नहीं गुंथ पा रहे थे चोटियों में बाल गीले से
सपन जो रात को देखा खुली आंखों से अक्सर
किसी को हमसफर पाया नई राहों में अक्सर
अजब सी कसमसाहट लग रहे थे बंध ढीले से
नहीं गुंथ पा रहे थे चोटियों में बाल गीले से
शिकायत ज़िन्दगी से है, मगर क्या है न जाने
उदासी की वज़ह क्या है, कोई आए बताने
लिखे थे गीत जिस पर, लग रहे कागज वो सीले से
नहीं गुंथ पा रहे थे चोटियों में बाल गीले से
सवालों की कतारें कम नहीं होती ज़रा भी
हुई मुश्किल नहीं दिखता जवाबों का सिरा भी
हुए हैं चाहतों के पंख मानो स्याह नीले से
नहीं गुंथ पा रहे थे चोटियों में बाल गीले से
सुबह ताज़ा हवा में झड़ रहे थे फूल पीले से
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