साहित्य वर्षा - 3
डॉ सुरेश आचार्य के व्यंग्यों में समाज दर्शन
- डॉ. वर्षा सिंह
व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक कला है जो रोचक किन्तु प्रहारक होती है। जैसा कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि -‘व्यंग्य वह है, जहां कहने वाला अधरोष्ठ में हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।’ (कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ.164)
जहां द्विवेदी जी ने व्यंग्य के कटाक्ष को अचूक अस्त्र माना वहीं हरिशंकर परसाईं ने व्यंग्य को जीवन का परिचायक माना। परसाई जी के अनुसार जीवन मात्र अच्छाइयों से भरा हुआ नहीं है, इसमें बुराइयां भी हैं, झूठ भी है और विसंगतियां भी है। परसाईं जी की दृष्टि में-‘ व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है....यह नारा नहीं है।’ (सदाचार का ताबीज, हरिशंकर परसाईं, पृ.3)
डॉ. सुरेश आचार्य हिन्दी साहित्य जगत् के एक प्रतिष्ठित व्यंग्यकार ही नहीं वरन् प्रखर आलोचक भी हैं। व्यंग्य के लिए समाज इतना उर्वर क्यों है? उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर अपने शोधपूर्ण ग्रंथ ‘व्यंग्य का समाज दर्शन’ में विस्तार पूर्वक दिया है। उल्लेखनीय है कि ‘व्यंग्य का समाज दर्शन’ पर ही डॉ आचार्य को डी. लिट् की उपाधि प्रदान की गई। इस ग्रंथ में कुल तेरह अध्यायों में व्यंग्य, हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की प्रवृत्तियों एवं व्यंग्य के समाज चिन्तन के एक-एक बिन्दुओं को बड़ी बारीकी से जांचा-परखा गया है।
हिन्दी में व्यंग्य विधा की मीमांसा करने वाले व्यंग्यकार सुरेश आचार्य के स्वयं के व्यंग्यों में गहन सामाजिक सरोकार दृष्टिगत होता है। उनके व्यंग्यों में समाज अपनी पूरी समग्रता के साथ सामने आता है। उनके समाज में राजनीति भी है, अर्थशास्त्र भी है, मनोविज्ञान है तो इतिहास भी है। सुरेश आचार्य का समाज व्यष्टि नहीं समष्टि को प्रतिबिम्बित करता है। इसीलिए उनके व्यंगों में एक ऐसा लोच है कि जिसमें किसी भी देशकाल का प्रसंग आसानी से समा जाता है और यही लोच गंभीर चिंतन के साथ खिलखिलाकर हंसने की दावत भी देता है। यह डॉ आचार्य के भीतर मौजूद जिंदादिल लेखक से पाठकों को साक्षात्कार कराता है। व्यंग्य में जिंदादिली के संदर्भ में डॉ. आचार्य ने अपने शोधग्रंथ में स्वयं लिखा है कि ‘‘भारतेन्दु का जमाना इस दृष्टि से याद किया जाएगा कि उनका युग ज़िन्दादिल रचनाकारों का युग है।’’ वे आगे लिखते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इसे स्वीकारा है। इसी क्रम में यदि आकलन किया जाए तो एक अद्यतन कड़ी के रूप में डॉ सुरेश आचार्य के व्यंग्य भी इसी श्रृंखला में दिखाई देते हैं।
अपने व्यंग्य संग्रहों ‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’, ‘गठरी में लागे चोर’, ‘इधर भी हैं, उधर भी हैं’ में डॉ आचार्य ने वर्तमान सामाजिक परिवेश की बखूबी चीरफाड़ की है। उनका मानना है कि गंभीर बीमारी के ईलाज के लिए ऑपरेशन करना भी जरूरी होता है। वे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और नैतिक पतन की बीमारियों को ठीक करने के लिए तथा उनकी जड़ तक पहुंचने के लिए अपने व्यंग्य का औजार ले कर एक कुशल चिकित्सक की भांति आगे आते हैं और बीमारी के कारण को ऐसे ढूंढ निकालते हैं कि उसमें बीमारी को ठीक करने के उपाय स्वतः ही दिखाई देते लगते हैं। यही व्यंग्य कला की सबसे बड़ी विशेषता भी है कि व्यंग्य लोकरूचि को जगाने वाला हो, गुदगुदाने वाला हो लेकिन गरिष्ठ, बलिष्ठ और उपदेशात्मक नहीं हो। डॉ. आचार्य के व्यंग्य इन सभी शर्तों पर चारे उतरते हैं। डॉ आचार्य के व्यंग्यों में समाज दर्शन शीर्षकों से ही किसी साईनबोर्ड की भांति चमकने लगता है और उसे पूरा पढ़ने के लिए पढ़ने के आकर्षित करता है। उदाहरण के लिए कुछ व्यंग्यों के शीर्षक देखिए - हम नहीं सुधरेंगे, बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले, शर्म तुमको मगर आती नहीं, कुत्तों की लड़ाई उर्फ़ सत्ता का श्वान संग्राम, लोकतंत्र का उत्त्म स्वास्थ्य : अपनी पतली दाल, शेरों का स्वांग करते कुत्ते, लोकतंत्र के घाट पर भई लुच्चन की भीड़ आदि। डॉ आचार्य स्वयं मानते हैं कि ‘‘आधुनिक व्यंग्यकर्म मात्र मनोरंजक नहीं है। वह उत्तेजित और चिन्तित करने वाला लेखन है। ....व्यंग्य तथ्य और सत्य के प्रमाणिक दस्तावेज की तरह होने से अत्यंत आत्मीय और आश्वस्तिकारी होता है। व्यंग्य विडम्बना और विसंगति के रेशे-रेशे की छानबीन करता है, वह चुटकुलेबाजी नहीं है। प्रत्येक व्यंग्य एक निश्चित विकृति के उत्स को स्पष्ट करते हुए, पाठक को संदेश संप्रेषित करता है। यह जरूरी नहीं कि वह संदेश पाठक को ग्राह्य हो। वह उसे निरस्त भी कर सकता है और उसके अनुकूल आचरण भी कर सकता है। उसका यह आचरण परिवर्तन को रूप और आकार देने की दिशा में ही होगा। व्यंग्य साहित्य समाज के सबसे बड़े हिस्से का स्वर बन सकता है।’’ (व्यंग्य का समाजदर्शन, पृ.458)
जब मनुष्य राजनीति के निर्देशों पर चलने लगे तो स्वाभाविकता का क्षरण होने लगता है और जो आचरण उत्पन्न होता है उससे ‘द घुटना पॉलिटिक्स इन इंडिया’ अथवा ‘भैंस घुस गई संसद में’ जैसे व्यंग्य लेख जन्म लेते हैं। भारतेन्दुयुग से परसाईयुग तक राजनीति और समाज में जो गिरावट इुई उससे व्यंग्य की धार पैनी, और अधिक पैनी होती गई। यह पैनापन पाठकों के मानस को छीलता है, झकझोरता है और सुधार की ओर ठेलता है। वहीं अमृत राय कहते हैं कि ‘‘व्यंग्य पाठक के क्षोभ या क्रोध को जगा कर प्रकरान्तर से उसे अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए सन्नद्ध करता है।’’
सुरेश आचार्य यथार्थ को जब अपनी कलम में पिरोते हैं और फिर जो व्यंग्य काग़ज़ पर उतरता है उसमें दो-टूक सच्चाई आंखों में आंखें डाल कर चुनौती देती हुई प्रतीत होती है। राजनीति समाज से उत्पन्न होती है और समाज पर सीधा प्रभाव डालती है। वर्तमान परिवेश में राजनीति का जो बिगड़ा हुआ स्वरूप है वह भ्रष्टाचार में आपादमस्तक लिप्त दिखाई देता है। राजनीति की इस अवस्था पर कटाक्ष करते हुए सुरेश आचार्य अपने व्यंग्य लेख ‘लोकतंत्र के घट पै भई लुच्चन की भीड़’ में लिखते हैं-‘‘मुझे एक बार किसी तरह मिनिस्टर बनवा दो। अगर तीन माह में तीस लाख रूप्ए चीर कर न फेंक दूं तो मूंछें मुड़ा दूंगा।’’
भ्रष्टाचार से ग्रस्त सिर्फ़ राजनीति ही नहीं बल्कि लगभग प्रत्येक क्षेत्र है। इस संबंध में डॉ आचार्य व्यंग्यबाण इन शब्दों में चलाते हैं कि -‘‘पहले मुझे कई भ्रांतियां थीं। मुझे लगता था कि अस्पतालों में डॉक्टरों का राज है, और स्कूलों में मास्टरों का। उम्र के साथ अब भ्रांतियां दूर हां रही हैं। लगता है सब जगह गुण्डों का राज हो गया है। डॉक्टर पिट गए, वकील और न्यायाधीश पीटे गए। मास्टर बेचारे रोज पिटते हैं।’’
वर्तमान और अतीत के बीच सेतु बनाते हुए विसंगतियों के विस्तार को रेखांकित करने की कला डॉ आचार्य में है। ‘‘किराए का मकान उर्फ़ बसना बालम के मन में’’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखते हैं-‘‘जो एक बार किराएदार बन गया, वही मकान पर कब्ज़ा करने की सोचता है। अंग्रेज भी तो भारत में पहले किराएदार बन कर ही भारत आए थे।’’
डॉ सुरेश आचार्य को जहां भी गलत होता दिखाई देता है, वे कटाक्ष करने से नहीं चूकते हैं। अंधविश्वास के चलते तथाकथित बाबाओं के हाथों जनता के छले जाने पर टिप्पणी करते हुए एक चर्चा के दौरान प्रो. अरूण कुमार मिश्रा उन्होंने सटीक टिप्पणी की थी कि-‘‘भुस भरे हुए मरे बछड़े की खाल चाटकर गाय दूध देती रहती है। उसी तरह संसार अंधविश्वासियों से भरा है। बाबा लोगों को देख कर वे रुपए देने लगते हैं। ईश्वर का कल्पना अदृश्य पुलिसवालों की तरह है। वह सब कुछ देखता रहता है। शायद इसीलिए यार लोग परमात्मा की पुलिस को खुश करते रहते हैं। धर्म, राजनीति, साहित्य, संस्कृति और व्यवसाय सब पर कौओं की छाया है।’’
02 अगस्त 1947 में पचमढ़ी में जन्में डॉ सुरेश आचार्य डॉ हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं कलासंकाय के अधिष्ठाता रहे हैं। विश्वविद्यालय के अपनी बयालिस साल की नौकरी के दौरान उन्होंने जीवन के हर उतार-चढ़ाव को बहुत नज़दीक से देखा। हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं पर उनका समान अधिकार है। सागर से प्रकाशित दैनिक ‘आचारण’ समाचार पत्र में ‘आचार्य उवाच’ स्तम्भ का लेखन किया तथा वर्तमान में ‘साहित्य सरस्वती’ पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। प्रथम व्यंग्य संग्रह ‘पूंछ हिलाने की संस्कृति’ से जो व्यंग्य की जो धार सामने आई वह समय के साथ और तीखी होती गई। विशेषता यह कि डॉ आचार्य के व्यंग्य पठनीयता के साथ ही साथ श्रवणीयता का गुण भी रखते हैं।
डॉ. सुरेश आचार्य स्वयं भी एक कुशल व्यंग्यकार हैं अतः व्यंग्य के प्रति उनकी दृष्टि जिस समग्रता के साथ मिलती है वह आधुनिक व्यंग्यकारों में बिरले ही दिखाई पड़ती है। डॉ आचार्य के व्यंग्यों में समाज दर्शन की जो पूर्णता है वह व्यंग्य विधा की उपादेयता को अक्षरशः सिद्ध करती है।
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