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सोमवार, मई 14, 2018

साहित्य वर्षा - 10 ‘गीता’ के पद्यानुवाद के कवि डॉ. मनीष झा - डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय मित्रों, 

       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी दसवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ  साहित्यकार डॉ. मनीष झा द्वारा किये गए गीता के पद्यानुवाद पर मेरा आलेख ....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा - 10

  ‘गीता’ के पद्यानुवाद के कवि डॉ. मनीष झा

   - डॉ. वर्षा सिंह


जब किसी रचना का एक-एक शब्द व्याख्यायित हो कर अंतस में समा जाए और फिर एक नवीन मौलिकाता के साथ यानी नए चोले में मुखरित हो तो वह सच्चा अनुवादकार्य होता है। इसे दूयरे शब्दों में कहा जाए तो अनुवाद कार्य अपने आप में चुनौती भरा कार्य है। इसे करते हुए मूल सामग्री के मर्म से भली-भांति तादात्म्य स्थापित होना आवश्यक हो जाता है। मूल सामग्री के मर्म को  आत्मसात किए बिना यदि अनुवाद कार्य किया जाता है तो वह भाषान्तरण, लिप्यांतरण अथवा शब्दांतरण तो हो सकता है किन्तु अनुवाद नहीं हो सकता है। उस पर पद्यानुवाद का कार्य तो और अधिक धैर्य, ज्ञान, सतर्कता और समर्पण की मांग करता है। पद्यानुवाद करने वाले के लिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि वह मूल सामग्री के मर्म को आत्मसात करे और साथ ही उसे इतना प्रचुर शब्द ज्ञान हो कि वह मूल के मर्म को काव्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए सही शब्द का चयन कर सके। जिससे मूल सामग्री अपने पूरे प्रभाव के साथ पद्यानुवाद में ढल सके। डॉ. मनीष चंद्र झा ने ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का पद्यानुवाद ‘गीतगीता’ के रूप में करते हुए पद्यानुवाद के सभी मानकों पर खरे उतरे हैं। उन्होंने पद्यानुवाद में भी कठिन मार्ग को चुना। डॉ. झा ने ‘गीता’ के श्लोकों को मुक्तछंद में नहीं बल्कि छंदबद्ध करते हुए दोहे और चौपाइयों में उतारा है। छंद अपने आप में विशेष श्रम मांगते हैं और यह श्रम डॉ. झा ने किया है।

26 सितम्बर 1969 में भागलपुर (बिहार) के ग्राम भ्रमरपुर में जन्मे डॉ. मनीष चंद्र झा ने मध्यप्रदेश के जबलपुर मेडिकल कॉलेज से एम.बी. बी. एस. तथा एम.एस. (अस्थिरोग) की उपाधि प्राप्त करने के बाद चिकित्साकार्य के लिए सागर नगर को अपने कार्यस्थल के रूप में चुना। उल्लेखनीय है कि उनकी जीवनसंगिनी डॉ. आराधना झा भी अस्थिरोग विशेषज्ञ हैं। सागर नगर के चिकित्सा क्षेत्र में झा दंपत्ति एक प्रतिष्ठित नाम हैं। चिकित्सा के साथ ही डॉ. मनीष चंद्र झा की साहित्य में भी अपार रूचि है और इसी रूचि के परिणाम स्वरूप उनकी प्रथम कृति ‘गीतगीता’ के रूप में पाठकों के सामने आई।           

‘श्रीभगवद्गीता’ भारतीय विचार दर्शन एवं जीवन दर्शन की अनुपम कृति है। यह ‘महाभारत’ महाकाव्य का अंश होते हुए भी अपने आप में सम्पूर्णता लिए हुए है। यह महाभारत के भीष्मपर्व में निहित है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर व्यक्ति के सामने आती हैं। यह व्यक्ति को उसके कर्त्तव्यों से परिचित कराती है, साथ ही अच्छे और बुरे में अन्तर करना भी सिखाती है। 

‘श्रीभगवद्गीता’ की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जब कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवों की सेनाएं आमने-सामने आ खड़ी हुईं और युद्ध आरंभ करने के लिए मात्र एक हुंकार की देरी थी, तभी अर्जुन की दृष्टि सामने खड़े योद्धाओं पर पड़ी। उसके सामने उसके सभी कौरव भाई, मामा, चाचा आदि रिश्तेदार खड़े थे। उन सबसे बढ़ कर भीष्म पितामह जिनका अर्जुन बहुत सम्मान करता था, वे भी उस पंक्ति में खड़े थे जिन पर अर्जुन को अपने बाणों से वर्षा करनी थी। अर्जुन यह सोच कर स्तब्ध रह गया कि मैं अपने भाइयों, अपने संबंधियों पर कैसे बाण चला सकता हूं? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा। यह विचार आते ही उसने श्री कृष्ण से कहा कि मैं यह युद्ध नहीं लडूंगा। मुझसे अपने भाइयों, अपने पितामह जैसे संबंधियों पर शस्त्र नहीं चलाया जा सकेगा। उस घड़ी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि युद्ध लड़ने के रूप में जो कार्य तुम करने जा रहे हो वह धर्म सम्मत है। बुराई का नाश कभी अधर्म हो ही नहीं सकता है। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, वे तुम्हारे संबंधी नहीं वरन् अधर्म के अनुयायी हैं अतः इनका नाश करना तुम्हारा धर्म है। यही बात समझाते हुए श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान अर्जुन को दिया वही गीता का ज्ञान कहलाया। महर्षि वेदव्यास ने इस ज्ञान को ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के रूप में ‘‘महाभारत’’ महाकाव्य में समाहित किया है। 

‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का महत्व आज भी प्रसंगिक है। आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति कोई भी काम करने से पहले उसके अच्छे परिणाम पाने की कामना करने लगता है और इस चक्कर में वह अपना संयम गवां बैठता है। ऐसे में अच्छे परिणाम नहीं मिलते हैं और वह हताश हो कर ग़लत क़दम उठाने लगता है। अतः आज के वातावरण में ‘गीता’ का यह सुप्रसिद्ध श्लोक मार्गदर्शक का काम करता है- 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।


इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो पूर्ण निष्ठा से साथ व्यक्ति कर्म नहीं कर सकेगा। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना काम करते रहो।

इस श्लोक का बहुत ही सुंदर पद्यानुवाद डॉ. मनीष चंद्र झा ने इन शब्दों में किया है-

कहि प्रभु फल तजि कामनाए कर्म करे निष्काम।

संयासी  योगी   वही,  नहिं  अक्रिय  विश्राम।।


इसी तरह वर्तमान जीवन में दिखावा इतना अधिक बढ़ गया है कि मन की शांति ही चली गई है। यह भी मिल जाए, वह भी मिल जाए की लालसा व्यक्ति को निरन्तर भटकाती रहती है। आज युवा पीढ़ी कर्मशील मनुष्य नहीं बल्कि ‘पैकेज़’ में क़ैद दास बनते जा रहे हैं क्यों कि उन्हें पैकेज़ की चार अंकों की राशि दिखाई देती है, जीवन की स्थिरता और मन की शांति नहीं। दुख की बात यह है कि उन्हें इस दासत्व के मार्ग में माता-पिता और अभिभावक ही धकेलते हैं। जबकि ऐसा करके वे अपने बुढ़ापे का सहारा भी खो बैठते हैं। इस संबंध में ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में कहा गया है -

  विहाय कामान्यः कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।

  निर्ममो निरहंकार स शांति मधि गच्छति।।

अर्थात् मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।


डॉ. मनीष चंद्र झा के शब्दों में इसी भाव को देखिए -

विषयन इन्द्रिन के संयोगा,  जे आरम्भ  सुधा  सम भोगा।

अंत परंतु गरल सम जेकी, वह सुख राजस कहहि विवेकी।। 


धृतराष्ट्र संजय से कहते हैं कि कुरुक्षेत्र के युद्धीभूमि पर जो भी हो रहा है, वह मुण्े अपनी दिव्यदृष्टि से देख कर बताओ-

कहि राजा  धृतराष्ट्र  हे संजय  कहो यथार्थ।

धर्म  धरा  कुरुक्षेत्र में,  जिन  ठाड़े  समरार्थ।।

मेरे सुत   औ पांडु के,  सैन्य सहित सब वीर।

कौन जतन करि भांति के, दकखि बताओ धीर।।


इस पर संजय अपनी दिव्यदृष्टि से कुरुक्षेत्र का विवरण देना आरम्भ करते हैं-

संजय कहि देखि भरि नैना, व्यूह खड़े पांडव की सेना।

द्रोण निकट दुर्योंधन जाई,  राजा कहे वचन ऐहि नाई।।


ऐसा सरल पद्यानुवाद किसी भी पाठक के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर के ही रहेगा। यह समय भी ‘गीता’ के उपदेशों को अपने जीवन में उतारने का है। आज ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के महत्व को सभी स्वीकार रहे हैं। बड़े-बड़े मैनेजमेंट गुरु ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में मैनेजमेंट के गुर ग्रहण कर लोगों को बता रहे हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां ‘गीता’ के श्लोकों का प्रयोग अपने कर्मचारियों में नई ऊर्जा का संचार करने के लिए कर रही हैं। कर्मचारियसों को ‘गीता’ का ज्ञान देने के लिए मोटिवेशन गुरुओं एवं ‘गीता’ के अध्येताओं को बुलाया जाता है। कहने का आशय यह है कि वर्तमान जीवन में भी ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ की प्रसंगिकता पूर्ववत् बनी हुई है जबकि आज युवाओं में संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का ज्ञान कम हो गया है। सीधा-सीधा उपदेशात्मक ज्ञान भी उन्हें लुभा नहीं पाता है। ऐसे में सरल शब्दों में पद्यानुवाद अत्यंत प्रभावशाली परिणाम दे सकता है। यूं भी पद्य की रागात्मकता देर तक मन-मस्तिष्क में ध्वनित होती रहती है तथा दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ती है। इस संदर्भ में जीवन को सही दिशा देने वाली ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का सरल भाषा में पद्यानुवाद कर डॉ. मनीष चंद्र झा ने अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। क्योंकि बाज़ार में उपलब्ध अर्थ एवं टीका सहित ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में श्लोकों के गद्य में अर्थ दिए रहते हैं जिनसे श्लोकों का अर्थ तो पता चल जाता है किन्तु श्लोकों के मर्म से रागात्मक जुड़ाव नहीं हो पाता है। डॉ. झा ने ‘गीता’ को सामान्य बोलचाल की भाषा में अनूदित कर सामान्य जन के लिए  ‘गीता’ के मर्म को समझने योग्य बना दिया है। ‘गीतगीता’ दोहे-चौपाइयों में निबद्ध है जिससे इसमें सुंदर लयात्मकता है, गेयता है।

डॉ. मनीष चंद्र झा आकाशवाणी और दूरदर्शन में भी अपनी छंदमुक्त और छंदबद्ध रचनाओं का पाठ कर चुके हैं तथा साहित्यसृजन में सतत् सक्रिय रहते हैं किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘गीतगीता’ उनकी एक अनुपमकृति है और उन्हें सागर के साहित्याकाश में दैदिप्यमान तारे की भांति स्थापित करती है।

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 08.05.2018)

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साहित्य वर्षा - 10
  ‘गीता’ के पद्यानुवाद के कवि डॉ. मनीष झा
   - डॉ. वर्षा सिंह

जब किसी रचना का एक-एक शब्द व्याख्यायित हो कर अंतस में समा जाए और फिर एक नवीन मौलिकाता के साथ यानी नए चोले में मुखरित हो तो वह सच्चा अनुवादकार्य होता है। इसे दूयरे शब्दों में कहा जाए तो अनुवाद कार्य अपने आप में चुनौती भरा कार्य है। इसे करते हुए मूल सामग्री के मर्म से भली-भांति तादात्म्य स्थापित होना आवश्यक हो जाता है। मूल सामग्री के मर्म को  आत्मसात किए बिना यदि अनुवाद कार्य किया जाता है तो वह भाषान्तरण, लिप्यांतरण अथवा शब्दांतरण तो हो सकता है किन्तु अनुवाद नहीं हो सकता है। उस पर पद्यानुवाद का कार्य तो और अधिक धैर्य, ज्ञान, सतर्कता और समर्पण की मांग करता है। पद्यानुवाद करने वाले के लिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि वह मूल सामग्री के मर्म को आत्मसात करे और साथ ही उसे इतना प्रचुर शब्द ज्ञान हो कि वह मूल के मर्म को काव्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए सही शब्द का चयन कर सके। जिससे मूल सामग्री अपने पूरे प्रभाव के साथ पद्यानुवाद में ढल सके। डॉ. मनीष चंद्र झा ने ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का पद्यानुवाद ‘गीतगीता’ के रूप में करते हुए पद्यानुवाद के सभी मानकों पर खरे उतरे हैं। उन्होंने पद्यानुवाद में भी कठिन मार्ग को चुना। डॉ. झा ने ‘गीता’ के श्लोकों को मुक्तछंद में नहीं बल्कि छंदबद्ध करते हुए दोहे और चौपाइयों में उतारा है। छंद अपने आप में विशेष श्रम मांगते हैं और यह श्रम डॉ. झा ने किया है।
26 सितम्बर 1969 में भागलपुर (बिहार) के ग्राम भ्रमरपुर में जन्मे डॉ. मनीष चंद्र झा ने मध्यप्रदेश के जबलपुर मेडिकल कॉलेज से एम.बी. बी. एस. तथा एम.एस. (अस्थिरोग) की उपाधि प्राप्त करने के बाद चिकित्साकार्य के लिए सागर नगर को अपने कार्यस्थल के रूप में चुना। उल्लेखनीय है कि उनकी जीवनसंगिनी डॉ. आराधना झा भी अस्थिरोग विशेषज्ञ हैं। सागर नगर के चिकित्सा क्षेत्र में झा दंपत्ति एक प्रतिष्ठित नाम हैं। चिकित्सा के साथ ही डॉ. मनीष चंद्र झा की साहित्य में भी अपार रूचि है और इसी रूचि के परिणाम स्वरूप उनकी प्रथम कृति ‘गीतगीता’ के रूप में पाठकों के सामने आई।          
‘श्रीभगवद्गीता’ भारतीय विचार दर्शन एवं जीवन दर्शन की अनुपम कृति है। यह ‘महाभारत’ महाकाव्य का अंश होते हुए भी अपने आप में सम्पूर्णता लिए हुए है। यह महाभारत के भीष्मपर्व में निहित है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर व्यक्ति के सामने आती हैं। यह व्यक्ति को उसके कर्त्तव्यों से परिचित कराती है, साथ ही अच्छे और बुरे में अन्तर करना भी सिखाती है।
‘श्रीभगवद्गीता’ की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जब कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवों की सेनाएं आमने-सामने आ खड़ी हुईं और युद्ध आरंभ करने के लिए मात्र एक हुंकार की देरी थी, तभी अर्जुन की दृष्टि सामने खड़े योद्धाओं पर पड़ी। उसके सामने उसके सभी कौरव भाई, मामा, चाचा आदि रिश्तेदार खड़े थे। उन सबसे बढ़ कर भीष्म पितामह जिनका अर्जुन बहुत सम्मान करता था, वे भी उस पंक्ति में खड़े थे जिन पर अर्जुन को अपने बाणों से वर्षा करनी थी। अर्जुन यह सोच कर स्तब्ध रह गया कि मैं अपने भाइयों, अपने संबंधियों पर कैसे बाण चला सकता हूं? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा। यह विचार आते ही उसने श्री कृष्ण से कहा कि मैं यह युद्ध नहीं लडूंगा। मुझसे अपने भाइयों, अपने पितामह जैसे संबंधियों पर शस्त्र नहीं चलाया जा सकेगा। उस घड़ी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि युद्ध लड़ने के रूप में जो कार्य तुम करने जा रहे हो वह धर्म सम्मत है। बुराई का नाश कभी अधर्म हो ही नहीं सकता है। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, वे तुम्हारे संबंधी नहीं वरन् अधर्म के अनुयायी हैं अतः इनका नाश करना तुम्हारा धर्म है। यही बात समझाते हुए श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान अर्जुन को दिया वही गीता का ज्ञान कहलाया। महर्षि वेदव्यास ने इस ज्ञान को ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के रूप में ‘‘महाभारत’’ महाकाव्य में समाहित किया है।
‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का महत्व आज भी प्रसंगिक है। आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति कोई भी काम करने से पहले उसके अच्छे परिणाम पाने की कामना करने लगता है और इस चक्कर में वह अपना संयम गवां बैठता है। ऐसे में अच्छे परिणाम नहीं मिलते हैं और वह हताश हो कर ग़लत क़दम उठाने लगता है। अतः आज के वातावरण में ‘गीता’ का यह सुप्रसिद्ध श्लोक मार्गदर्शक का काम करता है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।

इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो पूर्ण निष्ठा से साथ व्यक्ति कर्म नहीं कर सकेगा। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना काम करते रहो।
इस श्लोक का बहुत ही सुंदर पद्यानुवाद डॉ. मनीष चंद्र झा ने इन शब्दों में किया है-
कहि प्रभु फल तजि कामनाए कर्म करे निष्काम।
संयासी  योगी   वही,  नहिं  अक्रिय  विश्राम।।

इसी तरह वर्तमान जीवन में दिखावा इतना अधिक बढ़ गया है कि मन की शांति ही चली गई है। यह भी मिल जाए, वह भी मिल जाए की लालसा व्यक्ति को निरन्तर भटकाती रहती है। आज युवा पीढ़ी कर्मशील मनुष्य नहीं बल्कि ‘पैकेज़’ में क़ैद दास बनते जा रहे हैं क्यों कि उन्हें पैकेज़ की चार अंकों की राशि दिखाई देती है, जीवन की स्थिरता और मन की शांति नहीं। दुख की बात यह है कि उन्हें इस दासत्व के मार्ग में माता-पिता और अभिभावक ही धकेलते हैं। जबकि ऐसा करके वे अपने बुढ़ापे का सहारा भी खो बैठते हैं। इस संबंध में ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में कहा गया है -
  विहाय कामान्यः कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।
  निर्ममो निरहंकार स शांति मधि गच्छति।।
अर्थात् मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।

डॉ. मनीष चंद्र झा के शब्दों में इसी भाव को देखिए -
विषयन इन्द्रिन के संयोगा,  जे आरम्भ  सुधा  सम भोगा।
अंत परंतु गरल सम जेकी, वह सुख राजस कहहि विवेकी।।

धृतराष्ट्र संजय से कहते हैं कि कुरुक्षेत्र के युद्धीभूमि पर जो भी हो रहा है, वह मुण्े अपनी दिव्यदृष्टि से देख कर बताओ-
कहि राजा  धृतराष्ट्र  हे संजय  कहो यथार्थ।
धर्म  धरा  कुरुक्षेत्र में,  जिन  ठाड़े  समरार्थ।।
मेरे सुत   औ पांडु के,  सैन्य सहित सब वीर।
कौन जतन करि भांति के, दकखि बताओ धीर।।

इस पर संजय अपनी दिव्यदृष्टि से कुरुक्षेत्र का विवरण देना आरम्भ करते हैं-
संजय कहि देखि भरि नैना, व्यूह खड़े पांडव की सेना।
द्रोण निकट दुर्योंधन जाई,  राजा कहे वचन ऐहि नाई।।

ऐसा सरल पद्यानुवाद किसी भी पाठक के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर के ही रहेगा। यह समय भी ‘गीता’ के उपदेशों को अपने जीवन में उतारने का है। आज ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ के महत्व को सभी स्वीकार रहे हैं। बड़े-बड़े मैनेजमेंट गुरु ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में मैनेजमेंट के गुर ग्रहण कर लोगों को बता रहे हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां ‘गीता’ के श्लोकों का प्रयोग अपने कर्मचारियों में नई ऊर्जा का संचार करने के लिए कर रही हैं। कर्मचारियसों को ‘गीता’ का ज्ञान देने के लिए मोटिवेशन गुरुओं एवं ‘गीता’ के अध्येताओं को बुलाया जाता है। कहने का आशय यह है कि वर्तमान जीवन में भी ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ की प्रसंगिकता पूर्ववत् बनी हुई है जबकि आज युवाओं में संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का ज्ञान कम हो गया है। सीधा-सीधा उपदेशात्मक ज्ञान भी उन्हें लुभा नहीं पाता है। ऐसे में सरल शब्दों में पद्यानुवाद अत्यंत प्रभावशाली परिणाम दे सकता है। यूं भी पद्य की रागात्मकता देर तक मन-मस्तिष्क में ध्वनित होती रहती है तथा दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ती है। इस संदर्भ में जीवन को सही दिशा देने वाली ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ का सरल भाषा में पद्यानुवाद कर डॉ. मनीष चंद्र झा ने अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। क्योंकि बाज़ार में उपलब्ध अर्थ एवं टीका सहित ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में श्लोकों के गद्य में अर्थ दिए रहते हैं जिनसे श्लोकों का अर्थ तो पता चल जाता है किन्तु श्लोकों के मर्म से रागात्मक जुड़ाव नहीं हो पाता है। डॉ. झा ने ‘गीता’ को सामान्य बोलचाल की भाषा में अनूदित कर सामान्य जन के लिए  ‘गीता’ के मर्म को समझने योग्य बना दिया है। ‘गीतगीता’ दोहे-चौपाइयों में निबद्ध है जिससे इसमें सुंदर लयात्मकता है, गेयता है।
डॉ. मनीष चंद्र झा आकाशवाणी और दूरदर्शन में भी अपनी छंदमुक्त और छंदबद्ध रचनाओं का पाठ कर चुके हैं तथा साहित्यसृजन में सतत् सक्रिय रहते हैं किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘गीतगीता’ उनकी एक अनुपमकृति है और उन्हें सागर के साहित्याकाश में दैदिप्यमान तारे की भांति स्थापित करती है।
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