Dr. Varsha Singh |
आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन यानी आम बोलचाल की भाषा में असाढ़, सावन, भादों और क्वांर ... वर्षा ऋतु के ये चार माह सुखी मनुष्यों को और अधिक सुख और दुखी मनुष्यों को और अधिक दुख पहुंचाने वाले सिद्ध होते हैं। वर्षा ऋतु का प्रभाव ही ऐसा रहता है कि सामान्य व्यक्ति भी सुख या दुख में डूब कर गुनगुनाने लगता है, फिर कवियों की तो बात ही क्या! ... आज हिन्दी साहित्य के कैनवास पर वर्षा के रंग देखें कुछ चुने हुए गीतों के संग ...
फ़िल्म 'कालिदास' का मन्ना डे के द्वारा गाया यह गीत अपने सुना ही होगा-
ओ आषाढ़ के पहले बादल, ओ नभ के काजल!
विरही जनों के करुण अश्रुजल, रुक जा रे एक पल।
दूर दूर मेरा देश जहाँ बिखराए केश,
विरहन का बनाये वेश
प्रिया मेरी विदेश,कैसे काटे कलेश,
उसे देना मेरा ये सन्देश रे
ओ अषाढ़ के पहले बादल !!
जा रे जा ओ मेघ ओ मेरे दुःख के साथी,
चल एसे ज्यों गगन मार्ग में चलता हाथी।
मंद पवन मुंह खोले चातक बोल रहा है
बाँध कतार बगुलियों का दल डोल रहा है।
राजहंस भी उड़ते है पंखों को ताने,
मित्र विदा के समय हो रहे शगुन सुहाने।
ओ आषाढ़ के पहले बादल !!
जाते जाते तुम्हें मार्ग में मिलेगा मालव देश,
जहाँ मोहिनी मलिनियों का मधुर मनोहर वेश!
आगे तुमको मित्र मिलेगी कुरुक्षेत्र की भूमि विशाल ,
महाभारत के महा युद्ध की जहाँ जली थी एक दिन ज्वाल,
कोटि कोटि जहाँ बरस पड़े थे रिपु दल पर अर्जुन के बाण,
कमल दलों पर बरसें ज्यों तेरी बरखा के अगणित बाण।
राग मेघमल्हार में निबद्ध विरह श्रृंगार का यह गीत वस्तुतः महाकवि कालिदास के 'मेघदूत’ महाकाव्य पर आधारित है। कालिदासकृत 'ऋतुसंहार' और 'मेघदूत' संस्कृत साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। 'ऋतुसंहार' में तो षडऋतु वर्णन के अंतर्गत वर्षा वर्णन है ही, साथ ही कालिदास ने मेघदूत में विरही यक्ष द्वारा बादलों को अपना दूत बना कर अपनी प्रियतमा को संदेश भेजे जाने का अद्भुत वर्णन किया है। वे कहते हैं-
तस्मिन्नद्रो कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्त प्रकोष्ठ:
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानु
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।
अर्थात् स्त्री के विछोह में विरही यक्ष ने उस पर्वत पर कई मास बिता दिए। उसकी कलाई
सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी
दिखने लगी। आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा तो ऐसा जान पड़ा जैसे क्रीड़ा में मगन कोई हाथी हो।
हिन्दी साहित्य में वर्षा ऋतु के काव्य सौंदर्य का भंडार है। 'रामचरित मानस' में तुलसीदासजी ने अनेक स्थानों पर अपनी चौपाइयों में वर्षा ऋतु का वर्णन किया है- घन घमंड नभ गरजत घोरा... दामिनि दमक रह न घन माहीं... बरसहिं जलद भूमि निअराएं... नव पल्लव भए बिटप अनेका... कृषी निरावहिं चतुर किसाना... आदि।
प्रसिद्ध काव्यकृति 'पद्मावत' में कवि
मलिक मोहम्मद जायसी ने षट-ऋतु वर्णन में वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए लिखा है - रितु पावस बरसे पिउ पावा, सावन-भादौ अधिक सोहावा।
पद्मावती चाहत ऋतु आई, गगन सोहावन भूमि सोहाई।
सागर, मध्यप्रदेश में जन्में महाकवि पद्माकर का वर्षा ऋतु वर्णन हृदयग्राही है। देखें ये छंद -
चपला चमाकैं चहु ओरन ते चाह भरी
चरजि गई ती फेरि चरजन लागी री ।
कहैं पद्माकर लवंगन की लोनी लता
लरजि गयी ती फेरि लरजन लागी री ।
कैसे धरौ धीर वीर त्रिबिध समीरैं तन
तरजि गयी ती फेरि तरजन लागी री ।
घुमड़ि घमंड घटा घन की घनेरी अबै
गरजि गई ती फेरि गरजन लागी री ।
अपने षडऋतु वर्णन के लिए पहचाने जाने वाले ख्यातिलब्ध रीतिकालीन कवि सेनापति ने वर्षा ऋतु का बहुत सुंदर वर्णन किया है --
‘सेनापति’ उनए गए जल्द सावन कै ,
चारिह दिसनि घुमरत भरे तोई कै।
सोभा सरसाने ,न बखाने जात कहूँ भांति ,
आने हैं पहार मानो काजर कै ढोइ कै।
धन सों गगन छ्यों,तिमिर सघन भयो ,
देखि न परत मानो रवि गयो खोई कै।
चारि मासि भरि स्याम निशा को भरम मानि ,
मेरी जान, याही ते रहत हरि सोई कै।
हिन्दी, अरबी, फारसी और देशज शब्दों का ख़ूबसूरती से एकसाथ करने वाले सूफ़ी कवि अमीर खुसरो का यह गीत लोक का हिस्सा बन कर आज भी जनमानस में समाया हुआ है। विवाहिता बेटी श्रावण में मायके जाने को लालायित हो कर अपनी मां को संदेश भेजती है। देखें यह गीत -
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया
अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा मामू तो बांका री - कि सावन आया
धर्म से मुस्लिम हो कर भी हिन्दू त्यौहारों, रीति-रिवाज़ों से प्रभावित जनकवि नज़ीर अकबराबादी बरसात में भी बहारों को देखते हैं, वे कहते हैं -
हैं इस हवा में क्या-क्या बरसात की बहारें।
सब्जों की लहलहाहट ,बाग़ात की बहारें।
बूँदों की झमझमाहट, क़तरात की बहारें।
हर बात के तमाशे, हर घात की बहारे।
क्या - क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
कवि सुमित्रानंदन पंत का यह वर्षा गीत आनंदित करने वाला है -
आज दिशा हैं घोर अँधेरी
नभ में गरज रही रण भेरी,
चमक रही चपला क्षण-क्षण पर
झनक रही झिल्ली झन-झन कर!
नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।
सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने जहां एक ओर 'मैं नीर भरी दुख की बदली' लिख कर स्वयं को प्रकृति से एकाकार कर लिया है वहीं दूसरी ओर प्रिय की प्रतीक्षारत नायिका के मुख से वे कहलवाती हैं -
लाए कौन संदेश नए घन!
अम्बर गर्वित, हो आया नत,
चिर निस्पंद हृदय में उसके
उमड़े री पुलकों के सावन!
लाए कौन संदेश नए घन!
महाकवि जयशंकर प्रसाद ने 'झरना' में पावस -प्रभात में अत्यंत सुंदर वर्षा वर्णन किया है -
नव तमाल श्यामल नीरद माला भली
श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी,
अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में
भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते।
अर्ध रात्री में खिली हुई थी मालती,
उस पर से जो विछल पड़ा था, वह चपल
मलयानिल भी अस्त व्यस्त हैं घूमता
उसे स्थान ही कहीं ठहरने को नहीं।
मुक्त व्योम में उड़ते-उड़ते डाल से,
कातर अलस पपीहा की वह ध्वनि कभी
निकल-निकल कर भूल या कि अनजान में,
लगती हैं खोजनें किसी को प्रेम से।
अपने समय की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली कवयित्री डॉ. विद्यावती 'मालविका' ने वर्षा ऋतु पर अनेक गीत लिखे हैं। उनके दो गीतों की बानगी यहां प्रस्तुत है -
बोल सहेली बोल
पंछी बनकर बोल
सावन के काले घने में
हरे भरे जीवन वन में
कर दे मधुर किलोल
सहेली पंछी बनकर बोल
प्रेम भरा संगीत सुना दे
दुनिया का दुख-दर्द मिटा दे
प्रीत गीत अनमोल
सहेली पंछी बनकर बोल
'मालविका' जी का यह दूसरा गीत देखें -
सुघर सलोनी श्याम घटाओ
बरसो जल बरसाओ
ज्योति-तरंगिणी, आशा-रंगिणी
हरियाली बन आओ
प्यासे हैं वसुधा के कण-कण
तुम्हीं जगाओ सोया जीवन
ताप-विभंजनि, जन-मन-रंजनि
जग की पीर भुलाओ
सुघर सलोनी श्याम घटाओ
बरसो जल बरसाओ
कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध" की काव्यपंक्तियां पठनीय हैं -
सखी ! बादल थे नभ में छाये
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करूणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।
वे विविध रूप धारण कर
नभ–तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।
वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदभी–वादन
चपला को रहे नचाते।
वर्षों 'धर्मयुग' पत्रिका के यशस्वी संपादक रहे कवि धर्मवीर भारती दिन ढले की बारिश शीर्षक कविता में कहते हैं...
बारिश दिन ढले की
हरियाली-भीगी, बेबस, गुमसुम
तुम हो
और,
और वही बलखाई मुद्रा
कोमल शंखवाले गले की
वही झुकी-मुँदी पलक सीपी में खाता हुआ पछाड़
बेज़बान समन्दर
अन्दर
एक टूटा जलयान
थकी लहरों से पूछता है पता
दूर- पीछे छूटे प्रवालद्वीप का
कवि शिरोमणि डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक" वर्षा ऋतु का स्वागत करते हुए कहते हैं -
झुक गईं शाखाएँ स्वागत में तुम्हारे।
आ गई वर्षा हमारे आज द्वारे।।
बुझ गई प्यासी धरा की है पिपासा,
छँट गई व्याकुल हृदय से अब निराशा,
एक अरसे बाद आयी हैं फुहारे।
आ गई वर्षा हमारे आज द्वारे।।
धान के पौधों को जीवन मिल गया है,
धूप से झुलसा चमन अब खिल गया है,
पर्वतों पर गा रहे हैं गान धारे।
आ गई वर्षा हमारे आज द्वारे।।
बहुमुखी प्रतिभा की धनी ख्यातिनाम नवगीतकार, ग़ज़लकार, लेखिका, कवयित्री डॉ. (सुश्री) शरद सिंह का यह नवगीत हृदयग्राही है -
सावन की बूंद जो झरे
बरसाती दिन
अब जाकर हुए हरे ।
यादों ने कूक फिर लगाई
झूले में झूले अंगनाई
आंखों के कूप दो भरे
बरसाती दिन
अब जाकर हुए हरे ।
हरियाए बेल और बूटे
मन तोड़े हर एक खूंटे
तन कब तक को धरे
बरसाती दिन
अब जाकर हुए हरे ।
बिजुरी की दौड़ती चमक
मुखड़े पर जागती दमक
अंजुरी में प्यास को धरे
बरसाती दिन
अब जाकर हुए हरे।
ब्लॉगर सुजाता प्रिय 'समृद्धि' ने सावनी झूलों का यह बहुत सुंदर गीत लिखा है -
झूला लगा कदम की डाली,
झूल रही मैं मधुवन में ।
चलती मधुर-मधुर पुरवाई,
मस्ती छाई तन-मन में।
आया सावन बड़ा सुहावन,
हरियाली छाई।
देख घटा का रूप सलोना,
मन में मैं हरषाई।
नभ की छटा बड़ी मनभावन,
खुशियाँ' लायी जीवन में।
झूला लगा कदम की डाली,
झूल रही मैं मधुवन में।
प्रवासी भारतीय कवयित्री एवं पंडित नरेन्द्र शर्मा की अमेरिका निवासी पुत्री लावण्या शाह का वर्षा गीत देखें -
उमड़-घुमड़कर बरसे,
तृप्त हुई, हरी-भरी, शुष्क धरा।
बागों में खिले कंवल-दल,
कलियों ने ली मीठी अंगड़ाई।
फैला बादल दल, गगन पर मस्ताना
सूखी धरती भीगकर मुस्काई।
मटमैले पैरों से हल जोत रहा,
कृषक थका गाता पर उमंग भरा।
'मेघा बरसे, मोरा जियरा तरसे,
आंगन देवा, घी का दीप जला जा।'
प्रखर कवयित्री अनीता सैनी 'दीप्ति' की कविताओं का एक अलग ही प्रभाव पड़ता है पाठक के मनोमस्तिष्क पर। देखें यह उनकी कविता -
कल आसमान साफ़ था
फिर भी दिनभर पानी बरसता रहा।
बरसते पानी ने कहा बरसात नहीं है
बरसात भिगोती है गलाती नहीं।
सीली दीवारों पर चुप्पी की छाया थी
न सूरज निकला न साँझ ढली।
गरजे बादल चमकती रही बिजली
न पक्षी चहके न घोंसले से निकले।
दौड़ते पानी से गलियाँ सिकुड़ी
धुल गए वृक्ष झरते पानी के अनुराग से।
धारा की शोभा सुशोभित हुई
नव किसलय के श्रृंगार से।
.... और अब मेरी अपनी रचना। जी हां, मेरा तो नाम ही वर्षा है, और मैं कवयित्री भी हूं तो मेरे प्रिय ब्लॉग पाठकों, वर्षा ऋतु पर अपनी लेखनी चलाना मेरा तो प्रथम अधिकार है न 😊
अतः अंत में मेरी यानी डॉ. वर्षा सिंह की इस वर्षा ऋतु संबंधी रचना का आनंद लें -
गरमी के झुलसाते दिन तो गए बीत
मौसम ने गाया है वर्षा का गीत
वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।
कितना भी सूखे ने कहर यहां ढाया,
अब तो है कजरारे बादल की छाया,
रिमझिम से सजती है पौधों की काया,
इसको ही कहते हैं ऋतुओं की माया,
दुनिया ये न्यारी है, परिवर्तन जारी है
दुख के हज़ार दंश, एक खुशी भारी है
रहती हर हार में छुपी हुई जीत
मौसम ने गाया है वर्षा का गीत
वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।
मेरे इस चार अंतरे वाले गीत का अंतिम बंध है -
पड़ती हैं धरती पर पावसी फुहारें,
गली-गली बरस रहीं अमृत की धारें,
मेघों से करती है बिजली मनुहारें,
टूट रहीं जल-थल के बीच की दीवारें,
बिखरी हरियाली है, छायी खुशहाली है
फूलों के बंधन में, बंधती हर डाली है
पाया है ‘‘वर्षा’’ ने अपना मनमीत
मौसम ने गाया है वर्षा का गीत
वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।
-------------------------
मिलन और विरह दो अलग अलग छोर है। वर्षा ऋतु ही इन दोनों की संगम बिंदु है। जल सार है। वसुंधरा प्रकृति है। बीज बोने का समय वर्षाकाल होता है। मिलन की इस घड़ी और उससे पहले विरह की वेदना को मेघदूत के रचियता कालिदास, रामायण के रचनाकार तुलसीदास, कामायनी जैसा महाकाव्य लिखने वाले जयशंकर प्रसाद ने अपनी अपनी रचनाओं के माध्यम से नया शब्द संसार दिया,को समावेश करके वर्षा सिंह जी ने एक खूबसूरत मोड़ दिया है।ऊर्दू, हिंदी वा अन्य भाषा के सहारे यह बताने की कोशिश की कि क्रीड़ा की पीड़ा का रंग वर्षा ऋतु में कैसा लग रहा है।मिलन की कामना और मिलन के बाद की खुशी का रंग कितना सुहावना झोंका होता है।वह निश्चित रूप से बधाई की पात्र हैं। वनस्पति विज्ञान में एमएससी करने वाली वर्षा जी का हिंदी पर पकड़ असामान्य बात है। एक पंक्ति में वर्षा के लिए कहा जा सकता है कि"में तो आवारा बादल, किस सड़क से गुजरना है,किस छत को भिगोना है।"
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार....इस विस्तृत टिप्पणी के लिए।
हटाएंनिदा फ़ाजली का यह शेर इस प्रकार है -
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने.
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है.
.... और मेरी एक ग़ज़ल का मक्ता है -
"वर्षा" का हृदय निश्छल, ये हाल है चाहत का,
सागर भी भला लागे, पर्वत भी उसे भाए।
🙏😊
वाह!सराहना से परे दी।
जवाब देंहटाएंनिशब्द हूँ आपके स्नेह से आज सहेजा नहीं जा रहा दिल में।
गागर में सागर ...
आदरणीय रविंद्र जी सर की सोमवार चर्चामंच की प्रस्तुति ले जाना चाहूँगी।
तहे दिल से आभार दी आपके दो शब्द हृदय में उतर गए।
स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
हार्दिक आभार अनीता जी 🙏
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (17अगस्त 2020) को 'खामोशी की जुबान गंभीर होती है' (चर्चा अंक-3796) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
-रवीन्द्र सिंह यादव
हार्दिक आभार रवीन्द्र सिंह यादव जी 🙏
हटाएंबेहद सराहनीय.. अति सुन्दर संग्रहणीय अंक ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद मीना जी 🙏
हटाएं