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सोमवार, अक्तूबर 29, 2018

वर्षा का गीत - डॉ. वर्षा सिंह


Dr. Varsha Singh

गरमी के झुलसाते दिन तो गए बीत
मौसम ने  गाया है वर्षा का गीत
       वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।

कितना भी सूखे ने  कहर यहां ढाया
अब तो है कजरारे  बादल की छाया
रिमझिम से सजती है पौधों की काया
इसको ही कहते हैं ऋतुओं की माया
दुनिया ये न्यारी है
परिवर्तन जारी है
दुख के हज़ार दंश
एक खुशी भारी है
रहती हर  हार में छुपी हुई जीत
मौसम ने  गाया है वर्षा का गीत
     वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।

गूंथ रहा मनवा भी सपनों की माला
पुरवा ने लहरा कर  जादू ये डाला
भीगी-सी रागिनी, स्वर में मधुशाला
हृदय के  भावों को छंदों में ढाला
बारिश की लगी झड़ी
सरगम की जुड़ी कड़ी
दिल तो है छोटा-सा
मचल रही  चाह बड़ी
राग है मल्हार और प्यार का संगीत
मौसम ने  गाया है वर्षा का गीत
      वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।

गांव में निराशा के आशा का डेरा
जागी उम्मीदों ने जी भर कर टेरा
रिमझिम फुहारों से खेलता सवेरा
सबका है सबकुछ ही, क्या तेरा-मेरा
बूंद की  अठखेली में
तृप्ति की   पहेली में
लहरों की चहल-पहल
नदी   अलबेली   में
खुशबू बन चहक रही ओर-छोर प्रीत
मौसम ने  गाया है वर्षा का गीत
      वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।

पड़ती हैं  धरती पर पावसी फुहारें
गली-गली बरस  रहीं अमृत की धारें
मेघों से  करती है बिजली  मनुहारें
टूट रहीं जल-थल के बीच की दीवारें
बिखरी हरियाली है
छायी खुशहाली है
फूलों के बंधन में
बंधती हर डाली है
पाया है ‘‘वर्षा’’  ने अपना मनमीत
मौसम ने  गाया है वर्षा का गीत
     वर्षा का गीत, वर्षा का गीत।
               -------------

मेरा यह गीत "नारी का सम्बल " पत्रिका (सम्पादक डॉ. शकुंतला तरार) के जुलाई- सितम्बर 2018 अंक में प्रकाशित हुआ है।

"नारी का सम्बल" पत्रिका में प्रकाशित डॉ. वर्षा सिंह का गीत

रविवार, अक्तूबर 28, 2018

गीत .... लुप्त होती जा रही है चेतना - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

शून्य होती जा रही संवेदना
लुप्त सी होने लगी है चेतना

बद से बदतर गांव की हालत हुई
घर से बेघर चैन की चाहत हुई
पड़ रहा अक्सर स्वयं को बेचना
लुप्त सी होने लगी है चेतना

वीडियो बनते रहे वायरल हुए
हादसों से मन नहीं व्याकुल हुए
कौन समझे घायलों की वेदना
लुप्त सी होने लगी है चेतना

बिन चुभोये देह में चुभते हैं पिन
हाथ में पत्थर लिए दिखते हैं दिन
हो रहा मुश्किल बहुत ही झेलना
लुप्त होती जा रही है चेतना

सच की कड़वाहट भली लगती नहीं
झूठ की लेकिन सदा चलती नहीं
फैसला ना हो गलत, यह देखना
लुप्त होती जा रही है चेतना


शनिवार, अक्तूबर 27, 2018

कविता ..... ज़रूरतें - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

सड़क किनारे
ढाबों की कतारें
देख कर
सोचती हूं मैं
अपनी और अपने परिवार की
पूरी ज़रूरतें पूरी करने के लिए
ये पूरी करते हैं 
उन दूसरों की 
छोटी-छोटी ज़रूरतें
जो अकेले या दोस्तों या परिवार के साथ
अभी सफ़र में हैं


Photo by Dr. Varsha Singh
Photo by Dr. Varsha Singh
Photo by Dr. Varsha Singh

बुधवार, अक्तूबर 24, 2018

गीत ... सृजन - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

जीवन का जब छंद नया बन जाएगा
प्राणवान हो अमृत रस छलकायेगा
सृजन हमारा तभी रंग ला पायेगा

भाषा केवल संप्रेषण तक रह नहीं रहे
भावों की सरिता बनकर निर्बाध बहे
रूप, बिंब, संदर्भ, अर्थ सब नूतन हों
शब्द-शब्द विस्तारित हो आल्हाद गहे
विषय वस्तु और कथ्य नया ले आएगा
सृजन हमारा तभी रंग ला पायेगा

सिर्फ कल्पना ही हावी ना हो पाए
सच के नव आयामों से भी सज जाए
स्वयं बढ़े दृढ़ता से मुश्किल राहों पर
विचलन से बचने का गुर भी सिखलाए
प्रासंगिकता लेकर सबको भायेगा
सृजन हमारा तभी रंग ला पाएगा

मनोराग के साथ बुद्धि का संगम हो
प्रगतिशीलता की भी उसमें सरगम हो
अनुभव से वैचारिकता को पुष्टि मिले
लेखन मावस नहीं, वरन् वह पूनम हो
जीवन में नव दृष्टि, नयापन लाएगा
सृजन हमारा तभी रंग ला पाएगा

जीवन का जब छंद नया बन जाएगा
प्राणवान हो अमृत रस छलकायेगा
सृजन हमारा तभी रंग ला पायेगा



मंगलवार, अक्तूबर 23, 2018

गीत .... बचपन - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
गीत

फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं  
खेल-खिलौने, झूला-मस्ती, प्यारी-प्यारी सखियां हैं

चिंता से पहचान नहीं थी,
बेफिक्री का आलम था
होठों पर लहराता हरदम,
खुशियों वाला परचम था
अब लगता है मानों जैसे बीत गई कुछ सदियां हैं
फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं

दो चुटियों में बंधी हुई थी
उम्मीदों की एक पुड़िया
“वर्षा” को “वर्षा” ना कहकर
कहते थे रानी गुड़िया
जुड़ती रहतीं छुटपन वाली बीते पल की कड़ियां हैं
फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं

कितना लाड़ प्यार मिलता था
नानी, दादी अम्मा से
रूठा-रूठी मान-मनौव्वल होती
कक्का, मम्मा से
रिश्ते-नातों की रिमझिम से, नम हो जाती अखियां हैं  
फूलों जैसी ताज़ा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं

यह तो है मालूम, नहीं दिन
बीते अब आने वाले
मनवा चाहे जितना इनको भीतर ही भीतर पाले
बदल गए हैं गांव शहर सब, बदल गई सब कलियां हैं
फूलों जैसी ताजा अब भी बचपन की स्मृतियां हैं
- डॉ. वर्षा सिंह


शनिवार, अक्तूबर 20, 2018

निपट देहात में - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
निपट देहात में
जहां पानी की किल्लत
झेल रहे हैं रहवासी

जहां रोज़गार के लिए
जद्दोजहद में लगे हैं युवा

जहां शिक्षा
टूटी खपरैल वाली पाठशाला में
मिड डे मील के आकर्षण की बैसाखियों पर
लद कर काट रही है दिन

जहां रंग उड़े बेढंगे मकान
बेतरतीब उगी झुग्गियां
बनी हुई हैं कामवाली बाईयों के शेल्टर
Photo by Varsha Singh

उस निपट देहात में
अरेबियन नाईटस् की उड़नतश्तरियों की तरह
जहां- तहां दिख जाती हैं
अनायास ही
अचानक ही
मोटरसाइकिलें
बाईकें
और मोपेडें
Photo by Varsha Singh

हां, भारत बसता है निपट देहात में भी
झुग्गियों में
खपरैल वाले स्कूलों में
टपरों में
गुमटियों में

अब चाकी के पाटों से परे
बाईकों, मोटरसाईकलों, मोपेडों के चकों में फंसा
दो पहियों में रचा बसा
भारत बसता है निपट देहात में

Photo by Varsha Singh

शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2018

विजयादशमी की शुभकामनाएं Happy Dussehra


Dr. Varsha Singh
विजयादशमी के पावनपर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं🙏
आईये, इस अवसर पर तुलसीदास कृत रामचरित मानस के इस छंद का स्मरण करें

जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।। 
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।। 
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।। 
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।। 
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं।। 
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के।। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।
नहिं राग न लोभ न मान मदा।।तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा।। 
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।। 
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।। 
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।
श्री राम दरबार

मंगलवार, अक्तूबर 16, 2018

छवियां - डॉ. वर्षा सिंह


Dr. Varsha Singh
छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
कालिदास का यक्ष
बनती बिगड़ती छवियों वाले मेघ से
बातें करने लगता है तब
जब और कोई रास्ता नहीं मिलता
प्रिया तक संदेश भिजवाने का

छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
जब बेलें किसी मज़बूत वृक्ष का सहारा लेकर
चल पड़ती हैं उस आकाश को छूने का स्वप्न लेकर
इस बात को नज़र अंदाज़ कर
कि आकाश को
जितना छूने के लिए
उसके करीब जाने की कोशिश करो
वह उतना ही दूर चला जाता है

छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
जब प्यार में डूब कर हम जिसे देवता समझ लेते हैं
एक दिन अचानक हम पाते हैं
कि वह मनुष्य भी नहीं
बदतर है जानवर से भी ज़्यादा

छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
क्योंकि हम उन्हें देखते हैं
बनते और बिगड़ते हुए
काश हम इग्नोर कर पाते उन सारी छवियों को
जो छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं
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छवियां बनती हैं बिगड़ती हैं - डॉ. वर्षा सिंह

सोमवार, अक्तूबर 01, 2018

Happy International Day of Older Persons !


Dr. Varsha Singh

आज अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर स्थानीय 'पत्रिका' समाचारपत्र ने मेरी माताश्री डॉ. विद्यावती 'मालविका' की क्रियाशीलता के बारे में प्रकाशित किया है। जिसे मैं आप सबसे शेयर कर रही हूं।
हार्दिक आभार "पत्रिका" 🙏


Patrika News paper dt 01.10.2018 published my about my mother Dr. Vidyawati Malvika, renowned Hindi writer, Poetess & Retired Lecturer.

Happy International Day of Older Persons !

नहीं बदले बादल..... डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

बादलों को देख कर
याद आ जाते हैं
कालिदास और ....
उनकी कालजयी रचना
मेघदूतम् ।
चिट्ठियां तब भी नहीं लिखी गई
चिट्ठियां अब भी नहीं लिखी किसी ने
बादलों से कहलवाए गए संदेश तब ।
और अब
मोबाईल टॉवरों के जरिए
भेजे और पाए गए संदेश
समय बदल गया
नहीं बदले बादल
और नहीं बदली भावनाएं
प्रेम
मिलन
विछोह
बादल कल भी थे , बादल आज भी हैं
भावनाएं कल भी थीं, भावनाएं आज भी हैं।
         - डॉ. वर्षा सिंह
Photo by Dr. Varsha Singh


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