षित करता है। उदाहरण के लिए कुछ व्यंग्यों के शीर्षक देखिए - हम नहीं सुधरेंगे, बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले, शर्म तुमको मगर आती नहीं, कुत्तों की लड़ाई उर्फ़ सत्ता का श्वान संग्राम, लोकतंत्र का उत्त्म स्वास्थ्य : अपनी पतली दाल, शेरों का स्वांग करते कुत्ते, लोकतंत्र के घाट पर भई लुच्चन की भीड़ आदि। डॉ आचार्य स्वयं मानते हैं कि ‘‘आधुनिक व्यंग्यकर्म मात्र मनोरंजक नहीं है। वह उत्तेजित और चिन्तित करने वाला लेखन है। ....व्यंग्य तथ्य और सत्य के प्रमाणिक दस्तावेज की तरह होने से अत्यंत आत्मीय और आश्वस्तिकारी होता है। व्यंग्य विडम्बना और विसंगति के रेशे-रेशे की छानबीन करता है, वह चुटकुलेबाजी नहीं है। प्रत्येक व्यंग्य एक निश्चित विकृति के उत्स को स्पष्ट करते हुए, पाठक को संदेश संप्रेषित करता है। यह जरूरी नहीं कि वह संदेश पाठक को ग्राह्य हो। वह उसे निरस्त भी कर सकता है और उसके अनुकूल आचरण भी कर सकता है। उसका यह आचरण परिवर्तन को रूप और आकार देने की दिशा में ही होगा। व्यंग्य साहित्य समाज के सबसे बड़े हिस्से का स्वर बन सकता है।’’ (व्यंग्य का समाजदर्शन, पृ.458)
जब मनुष्य राजनीति के निर्देशों पर चलने लगे तो स्वाभाविकता का क्षरण होने लगता है और जो आचरण उत्पन्न होता है उससे ‘द घुटना पॉलिटिक्स इन इंडिया’ अथवा ‘भैंस घुस गई संसद में’ जैसे व्यंग्य लेख जन्म लेते हैं। भारतेन्दुयुग से परसाईयुग तक राजनीति और समाज में जो गिरावट इुई उससे व्यंग्य की धार पैनी, और अधिक पैनी होती गई। यह पैनापन पाठकों के मानस को छीलता है, झकझोरता है और सुधार की ओर ठेलता है। वहीं अमृत राय कहते हैं कि ‘‘व्यंग्य पाठक के क्षोभ या क्रोध को जगा कर प्रकरान्तर से उसे अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए सन्नद्ध करता है।’’
सुरेश आचार्य यथार्थ को जब अपनी कलम में पिरोते हैं और फिर जो व्यंग्य काग़ज़ पर उतरता है उसमें दो-टूक सच्चाई आंखों में आंखें डाल कर चुनौती देती हुई प्रतीत होती है। राजनीति समाज से उत्पन्न होती है और समाज पर सीधा प्रभाव डालती है। वर्तमान परिवेश में राजनीति का जो बिगड़ा हुआ स्वरूप है वह भ्रष्टाचार में आपादमस्तक लिप्त दिखाई देता है। राजनीति की इस अवस्था पर कटाक्ष करते हुए सुरेश आचार्य अपने व्यंग्य लेख ‘लोकतंत्र के घट पै भई लुच्चन की भीड़’ में लिखते हैं-‘‘मुझे एक बार किसी तरह मिनिस्टर बनवा दो। अगर तीन माह में तीस लाख रूप्ए चीर कर न फेंक दूं तो मूंछें मुड़ा दूंगा।’’
भ्रष्टाचार से ग्रस्त सिर्फ़ राजनीति ही नहीं बल्कि लगभग प्रत्येक क्षेत्र है। इस संबंध में डॉ आचार्य व्यंग्यबाण इन शब्दों में चलाते हैं कि -‘‘पहले मुझे कई भ्रांतियां थीं। मुझे लगता था कि अस्पतालों में डॉक्टरों का राज है, और स्कूलों में मास्टरों का। उम्र के साथ अब भ्रांतियां दूर हां रही हैं। लगता है सब जगह गुण्डों का राज हो गया है। डॉक्टर पिट गए, वकील और न्यायाधीश पीटे गए। मास्टर बेचारे रोज पिटते हैं।’’
वर्तमान और अतीत के बीच सेतु बनाते हुए विसंगतियों के विस्तार को रेखांकित करने की कला डॉ आचार्य में है। ‘‘किराए का मकान उर्फ़ बसना बालम के मन में’’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखते हैं-‘‘जो एक बार किराएदार बन गया, वही मकान पर कब्ज़ा करने की सोचता है। अंग्रेज भी तो भारत में पहले किराएदार बन कर ही भारत आए थे।’’
डॉ सुरेश आचार्य को जहां भी गलत होता दिखाई देता है, वे कटाक्ष करने से नहीं चूकते हैं। अंधविश्वास के चलते तथाकथित बाबाओं के हाथों जनता के छले जाने पर टिप्पणी करते हुए एक चर्चा के दौरान प्रो. अरूण कुमार मिश्रा उन्होंने सटीक टिप्पणी की थी कि-‘‘भुस भरे हुए मरे बछड़े की खाल चाटकर गाय दूध देती रहती है। उसी तरह संसार अंधविश्वासियों से भरा है। बाबा लोगों को देख कर वे रुपए देने लगते हैं। ईश्वर का कल्पना अदृश्य पुलिसवालों की तरह है। वह सब कुछ देखता रहता है। शायद इसीलिए यार लोग परमात्मा की पुलिस को खुश करते रहते हैं। धर्म, राजनीति, साहित्य, संस्कृति और व्यवसाय सब पर कौओं की छाया है।’’
02 अगस्त 1947 में पचमढ़ी में जन्में डॉ सुरेश आचार्य डॉ हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं कलासंकाय के अधिष्ठाता रहे हैं। विश्वविद्यालय के अपनी बयालिस साल की नौकरी के दौरान उन्होंने जीवन के हर उतार-चढ़ाव को बहुत नज़दीक से देखा। हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं पर उनका समान अधिकार है। सागर से प्रकाशित दैनिक ‘आचारण’ समाचार पत्र में ‘आचार्य उवाच’ स्तम्भ का लेखन किया तथा वर्तमान में ‘साहित्य सरस्वती’ पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। प्रथम व्यंग्य संग्रह ‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’ से जो व्यंग्य की जो धार सामने आई वह समय के साथ और तीखी होती गई। विशेषता यह कि डॉ आचार्य के व्यंग्य पठनीयता के साथ ही साथ श्रवणीयता का गुण भी रखते हैं।
डॉ. सुरेश आचार्य स्वयं भी एक कुशल व्यंग्यकार हैं अतः व्यंग्य के प्रति उनकी दृष्टि जिस समग्रता के साथ मिलती है वह आधुनिक व्यंग्यकारों में बिरले ही दिखाई पड़ती है। डॉ आचार्य के व्यंग्यों में समाज दर्शन की जो पूर्णता है वह व्यंग्य विधा की उपादेयता को अक्षरशः सिद्ध करती है।
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यह नवविहान
यह नवविधान
नवसंवत्सर ले कर आया
नवरूप प्रकृति ने फिर पाया
हम आदि शक्ति का ध्यान करें
नौ दिन मां का गुणगान करें
हो नवल गान
नूतन आह्वान
आशा का स्वर मन को भाया
नवरूप प्रकृति ने फिर पाया
सुख-शांति सदा संचारित हो
परहित प्रति शब्द प्रसारित हो
सब एक प्राण
सब एक जान
भारत की हरी-भरी काया
नवरूप प्रकृति ने फिर पाया
उठ जाति-धर्म से अब ऊपर
मानवता जागे धरती पर
हो सबका मान
हम लें ये ठान
नववर्ष संदेशा यह लाया
नवरूप प्रकृति ने फिर पाया
- डॉ. वर्षा सिंह
प्रिय मित्रों,
स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसमें सागर शहर के वरिष्ठ कवि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के काव्य पर मैंने यह आलेख लिखा है- "प्रीत का पाहुन और कवि सीरोठिया का छायावादी स्वर " । कृपया पढ़िए और मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को जानिए ....
साहित्य वर्षा - 2
‘प्रीत का पाहुन’ और कवि सीरोठिया का छायावादी स्वर
- डॉ. वर्षा सिंह
आदि मानव ने जब पंक्षियों के मधुर कंठों का गायन सुना होगा, नदियों-झरनों के नाद घोष में आत्मा की पुकार अनुभव की होगी, उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में चांद-तारों की रोशनी में, फूलों की हंसी में सौंदर्य भाव बोध अनुभव किया होगा, उसी समय से गीतों ने आकार पाया होगा। अनेक विद्वान मानते हैं कि गीत काव्य की शायद सबसे पुरानी विधा है। महाकवि निराला ने ‘गीतिका’ की भूमिका में कहा है, ‘गीत-सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी निःशब्द-संगीत से स्वर-सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व, स्वर का पूंजीभूत रूप है।’
जीवन के विभिन्न रस-भावों के अनुभव से गीत की उत्पत्ति होती है। यह लयात्मकता शब्द की उड़ान से उत्पन्न होती है। स्वर, पद और ताल से युक्त जो गान होता है वह गीत कहलाता है। गीत, सहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। इसमें एक मुखड़ा तथा कुछ अंतरे होते हैं। प्रत्येक अंतरे के बाद मुखड़े को दोहराया जाता है। गीत में एक ही भाव, एक ही विचार एक ही अवस्था का चित्रण होता है।
डॉ. भगवतशरण उपाध्याय ने गीत को परिभाषित करते हुए कहा है- ‘‘गीत कविता की वह विधा है जिसमें स्वानुभूति प्रेरित भावावेश की आर्द्र और कोमल आत्माभिव्यक्ति होती है।’’
इसी सन्दर्भ में केदार नाथ सिंह कहते हैं - ‘‘गीत कविता का एक अत्यन्त निजी स्वर है ग़ीत सहज, सीधा, अकृत्रिम होता है।’’
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- “गीत वास्तव में काव्य का सबसे तरल रूप है।’’
इस प्रकार गीत की मूल विशेषताएं है गीत में कवि की भावना की पूर्ण व व्यापक अभिव्यंजना समाई रहती है। गीत कवि के भावावेश अवस्था से उत्पन्न होता है। गीत एक पद में एक ही भाव की निबद्ध रचना होता है। संगीतात्मकता भी इसका एक विशेषगुण है।
गीत एक ऐसी विधा है जिससे मनुष्य का जुड़ाव अपने जन्म से ही हो जाता है। मां की लोरी के रूप में गीत के शब्द, छंद, स्वर मनुष्य के हृदय में बस जाते हैं। गीत की सबसे बड़ी शक्ति होती है उसकी ध्वन्यात्मकता। गीत हृदय से उत्पन्न होते हैं। संवेदनाओं, अनुभूतियों व भावनाओं के ज्वार जब उमड़ते हैं तो गीत किसी नदी के जल के समान बह निकलते हैं। उनमें भावनाओं की वे सारी तरंगें होती हैं जो गीत को सुनने और पढ़ने वाले के हृदय को रससिक्त कर देती है। जैसे लोरी के लिए हृदय में ममत्व की आवश्यकता होती है उसी प्रकार गीत रचने के लिए प्रत्येक भावना को आत्मसात् कर लेने की क्षमता की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही आवश्यकता होती है अभिव्यक्ति के उस कौशल की जो कठोर से कठोर तथ्य को कोमलता के साथ प्रस्तुत कर सके। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया में वह कौशल है कि जिससे वे दुनिया के तमाम खुरदुरे अहसास को बड़ी ही कोमलता से अपने गीतों में ढाल देते हैं। यूं भी एक चिकित्सक जब गीत लिखता है तो उसमें संवेदनाओं का एक अलग ही स्वर होता है। एक ऐसा स्वर जिसमें जगत की तमाम कोमल भावनाओं का अनहद नाद समाहित रहता है। व्यक्ति व समाज की भावनाओं, संवेदनाओं व अपेक्षाओं को अपेक्षाकृत अधिक निकट से परखता है, जान पाता है एवं ह्ृदय तल की गहराई से अनुभव कर पाता है। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने अपने जीवन में एक सफल चिकित्सक होने के साथ ही एक सफल गीतकार की भूमिका को भी आत्मसात किया है। यूं तो अब तक उनके चार गीत संग्रह ‘‘साक्षी समय है’’, ‘‘गीतों का मधुबन’’,‘‘सुधियों का आंचल’’ तथा ‘‘रजनीगंधा अपनेपन की’’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘‘प्रीत का पाहुन’’ डॉ. सीरोठिया का पांचवां गीत संग्रह है।
‘प्रीत का पाहुन’ के गीत मूलतः छायावादी हैं। संयोग एवं वियोग इन गीतों का मूल विषय भाव है। इन गीतों में प्रेम, मिलन, विरह, स्मृतियां, एवं सामाजिक सरोकार का सुंदर समन्वय हैं। प्रस्तुत कृति, जिसमें भावपक्ष तो उत्कृष्ट है ही कलापक्ष भी सफल, सुगठित व श्रेष्ठ है। यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि जब गीत विधा नवगीत और मुक्तिका से हो कर अपने मूल स्वरूप को पुनः पाने के लिए जूझ रही है, ‘‘प्रीत का पाहुन’’ जैसी कृति का प्रकाशित होना गीत के संघर्ष के विजय का प्रतीक बन कर उभरता दिखाई देता है। हरिवंश राय ‘बच्चन’, गोपाल दास ‘नीरज’ जैसे गीतकारों ने जिस लयात्मकता और संवाद भाव से गीत लिखे हैं वही भाव डॉ. सिरोठिया के गीतों में दिखाई देता है। डॉ सीरोठिया ने ‘‘आत्म निवेदन’’ में इस बारे में स्वयं लिखा है कि ‘‘गीतों की सफलता और सार्थकता संवाद शैली में होती है।’’ इस संवाद शैली का एक उदाहरण देखिए -
आसमान के चांद-सितारे
मिटा न पाए जो अंधियारे
तुमने मन के अंधियारों में
नेह दीप उजियार दिया है
तुमने कितना प्यार दिया है। (पृ. 35)
अपनों द्वारा प्रदत्त पीड़ा अधिक कष्टदायी होती है, नैराश्य भी उत्पन्न करती है परन्तु डॉ सीरोठिया के विरहगीतों में भी नैराश्य नहीं है अपितु व्यक्तिगत दुख दुनियावी दुख से एकाकार होता चलता है जैसे ये पंक्तियां देखें -
मुस्कुराहट के नए मैं गीत लिख कर क्या करूंगा
बस्तियां जब प्यार की वीरान होती जा रही हैं
इसी गीत के अंतिम बंध की पंक्तियां -’
पिंडलियों का दर्द जब
हर सांस भारी हो रहा है
मंज़िलों के गीत मोहक
किस तरह मैं गुनगुनाऊं
कौन सौंपेगा किसे अब
बोझ दायित्वों का आगे-
पीढ़ियां आपस में जब
अनजान होती जा रही हैं। (पृ. 53-54)
डॉ सीरोठिया के गीतों में प्रेम के प्रति समर्पण की विशेष छटा दिखाई देती है। एक ऐसी छटा जिसमें लौकिक प्रेम से आगे बढ़ कर अलौकिक प्रेम ध्वनित होने लगता हैं। जैसे शायर मौजीराम ‘मौजी’ का मशहूर शेर है-
दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार
जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली
प्रेम जब सप्रयास किया जाए तो वह प्रेम नहीं होता, वास्तविक प्रेम स्वतः घटने वाली घटना होती है जिसमें प्रियजन के प्रति समस्त चेष्टाएं स्वतः होती जाती हैं-
सच कहता हूं अनजाने ही गीत रचे सब
मैंने तो बस केवल नाम तुम्हारा गाया।
सदा सत्य, शिव, सुन्दरता का सम्बल जिसमें
प्यार मुझे वह पावन इक प्रतिमान रहा है,
मेरे मन का रहा समर्पण इस सीमा तक
अपने प्रिय का रूप मुझे भगवान रहा है,
सच कहता हूं अनजाने हो गई प्रार्थना
मैंने तो सिर मन मंदिर के द्वार झुकाया। (पृ. 67)
गोपाल सिंह नेपाली ने कवि और वियोग का जो संबंध अपनी इन पंक्तियों में व्यक्त किया है कि - ‘‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजे होंगे गान
निकलकर आँखों से चुपाचाप, बही होगी कविता अनजान।’’
- यही भाव डॉ. सीरोठिया के विरह गीतों में एक अलग ही गरिमा के साथ प्रकट होता है। ये दो पंक्तियां देखिए -
रही तुम्हारे मन में नफ़रत, मेरे मन में प्यार रहा
यही हमारे रिश्ते का बस, जीवन में आधार रहा। (पृ. 97)
या फिर इन पंक्तियों को देखिए -
कोर नयन की बेमौसम जब भर आती है
आकुल मन को पीड़ा अकसर दुलराती है (पृ. 107)
डॉ. सीरोठिया ने अपने गीतों में नवीन बिम्बों का बड़े सुंदर ढंग से प्रयोग किया है। यदि कोई अपना सगा-संबंधी किसी बात पर रूठ जाए तो मन विकट दुविधा में पड़ जाता है। किसी तरह उस रूठे हुए संबंधी को मना भी लिया जाए और यदि वह मिलने आ भी जाए तो भी वह उलाहना देने से नहीं चूकता हैं। इसी विडम्बना को कवि ने प्रकृति और सामाजिक संबंधों की परस्पर तुलना करते हुए लिखा है कि- ‘
रूठे रिश्तेदारों जैसे
बहुत दिनों में आए बादल
प्राण जले अंगारों जैसे
तन-मन सब अकुलाए बादल। (पृ. 47)
‘‘प्रीत का पाहुन’’ गीत संग्रह भाव-अनुभूतिजन्य गीत-कृति है अतः कलापक्ष को सप्रयास नहीं सजाया गया है अपितु वह कलात्मक गुणों से स्वतः ही शोभायमान है, सशक्त है। भाषा शुद्ध सरल साहित्यिक हिन्दी है। शब्दावली सुगठित सरल सुग्राह्य है। शैली छायावादी होते हुए भी दुरूह नहीं है। आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी बिम्ब प्रधान प्रयोग भी है। जल की तरह निर्मल एवं पारदर्शी भावनाओं को उकेरतीं ये गीत-रचनाएं कवि के रागात्मक आयाम से न केवल परिचय कराती हैं, बल्कि उनकी कहन, उनके शब्द रागात्मकता का सुंदर पाठ भी पढ़ाते हैं। ऐसा पाठ जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और ऐसी दुनिया के निर्माण में सहायक बनता है जहां मनुष्य के ही नहीं वरन् जड़-चेतन के भी गीत गाये जाते हैं।
कहा जा सकता है कि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के गीतों में जीवन को ऊर्जा प्रदान करने वाली स्वतःस्फूर्त चेतना है। लोकधर्मी चेतना से ध्वनित डॉ सीरोठिया के इन गीतों में घनीभूत आत्मसंवेदना का सुंदर समन्वय है। हिंदी गीतों के संवर्द्धन और पुनर्स्थापन के प्रति डॉ सीरोठिया का यह गीत संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
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(साप्ताहिक सागर झील दि. 27.02.2018)
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