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बुधवार, सितंबर 01, 2010

सपनों का हरा जंगल

- वर्षा सिंह

आंखों में झलकता था सपनों का हरा जंगल।
खामोश वो मौसम था देता था सदा जंगल।

मैं बन के परिंदा  जब शाखों पे चहकती थी
छूता था मेरी पलकें ख़्वाबों से भरा जंगल।

ख़ुदगर्ज़  इरादों से     बच भी न  कोई पाया
जब आग बनी दुनिया धू-धू वो जला जंगल।

कहते हां कि खुशबू भी  जंगल में ही रहती थी
 खुशबू की कथाओं में मिलता है घना जंगल।

रंगों के  जहां झरने,   चाहत के   खजाने हों
‘वर्षा’ को उगाना है, फिर से वो नया जंगल।

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