Ghazal by Dr. Varsha Singh |
कह दिया मौसम ने सब कुछ, किन्तु वो समझा नहीं
क्या पता समझा भी हो तो, कुछ कभी कहता नहीं
ज़िंदगी में यूं भी पहले उलझनें कुछ कम न थीं
की जो सुलझाने की कोशिश, कुछ मगर सुलझा नहीं
भीड़ में, एकांत में, गुलज़ार में, वीरान में
कौन जाने क्या हुआ है, मन कहीं लगता नहीं
इस क़दर बदले हुए हैं, बंधनों के मायने
है खुला पिंजरा, परिंदा अब मगर उड़ता नहीं
लाख कोशिश कीजिये, "वर्षा" यकीनन जानिये
लग कभी सकता किसी की, सोच पर पहरा नहीं
क्या पता समझा भी हो तो, कुछ कभी कहता नहीं
ज़िंदगी में यूं भी पहले उलझनें कुछ कम न थीं
की जो सुलझाने की कोशिश, कुछ मगर सुलझा नहीं
भीड़ में, एकांत में, गुलज़ार में, वीरान में
कौन जाने क्या हुआ है, मन कहीं लगता नहीं
इस क़दर बदले हुए हैं, बंधनों के मायने
है खुला पिंजरा, परिंदा अब मगर उड़ता नहीं
लाख कोशिश कीजिये, "वर्षा" यकीनन जानिये
लग कभी सकता किसी की, सोच पर पहरा नहीं
ं
- डॉ. वर्षा सिंह
- डॉ. वर्षा सिंह
वाह, क्या पता समझा भी हो तो, कुछ कभी कहता नहीं.. क्या सुंदर अभिव्यक्ति है, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंनवीन जोशी जी,
हटाएंहार्दिक धन्यवाद