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रविवार, सितंबर 12, 2010
गुरुवार, सितंबर 09, 2010
बुधवार, सितंबर 08, 2010
एक आहट सी आ रही है अभी
- वर्षा सिंह
एक आहट सी आ रही है अभी।
ज़िन्दगी गुनगुना रही है अभी।
होगी ‘वर्षा’ सुखन की, शेरों की
शायरी मुस्कुरा रही है अभी ।
एक आहट सी आ रही है अभी।
ज़िन्दगी गुनगुना रही है अभी।
होगी ‘वर्षा’ सुखन की, शेरों की
शायरी मुस्कुरा रही है अभी ।
शुक्रवार, सितंबर 03, 2010
बूढ़ी आंखें
-वर्षा सिंह
(‘नई धारा’ के वृद्ध अंक में प्रकाशित मेरी ग़ज़लें साभार)
एक
जाने किसकी राह देखतीं , आस भरी बूढ़ी आंखें ।
इंतजार की पीड़ा सहतीं , रात जगी बूढ़ी आंखें ।
दुनिया का दस्तूर निराला ,स्वारथ के सब मीत यहां
फर्क नहीं कर पातीं कुछ भी, नेह पगी बूढ़ी आंखें ।
आते हैं दिन याद पुराने , अच्छे -बुरे, खरे -खोटे ,
यादों में डूबी - उतरातीं ,बंद- खुली बूढ़ी आंखें ।
मंचित होतीं युवा पटल पर , विस्मयकारी धटनाएं ,
दर्शक मूक बनी रहने को , विवश झुकी बूढ़ी आंखें ।
अनुभव के गहरे सागर में , आशीषों के मोती हैं
जितना चाहो ले लो ‘वर्षा’ , बांट रही बूढ़ी आंखें ।
दो
मुझको घर - बार बुलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
दे के थपकी -सी सुलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
जब कभी पांव में चुभ जाते हैं कांटे मेरे
बोझ पीड़ा का उठाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
वही चौपाई, वही कलमा, वही हैं वाणी
अक्स जन्नत का दिखाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
कौन कहता है कि उनमें है नयेपन की कमी
फूल खुशियों के खिलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
ज़िन्दगी का ये सफ़र यूं ही नहीं कटता है
थाम कर हाथ चलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
जब भटकता है युवा मन किसी गलियारे में
राह अनुभव की दिखाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
चाह कर भी मैं कभी दूर नहीं हो पाती
बूंद ‘वर्षा’ की सजाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
तीन
बूढ़ी आंखें जोह रही हैं इक टुकड़ा संदेश ।
मां-बाबा को छोड़ के बिटवा ,बसने गया विदेश।
घर का आंगन ,तुलसी बिरवा और काठ का घोड़ा
पोता-पोती बहू बिना , ये सूना लगे स्वदेश।
जी.पी.एफ. से एफ.डी. तक किया निछावर जिस पे,
निपट परायों जैसा अब तो वही आ रहा पेश।
‘तुम बूढ़े हो क्या समझोगे?’ यही कहा था उसने
जिसकी चिन्ता करते -करते ,श्वेत हो गए केश।
‘वर्षा’ हो या तपी दुपहरी, दरवाज़े वो बैठा
बिखरी सांसों से जीवित है, जो बूढ़ा दरवेश।
चार
रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आंखों का ।
शायद ही पूरा हो पाए सपना बूढ़ी आंखों का ।
अपना लहू पराया हो कर जा बैठा परदेस कहीं
व्यर्थ हो गया रातों-रातों जगना बूढ़ी आंखों का ।
रहा नहीं अब समय कि गहरे पानी की ले थाह कोई
किसे फिक्र है कैसा रहना-सहना बूढ़ी आंखों का ।
जीने को कुछ भ्रम काफी हैं, सच पर पर्दा रहने दो
यही सुना है मन ही मन में कहना बूढ़ी आंखों का ।
चाहे हवा चले जिस गति से फर्क भला क्या पड़ना है!
तय तो यूं भी है अब ‘वर्षा’ बुझना बूढ़ी आंखों का ।
पांच
वक्त का दरपन बूढ़ी आंखें ।
उम्र की उतरन बूढ़ी आंखें ।
कौन समझ पाएगा पीड़ा
ओढ़े सिहरन बूढ़ी आंखें ।
जीवन के सोपान यही हैं
बचपन, यौवन, बूढ़ी आंखें ।
चप्पा-चप्पा बिखरी यांदें
बांधे बंधन बूढ़ी आंखें ।
टूटा चश्मा घिसी कमानी
चाह की खुरचन बूढ़ी आंखें ।
एक इबारत सुख की खातिर
बांचे कतरन बूढ़ी आंखें ।
सपनों में देखा करती हैं
‘वर्षा’- सावन बूढ़ी आंखें ।
(‘नई धारा’ के वृद्ध अंक में प्रकाशित मेरी ग़ज़लें साभार)
एक
जाने किसकी राह देखतीं , आस भरी बूढ़ी आंखें ।
इंतजार की पीड़ा सहतीं , रात जगी बूढ़ी आंखें ।
दुनिया का दस्तूर निराला ,स्वारथ के सब मीत यहां
फर्क नहीं कर पातीं कुछ भी, नेह पगी बूढ़ी आंखें ।
आते हैं दिन याद पुराने , अच्छे -बुरे, खरे -खोटे ,
यादों में डूबी - उतरातीं ,बंद- खुली बूढ़ी आंखें ।
मंचित होतीं युवा पटल पर , विस्मयकारी धटनाएं ,
दर्शक मूक बनी रहने को , विवश झुकी बूढ़ी आंखें ।
अनुभव के गहरे सागर में , आशीषों के मोती हैं
जितना चाहो ले लो ‘वर्षा’ , बांट रही बूढ़ी आंखें ।
दो
मुझको घर - बार बुलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
दे के थपकी -सी सुलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
जब कभी पांव में चुभ जाते हैं कांटे मेरे
बोझ पीड़ा का उठाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
वही चौपाई, वही कलमा, वही हैं वाणी
अक्स जन्नत का दिखाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
कौन कहता है कि उनमें है नयेपन की कमी
फूल खुशियों के खिलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
ज़िन्दगी का ये सफ़र यूं ही नहीं कटता है
थाम कर हाथ चलाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
जब भटकता है युवा मन किसी गलियारे में
राह अनुभव की दिखाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
चाह कर भी मैं कभी दूर नहीं हो पाती
बूंद ‘वर्षा’ की सजाती हैं वो बूढ़ी आंखें ।
तीन
बूढ़ी आंखें जोह रही हैं इक टुकड़ा संदेश ।
मां-बाबा को छोड़ के बिटवा ,बसने गया विदेश।
घर का आंगन ,तुलसी बिरवा और काठ का घोड़ा
पोता-पोती बहू बिना , ये सूना लगे स्वदेश।
जी.पी.एफ. से एफ.डी. तक किया निछावर जिस पे,
निपट परायों जैसा अब तो वही आ रहा पेश।
‘तुम बूढ़े हो क्या समझोगे?’ यही कहा था उसने
जिसकी चिन्ता करते -करते ,श्वेत हो गए केश।
‘वर्षा’ हो या तपी दुपहरी, दरवाज़े वो बैठा
बिखरी सांसों से जीवित है, जो बूढ़ा दरवेश।
चार
रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आंखों का ।
शायद ही पूरा हो पाए सपना बूढ़ी आंखों का ।
अपना लहू पराया हो कर जा बैठा परदेस कहीं
व्यर्थ हो गया रातों-रातों जगना बूढ़ी आंखों का ।
रहा नहीं अब समय कि गहरे पानी की ले थाह कोई
किसे फिक्र है कैसा रहना-सहना बूढ़ी आंखों का ।
जीने को कुछ भ्रम काफी हैं, सच पर पर्दा रहने दो
यही सुना है मन ही मन में कहना बूढ़ी आंखों का ।
चाहे हवा चले जिस गति से फर्क भला क्या पड़ना है!
तय तो यूं भी है अब ‘वर्षा’ बुझना बूढ़ी आंखों का ।
पांच
वक्त का दरपन बूढ़ी आंखें ।
उम्र की उतरन बूढ़ी आंखें ।
कौन समझ पाएगा पीड़ा
ओढ़े सिहरन बूढ़ी आंखें ।
जीवन के सोपान यही हैं
बचपन, यौवन, बूढ़ी आंखें ।
चप्पा-चप्पा बिखरी यांदें
बांधे बंधन बूढ़ी आंखें ।
टूटा चश्मा घिसी कमानी
चाह की खुरचन बूढ़ी आंखें ।
एक इबारत सुख की खातिर
बांचे कतरन बूढ़ी आंखें ।
सपनों में देखा करती हैं
‘वर्षा’- सावन बूढ़ी आंखें ।
गुरुवार, सितंबर 02, 2010
शायरी मेरी सहेली की तरह
- वर्षा सिंह
शायरी मेरी सहेली की तरह।
मेंहदी वाली हथेली की तरह।
हर्फ की परतों में खुलती जा रही
ज़िन्दगी जो थी पहेली की तरह।
मेरे सिरहाने में तक़िया ख़्वाब का
नींद आती है नवेली की तरह।
आग की सतरें पिघल कर सांस में
फिर महकती है चमेली की तरह।
ये मेरा दीवान ‘वर्षा’ - धूप का
रोशनी की इक हवेली की तरह।
शायरी मेरी सहेली की तरह।
मेंहदी वाली हथेली की तरह।
हर्फ की परतों में खुलती जा रही
ज़िन्दगी जो थी पहेली की तरह।
मेरे सिरहाने में तक़िया ख़्वाब का
नींद आती है नवेली की तरह।
आग की सतरें पिघल कर सांस में
फिर महकती है चमेली की तरह।
ये मेरा दीवान ‘वर्षा’ - धूप का
रोशनी की इक हवेली की तरह।
बुधवार, सितंबर 01, 2010
सपनों का हरा जंगल
- वर्षा सिंह
आंखों में झलकता था सपनों का हरा जंगल।
खामोश वो मौसम था देता था सदा जंगल।
मैं बन के परिंदा जब शाखों पे चहकती थी
छूता था मेरी पलकें ख़्वाबों से भरा जंगल।
ख़ुदगर्ज़ इरादों से बच भी न कोई पाया
जब आग बनी दुनिया धू-धू वो जला जंगल।
कहते हां कि खुशबू भी जंगल में ही रहती थी
खुशबू की कथाओं में मिलता है घना जंगल।
रंगों के जहां झरने, चाहत के खजाने हों
‘वर्षा’ को उगाना है, फिर से वो नया जंगल।
आंखों में झलकता था सपनों का हरा जंगल।
खामोश वो मौसम था देता था सदा जंगल।
मैं बन के परिंदा जब शाखों पे चहकती थी
छूता था मेरी पलकें ख़्वाबों से भरा जंगल।
ख़ुदगर्ज़ इरादों से बच भी न कोई पाया
जब आग बनी दुनिया धू-धू वो जला जंगल।
कहते हां कि खुशबू भी जंगल में ही रहती थी
खुशबू की कथाओं में मिलता है घना जंगल।
रंगों के जहां झरने, चाहत के खजाने हों
‘वर्षा’ को उगाना है, फिर से वो नया जंगल।