पेज

रविवार, जुलाई 29, 2018

धरती पर पानी लिख देना - डॉ. वर्षा सिंह

धरती पर पानी लिख देना
आंचल को धानी लिख देना

चाहत पर बंधन का पहरा
कुछ तो मनमानी लिख देना

बेशक लिखना अमर प्यार को
दुनिया को फानी लिख देना

इंतज़ार में चांद - रात के
दिन की कुर्बानी लिख देना

मौसम को यदि राजा लिखना
"वर्षा" को रानी लिख देना

        ❤ डॉ. वर्षा सिंह

साहित्य वर्षा-18 सामाजिक सरोकारों के सजग कवि : कपिल बैसाखिया - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरे कॉलम "साहित्य वर्षा" की अट्ठारहवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के विशिष्ट कवि कपिल बैसाखिया पर मेरा आलेख । ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 18

सामाजिक सरोकारों के सजग कवि : कपिल बैसाखिया

       - डॉ. वर्षा सिंह

        छंदबद्ध काव्य धैर्य और समय की मांग करता है। जबकि वर्तमान आपाधापी और शीघ्रता वाले समय में अनेक साहित्यकार ऐसे हैं जो छंद साधना का धैर्य नहीं रख पाते हैं तथा कठोर खुरदरी किसी नारे के समान लगने वाली कवितायें रचने लगते हैं। किन्तु सागर के साहित्य जगत में कपिल बैसाखिया एक ऐसे कवि हैं जो निरंतर छंदबद्ध रचनाएं लिख रहे हैं। 07 जून 1957 को सागर में जन्में कपिल बैसाखिया ने डॉ हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से विज्ञान विषय में स्नातक उपाधि अर्जित करने के बाद शासकीय सेवा की राह पकड़ ली। साहित्य के प्रति उनका रुझान सतत् बना रहा। उनके पिता स्व. कपूरचंद बैसाखिया सागर नगर के लोकप्रिय एवं प्रतिष्ठित कवि थे। उनकी काव्यधर्मिता की विरासत को और अधिक सम्पन्न बनाते हुए कपिल बैसाखिया ने काव्य सृजन को गम्भीरता से लिया। उन्होंने दोहे और कुण्डलियां के साथ ही मुक्तक और ग़ज़ल भी लिखे हैं। अपने लेखन के आरम्भिक दिनों में समसामयिक लेख एवं कहानियां भी लिखीं। किन्तु छंदबद्ध रचनाओं के प्रति उनके लगाव ने उन्हें एक अलग पहचान दी है। विशेष रूप से उनके दोहे और कुण्डलियों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि अनेक सरोकार निबद्ध हैं। उनके दोहों में पर्यावरण के प्रति गहन चिंता दिखई देती है। उदाहरण के लिऐ उनके ये दोहे देखें -
            भाग रहे हैं जानवर, पक्षी भरे उड़ान।
            मौसम में बदलाव नित, पस्त पड़ा इंसान।।
            शुद्ध हवायें गुम हुईं, बचा न पाये पेड़।
            हुए मतलबी जन सभी, रहे धरा को छेड़।।
        कवि कपिल ने पर्यावरण के प्रति चिन्ता व्यक्त करने के साथ ही प्रकृति के सांदर्य को भी अपने दोहों में मुखर किया है, जैसे -
            तपन घटी बादल दिखे, मौसम बदले रूप।
            पानी-पानी अब धरा, भरे सरोवर , कूप।।
        कपिल बैसाखिया ने उन विषयों पर भी विश्लेष्णात्मक ढ़ंग से दोहे लिखे हैं जिन पर आम तौर पर लिखा ही नहीं जाता है। ताले पर केन्द्रित उनके ये दोहे देखें -
            ताले का होता बड़ा, गहन मनोविज्ञान।
            रखता साज सम्हाल के, ये सारा सामान।।
            जहां जहां ताला लगे, पाता वो सम्मान ।
            पेटी हो या द्वार हो, ताले से ही मान।।
        रोटी पर केन्द्रित अपने दोहों में कवि कपिल ने जिस प्रकार रोटी की प्रशंसा की है वह बड़ी लुभावनी है, दोहे देखें -
            सोंधी- सोंधी हो महक, अच्छी जाये फूल।
            ऐसी रोटी याद रख, बाकी जायें भूलं।।
            गरम-गरम रोटी रहे , गोल-गोल आकार।
परसी हो फूली हुई, भला लगे आहार।।
फूली रोटी देख कर , मिलता बहुत सुकून।
आती जब ये थाल पर, बढ़ जाता है खून।।
आज युवाओं में मोबाइल के प्रति जिस प्रकार अंधानुराग है, वह उनके जीवन के लिए भी घातक है, फिर भी वे इस तथ्य को अनदेखा कर मोबाइल हाथ में आते ही मानों दीन-दुनिया भुला देते हैं। फिर चाहे उन्हें अपने प्राण ही क्यों न गंवाने पड़ें। युवाओं की इस दशा पर कटाक्ष करते हुए कपिल बैसाखिया ने ये दोहे लिखे हैं -
    बाल गये, चमड़ी गई, सूख गया है मांस।
    फोन न छूटा हाथ से, उखड़ गई है सांस।।
    गर मोबाइल यंत्र को , सदा रखो तुम थाम।
अस्थिपंजर निकल पड़े, मिलता यह परिणाम।।
कपिल बैसाखिया के दोहों में विषय की विविधता के क्रम में उनके चाय पर दोहे भी उल्लेखनीय हैं। ये बानगी देखें -
    देती सबको ताजगी, गरम-गरम ये चाय।
    पी कर इसको जन सभी, मंद-मंद हर्षाय।।
    आधे कप-मग चाय की, फरमाइश चहुं ओर।
    मिलती जल्दी ताजगी, नाचे मन का मोर।।
सागर नगर के प्रतिष्ठित शासकीय बहु उच्च माध्यमिक उत्कृष्ट विद्यालय से सेवानिवृत्त कपिल बैसाखिया ने अपने सेवाकाल में स्कूल की पत्रिका ‘’वाग्दम्बिका’’ का सफल सम्पादन किया। विद्यार्थियों के लिए पत्रिका की उपयोगिता को ध्यान मं रखते हुए महत्वपूर्ण विशेषांकों का सम्पादन किया। जैसे कैरियर मार्गदर्शन विशेषांक, जनसंख्या शिक्षा विशेषांक, जल संरक्षण, संवर्द्धन एवं उपयोगिता विशेषांक, ऊर्जा संरक्षण एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत विशेषांक, वन्यप्राणी संरक्षण विशेषांक आदि। उल्लेखनीय है कि उनके सम्पादन काल में ‘’वाग्दम्बिका’’को राज्यस्तर पर अनेक बार प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुए।
कपिल बैसाखिया साहित्य साधना के साथ ही साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं। वर्तमान में वे नगर की कला, साहित्य, संस्कृति, एवं भाषा के लियं समर्पित संस्था श्यामलम् के सचिव तथा पाठक मंच, सागर के सह केन्द्र संयोजक हैं। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी कपिल बैसाखिया का सामाजिक दायरा भी विस्तृत है, वे सदैव हर किसी के सहयोग के लिए तत्पर रहते हैं तथा यही प्रेरणा देते हैं कि उन्हीं के शब्दों में -
    हरदम रखिये हौसला, छोड़ें कभी न आस।
    बदलेंगे हालत फिर, धीरज रखियें पास।।

--------------------------------------

(साप्ताहिक सागर झील दि. 10.07.2018)
#साप्ताहिक_सागर_झील #साहित्य_वर्षा #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sahitya_Varsha #Sagar #Sagar_Jheel #Weekly

साहित्य वर्षा-17 ग़ज़ल लेखन के युवा हस्ताक्षर: सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरे कॉलम "साहित्य वर्षा" की सत्रहवीं  कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के युवा कवि सुबोध श्रीवास्तव पर मेरा आलेख । ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 17

ग़ज़ल लेखन के युवा हस्ताक्षर: सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’
           - डॉ. वर्षा सिंह
                                       
सागर के युवा रचनाकारों में ग़ज़ल लेखन के प्रति समर्पित भाव का रुझान और उत्साह दिखाई देता है। यूं भी ग़ज़ल काव्य की वह विधा है जिसने भले ही अरबी और फारसी में जन्म लिया किन्तु हिन्दुस्तान की जमीन पर आने के बाद उर्दू से होती हुई हिन्दी में अपनी जगह बनाती चली गई। अब तो ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी आदि आंचलिक बोलियों में भी बेहतरीन ग़ज़लें  लिखी जा रही हैं। जहां तक सागर नगर का प्रश्न है तो यहां एक से एक ग़ज़ल लिखी गई हैं। जैसा कि कहा जाता है कि किसी भी कविमना को ग़ज़ल स्वतः अपनी ओर आकर्षित करती है और ग़ज़लकार से वह लिखवा लेती है जो वह चाहती है। सागर नगर के सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ एक ऐसे ही युवा ग़ज़लकार हैं जिन्हें लेखन के क्षेत्र में अभी कम ही समय हुआ है लेकिन अपनी ग़ज़लों के माध्यम से एक अलग पहचान बनाते जा रहे हैं।
25 जून 1971 को सागर में जन्मे सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ ने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से गणित में एम.एससी. किया। इस दौरान उन्हें ग़ज़ल सुनने का शौक लगा। धीरे-धीरे वे ग़ज़ल के उतार-चढ़ाव में इतने रम गए कि स्वयं भी ग़ज़लें लिखने लगे। उनका कहना है कि ‘‘पहले यूं ही एकाध शेर लिख कर खुश हो लेता था लेकिन लगभग सन् 2014 से मैंने ग़ज़ल लेखन को गंभीरता से लिया। लोगो ने मुझे प्रोत्साहित किया, मेरी ग़ज़लों को सराहा जिसका परिणाम है कि आज मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह ‘सिरे से ख़ारिज़’ प्रकाशन प्रक्रिया में है।’’
सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ स्वामी विवेकानंद विश्वविद्यालय, सागर में फाईनेंस ऑफीसर के पद पर कार्यरत हैं। वे अपने इस गणतीय कार्य के साथ ही स्वयं को ग़ज़ल लेखन से सतत जोड़े हुए हैं। सुबोध की ग़ज़लों में वर्तमान वातावरण की शुष्कता पर कटाक्ष के साथ ही नवीन बिम्ब देखने को मिलते हैं। उनकी यह ग़ज़ल देखें -
आदमी अब आदमी को बस गारा है
इस माहौल में डूबा चमन सारा है
जीस्त का सच मैं तुमको बतलाता हूं
दो बिंदुओं के बीच सफ़र सारा है
देख के कब्र को बताना मुमकिन नहीं
इनमें से कौन जीता, कौन हारा है

एक तीखी स्पष्टवादिता भी सुबोध की ग़ज़लों में उभर कर आती है। राजनीति और समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं से मिली कड़वाहट को वे उतनी ही कठोरता से अपनी ग़ज़लों में उतारते हैं जितनी कठोरता उस कड़वाहट को झेलने के बाद किसी भी संवेदनशील व्यक्ति में उत्पन्न हो सकती है। बिना लाग-लपेट के कही कई बात कितनी भी चुभे या खटके लेकिन उसकी सच्चाई को नकारना कठिन होता है। यह तथ्य सुबोध की इस ग़ज़ल में कुछ इस अंदाज़ में आया है कि -
ऐसी  कि तैसी ऐसे  निजाम की
तेरी  हलाल की,  मेरे हराम की
जम्हूरियत की बात सुनते नहीं वो
सुनते हैं तो पंडित की, इमाम की

यह तल्ख़ अंदाज़ उनकी कुछ और ग़ज़लों में भी देखा जा सकता है जिसमें वे आज के इंसान की प्रवृत्तियों पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि -
इंकलाब की बातों पर खूब ताली बजाएंगे
ये शरीफ़ लोग हैं फिर चुपचाप घर जाएंगे
पहले ये देखेंगे तमाशा बुज़दिली के साथ
फिर शाम को चौराहे पर मोमबत्ती जलाएंगे

आज जिस प्रकार पर्यावरण में प्रदूषण का जहर घुलता जा रहा है और देश की राजधानी दिल्ली हर साल जाड़ों में स्मॉग की चपेट में आ जाती है, वह हमारी पर्यावर को बचाने के प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। दिल्ली सरकार भी इस बात को स्वीकार कर चुकी है कि दिल्ली की हवा में प्रदूषण का स्तर खतरे के निशान को छूने लगा है। इस हालात पर तेज करते हुए सुबोध ‘सागर’ ने लिखा है कि -
अपनी  जेब में  अपना ही पता रखिए
आप दिल्ली में  अपनों को बता रखिए
ज़हर फैल चुका है यहां की फिजाओं में
हो सके तो साथ अपने लिए हवा रखिए 

रोजी-रोटी के लिए गांव छोड़ कर शहर की ओर पलायन की विवशता सदियों से चली आ रही है। अपना गांव, घर और अपनों को छोड़ कर अनजान शहर में दर-दर भटकना कितना पीड़ादायक होता है यह कोई भुक्तभोगी ही भली-भांति बता सकता है या फिर वह कवि जिसने इस पीड़ा की तह तक पहुंच कर उसे अपनी संवेदनाओं से महसूस किया हो। सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ ने अपनी एक ग़ज़ल में इस पीड़ा को बखूबी उतारा है। बानगी देखिए -
आ तो गए गांव छोड़ कर इधर, बाबा
मकानों में ढूंढ रहे हैं  कोई घर, बाबा
लोगो जैसा ही  मिजाज नगर का है
सर्दी में भी  पसीने से तरबातर, बाबा
मिलना न मिलना,  ये अलग बात है
रखता नहीं मैं कोशिशों में कसर, बाबा
दुआ ‘सागर’ अब भी  काम करती है
दवाओं में नहीं रहा  अब असर, बाबा

ऐसा नहीं है कि सुबोध ‘सागर’ की ग़ज़लों में सिर्फ तंज और तल्खियां ही हों, वे रूमानीयत की ग़ज़लें भी लिखते हैं। ये शेर देखें-
मुझको  इश्क़ का  कोई तजुर्बा न था
वो शख़्स वैसे ठीकठाक, पर भला न था
रकीबों ने अपना काम बाखूबी किया है
तुमको वो सुनाया मैंने जो कहा न था

सुबोध के किसी-किसी शेर में एक अनूठा चुटीलापन भी दिखाई देता है जो उसे पढ़ने या सुनने वाले को हंसाता और गुदगुदाता भी है। ये उदाहरण देखें-
वो कहता है, इस दौलत में धरा क्या है
यारो पता करो,  आखिर माज़रा क्या है
हूरें तो  सब की सब बंट चुकी  होंगी
मेरे वास्ते  जन्नत में अब रखा क्या है

सुबोध श्रीवास्तव ‘सागर’ की ग़ज़लों में विचार और संवेदना का क्षेत्र विस्तृत है और अभिव्यक्ति में सहजता है जो ग़ज़ल के क्षेत्र में उनकी संभावनाओं को आश्वस्ति प्रदान करता है।       
             -----------------------

(साप्ताहिक सागर झील दि. 03.07.2018)
#साप्ताहिक_सागर_झील #साहित्य_वर्षा #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sahitya_Varsha #Sagar #Sagar_Jheel #Weekly

साहित्य वर्षा -16 डॉ. सरोज गुप्ता : बुंदेली विरासत के प्रति सजग साहित्यकार - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरे कॉलम "साहित्य वर्षा" की सोलहवीं  कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर की साहित्यकार डॉ. सरोज गुप्ता पर मेरा आलेख । ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 16            

डॉ. सरोज गुप्ता : बुंदेली विरासत के प्रति सजग साहित्यकार      
        - डॉ. वर्षा सिंह
     
       बुंदेली धरती साहित्य और संस्कृति की धनी है। यहां की साहित्यिक, सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का कार्य कई विद्वान एवं संस्थाएं सतत् रूप से करती आ रही हैं। यह अपनी माटी के प्रति प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होता है कि वह अपनी माटी को भूमि का टुकड़ा मात्र मान कर अनदेखा न करे अपितु उसे अपनी जन्मस्थली मान कर उसे सहेजे, संवारे और उसके प्रति अपने कर्त्तव्यबोध का सदा जाग्रत रखे। अपनी क्षेत्रीय एवं जातीय संस्कृति को सहेजना भी अपनी माटी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के समान है। डॉ. सरोज गुप्ता एक ऐसी ही विदुषी हैं जो बुंदेली संस्कृति एवं साहित्य को सहेजने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। 20 जुलाई 1963 को बड़ागांव, झांसी, उत्तरप्रदेश में जन्मीं डॉ. सरोज गुप्ता ने बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी से एम.ए और बी.एड. करने के उपरांत डॉ. भगीरथ मिश्र के निर्देशन में पी.एचडी. उपाधि प्राप्त की। सागर डॉ सरोज गुप्ता का कर्मक्षेत्र है। वर्तमान में पंडित दीनदयाल उपाध्याय आर्ट एण्ड कामर्स कॉलेज के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत डॉ. गुप्ता के अब तक कई समीक्षाग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें प्रमुख हैं- सियारामशरण गुप्त के काव्य में समाज एवं संस्कृति, बुंदेली संस्कृति एवं प्रमुख कवि, बुंदेली धरती सर्जना और सृजन, लोकजीवन में बुंदेलखण्ड तथा सृजन और समीक्षा आदि। उनका एक काव्य संग्रह ‘‘कालचक्र’’ भी प्रकाशित हुआ है। डॉ. गुप्ता ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का संपादन भी किया है, जिनमें प्रमुख हैं- प्रेमपराग, बुंदेली स्वास्थ्यपरक गीत, बुंदेलखण्ड के खेल गीत, अंक महिमाः-ज्ञान खजाना, पहेलियां, उदारचेता मनस्वी स्मृति ग्रंथ, मां, समय, बेटियां, मुक्तिबोध, अपनों के वातायन  अभिनंदन ग्रंथ तथा सत्य से साक्षात्कार के कवि निर्मलचंद ‘निर्मल’ अभिनंदन ग्रंथ।
बुंदेलखण्ड के साहित्य और संस्कृति के प्रति विशेष अनुराग रखने के कारण डॉ. सरोज गुप्ता ने बुंदेली बोली के शब्दों को सहेजने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देते हुए बुंदेली शब्दकोष का संपादन किया है। यद्यपि यह कार्य दुरूह था फिर भी अपनी लगन के बल पर डॉ सरोज ने इसे पूर्ण कर ही लिया। इस ग्रंथ ने उनके लेखकीय एवं संपादन दृष्टि को विशेष ऊंचाई प्रदान किया है। अपने कर्म क्षेत्र में सतत् क्रियाशील रहने वाली डॉ. सरोज गुप्ता अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार का संयोजन कर चुकी हैं। जिनमें रामकथा पर केंद्रित सेमीनार विशेष उल्लेखनीय हैं। उन्होंने रामकथा पर केन्द्रित दो शोध ग्रंथों का भी संपादन किया है।
विश्वहिन्दी सम्मेलन एवं सिंहस्थ वैचारिक महाकुंभ में सम्मिलित होने वाली डॉ. सरोज गुप्ता अब तक अनेक सम्मानों से सम्मानित हो चुकी हैं, जिनमें प्रमुख हैं - रिसर्च लिंक सम्मान वर्ष 2002-2003, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग प्रशस्ति पत्र 2006, मैत्री पुरस्कार आत्मीय विद्वत सम्मान 2006, भारतीय भाषा परिषद सम्मान उज्जैन 2006, महादेवी स्मृति सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग 2007, नेशनल अवार्ड एवं राष्ट्र सेवा नेशनल अवार्ड, अखिल भारतीय नारी प्रगति मंच सागर 2009, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा राजस्थान 2010, विशिष्ट हिन्दीसेवी सम्मान जे.उम.डी. पब्लीकेशन 2010, स्वामी विवेकानेद सम्मान नगर विधायक श्री शैलेन्द्र जैन द्वारा 2013, म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन शाखा सागर पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी सम्मान 2013, राव बहादुर सिंह बुंदेला सम्मान बुंदेली विकास संस्थान बसारी छतरपुर म.प्र. 2014 आदि।
बुंदेली संस्कृति के बारे में डॉ सरोज गुप्ता का कहना है कि -‘‘लोकजीवन अनादिकाल से अनन्तकाल तक मानव जीवन यात्रा में प्रवाहमान है। बुंदेलखण्ड साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है।विविधता यहां की विशिष्टता है। बुंदेली धरती पर वीर, श्रृंगार, भक्ति एवं करुण रस की धरा एक साथ प्रवाहित हुई है। वैद्यक, ज्योतिष, कृषि, धर्म, दर्शन, आध्यात्म, समाज, संस्कृति एवं दैनिक लोक व्यवहार संबंधी नीति, उपदेशपरक रचनाएं, अथाह साहित्य भंडार इस क्षेत्र की विरासत है।’’
डॉ सरोज गुप्ता ने बुंदेली विरासत को लेखबद्ध करने के लिए उसकी विशेषताओं को निकट सेअनुभव करने का प्रयास किया है। इस संबंध में वे कहतीं हैं कि ‘‘मैंने शासकीय ऐवा में कार्यरत रहते हुए लघु शोध एवं वृहद शोध परियोजना के दौरान बुंदेलखण्ड के मूक साधकों को महत्वाकांक्षाओं की बलि दे कर समुद्र की तरह फैले गांवों के हृदय में डुबकी लगाते हुए, लोक जीवन को अनुपम रत्नों से सजाते, संवारते हुए देखा है।’’
बुन्देली संस्कृति को देखने और परखने की डॉ सरोज गुप्ता का अपना अलग दृष्टिकोण हैं। जब वे लोक की बात करती हैं तो उनकी दृष्टि में व्यष्टि और समष्टि एकाकार हो कर एक नहीं परिभाषा गढ़ता है जिसमें लोक अपने समग्र के साथ प्रस्तुत होता है। जैसाकि पुस्तक ‘हमारा बुन्देलखण्ड’ में ‘अपनी बात’ के अंतर्गत् डॉ. गुप्ता ने लिखा है कि ‘‘भारत के मानचित्र पर अंकित बुन्देलखण्ड का विशेष महत्व है। इसका अतीत उन्नतशील, समुज्ज्वल तथा गौरवशाली है। यह वही बुन्देलखण्ड है जहां वेदों, उपनिषदों के ऋषियों- महर्षि व्यास, वाल्माकि, पाराशर, विश्वामित्र, अत्रि, द्रोण, जमदाग्नि व ऋषि याज्ञवल्क्य जैसे चिन्तक मनीषियों ने अपनी साधना की चमक बिखेरी है। जहां कण-कण में चिन्तन की कोई न कोई चिनगारी छिपी हुई है। जहां चरवाहा, हलवाहा, खेतिहर, मजदूर भी वेदान्त बोलता है। जहां गांव-गांव, गली-गली में किसी न किसी उत्सर्ग का चौरा स्थापित है। बुन्देलखण्ड भारत का हृदयस्थल है। यहां की सांस्कृतिक परम्परा अत्यंत समृद्धशाली रही है।’’
डॉ. सरोज गुप्ता की लेखकीय यात्रा के सुचारु रूप से चलते रहने में उनके पति डॉ. हरिमोहन गुप्ता का सदैव सहयोग रहा। यद्यपि डॉ. हरिमोहन गुप्ता फॉरेन्सिक साईन्स लेबोरेटरी सागर में सीनियर साइन्टिफिक ऑफीसर रहे हैं और वे स्वयं साहित्य सृजन में दखल नहीं रखते हैं किन्तु उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी डॉ. सरोज को प्रोत्साहित किया। बुन्देली विरासत के प्रति डॉ सरोज गुप्ता का अनुराग एवं सजगता उन्हें सागर नगर के एक विशिष्ट साहित्यकार के रूप में रेखांकित करती है।
             --------------------------

(साप्ताहिक सागर झील दि. 19.06.2018)
#साप्ताहिक_सागर_झील #साहित्य_वर्षा #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #MyColumn #Varsha_Singh #Sahitya_Varsha #Sagar #Sagar_Jheel #Weekly

बुधवार, जुलाई 18, 2018

नदी का दिल.... डॉ. वर्षा सिंह


नदी का दिल धड़कता है
सदा जलधार की ख़ातिर
बरसते मेघ धरती पर
हमेशा प्यार की ख़ातिर
      -  डॉ. वर्षा सिंह