Dr.Varsha Singh |
मेरी ग़ज़ल को web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 28 मई 2019 में स्थान मिला है।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
ग़ज़ल
- डॉ. वर्षा सिंह
सोचते तो हैं मगर, कुछ बोल पाते हैं नहीं।
बंद दरवाज़े हृदय के खोल पाते हैं नहीं।
बंद दरवाज़े हृदय के खोल पाते हैं नहीं।
सच को परदे में रखें, हम ये नहीं कर पायेंगे
झूठ को हम चाशनी में घोल पाते हैं नहीं।
झूठ को हम चाशनी में घोल पाते हैं नहीं।
जी-हज़ूरी से रहे हैं दूर कोसों उम्र भर
चाटुकारी के लिए हम डोल पाते हैं नहीं।
चाटुकारी के लिए हम डोल पाते हैं नहीं।
हर तरफ बिक्री-खरीदी, हर तरफ मक्कारियां,
कोई भी शै हम यहां, अनमोल पाते हैं नहीं।
कोई भी शै हम यहां, अनमोल पाते हैं नहीं।
कै़द जिनको कर लिया हो ज़िन्दगी ने बेवज़ह,
आखिरी दम तक कभी पैरोल पाते हैं नहीं।
आखिरी दम तक कभी पैरोल पाते हैं नहीं।
जो न "वर्षा" कर सके अभिनय किसी भी मंच पर,
वक़्त के नाटक में इच्छित रोल पाते हैं नहीं।
वक़्त के नाटक में इच्छित रोल पाते हैं नहीं।
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