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शनिवार, अप्रैल 14, 2018

साहित्य वर्षा-6 डॉ. महेश तिवारी का काव्य-समीक्षा चिंतन - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी छठवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक डॉ महेश तिवारी का काव्य- समीक्षा चिंतन।....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा : 6

डॉ. महेश तिवारी का काव्य-समीक्षा चिंतन
- डॉ. वर्षा सिंह

साठोत्तरी हिन्दी कविता के संदर्भ में कवि धूमिल ने गहराई से चिन्तन-मनन किया कि आखिर कविता क्या है ? कवि कर्म की जिम्मेदारियां और सरोकार अगर कुछ है तो किसके प्रति है? कविता के तत्वों में से किस तत्व के साथ रहना चाहिए? क्योंकि कुछ पाश्चात्य विचारों के समर्थक विद्वानों का मानना था कि भावना का प्रबल आवेग क्षणिक आनन्द की अनुभूति तो करा सकती है और कविता कुछ समय के लिए हमारे तनाव दूर तो कर सकती है ,किन्तु जीवन को सही तरीके से परिभाषित नहीं कर सकती। लेकिन कवि धूमिल ने पाया कि कविता का जीवन से गहरा नाता है और इसीलिए जीवन के कठिन संघर्षों का की व्याख्या भी कविता में की जा सकती है। जीवन के प्रत्येक उतार-चढ़ाव पर कविता लिखी जा सकती है। इसी तरह के विचार डॉ महेश तिवारी के भी हैं। वे कविता को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम तो मानते ही हैं, साथ ही वे कविता को भावनाओं के प्रस्फुटन के उत्तम धरातल के रूप में भी स्वीकार करते हैं।
वस्तुतः काव्य साहित्य की वह विधा है जो हृदय में रसों का संचार करती है, वह रस शांत, श्रृंगार से ले कर वीभत्स तक हो सकते हैं। काव्य की समीक्षा करना अत्यंत चुनौती भरा काम माना गया है क्योंकि काव्य का संबंध मस्तिष्क की अपेक्षा हृदय से माना गया है। मस्तिष्क तर्कों के आधार पर काम करता है जबकि हृदय तर्कों को के आधार पर काम नहीं करता। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है कि ‘‘काव्य का आकलन गद्य की तरह नहीं किया जा सकता है। काव्य का आकलन करने के लिए समीक्षक में रसबोध होना आवश्यक है।’’ हिन्दी काव्य की समीक्षाकला की विस्तृत मीमांसा की है समीक्षक डॉ. महेश तिवारी ने। इस विषय पर उनका एक ग्रंथ भी है-‘‘हिन्दी काव्य-समीक्षा के प्रतिमान’’। जिसमें उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहासबद्ध कालखण्डों में विभक्त काव्य समीक्षा की प्रवृत्तियों को एक पुस्तक के रूप में संजोया है। सन् 1050 में सागर जिले के देवल चौरी ग्राम में जन्में डॉ. महेश तिवारी के दो काव्य संकलन भी प्रकाशित हो चुके हैं। वे अध्यापन, राजनीति, पत्रकारिता और लोकजीवन के अपने अनुभवों को अपने उद्बोधनों में साझा किया करते हैं। काव्य की प्रवृत्तियों के प्रति डॉ. तिवारी की एक गहरी समीक्षात्मक दृष्टि है। उन्होंने भारतेन्दुयुग से छायावादोत्तर युग तक की काव्य प्रवृत्तियों, कविता की आलोचना के विकास, उसके मूल्य परिवर्तन तथा मूल्यचिंतन को बड़ी सूक्ष्मता से जांचा-परखा है।
डॉ. तिवारी का कहना है कि ‘‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के साहित्य को राष्ट्र की नई आकांक्षाओं के साथ जोड़ने का भी प्रयास किया गया है।’’ वे मानते हैं कि ‘‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समीक्षादर्श का मूलतत्व रस और लोकमंगलवाद है।’’ डॉ. महेश तिवारी के पास काव्य की समीक्षा का एक अपना मौलिक पैमाना है। वे कविता को सौंदर्यबोध ओर मनोविज्ञान दोनों से जोड़ कर देखते हैं। वे मानते हैं कि कविता को सपाटपन से बचना चाहिए। कविता का मूल जब रस है तो कविता में एक लयबद्धता भी रहे, भले ही कविता छंदबद्ध हो या अतुकांत हो। काव्य को किस प्रकार की समीक्षा की आवश्यकता है, इस तथ्य की गहराई में उतरते हुए डॉ महेश तिवारी ने भारतेंदु और द्विवेदी युगीन काव्य समीक्षा के गुण-दोष का अकलन करते हुए लिखा है कि -‘‘शास्त्र की रूढ़ियों को महत्व न देते हुए भी महत्वपूर्ण शास्त्रीय स्थापनाओं को आदरणीय द्विवेदी ने खुलेमन से स्वीकार किया है। काव्य के गुण-दोष विवेचन में वे शास्त्रीय मान्यताओं के अधिकाधिक निकट रहे।’’ वहीं, जब डॉ तिवारी आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समीक्षादर्श की चर्चा करते हैं तो स्पष्ट करते हैं कि ‘‘कविता के विषय में आचार्य शुक्ल की मूलवर्ती धारणा यही है ि कवह मनुष्य की, मनुष्यता की सबसे बड़ी संरक्षिका है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ जैसे-जैसे मनुष्यता के खो जाने का संकट बढ़ता जा रहा है, कविता की अवश्यकता भी बढ़ती जा रही है। आचार्य शुक्ल ने कविता के भविष्य के प्रति निष्कंप शब्दों में अपनी आस्था व्यक्त की है, जब तक मनुष्ता है कविता भी रहेगी।’’
हिन्दी के स्वच्छंदतावादी कवियों के चिंतन के संबंध में डॉ. महेश तिवारी कहते हैं कि ‘‘यह सही है कि छायावादी कवियों के ये विचार समीक्षा की दृष्टिकोण से बहुत गहरे और तात्विक नहीं है किन्तु इतना अवश्य है कि स्वानुभूति से सम्बद्ध होने के कारण वे एक ऐसी प्रामाणिकता से युक्त हो उठे हैं, जिसे ध्यान में रखना ही होगा।’’ प्रयोगवादी कविताओं के संबंध में डॉ. तिवारी धर्मवीर भारती के इस कथन को उद्धृत करते हैं कि ‘‘प्रयोग और प्रगति में विरोध नहीं है। क्योंकि प्रयोग स्वयं प्रगति के प्रति आस्थावान होता है। प्रयोग उसी स्थिति में प्रगति का विरोधी है जहां प्रगति प्रयोग की सहज गति न बन कर, स्वचालित और आत्मानुभूति पर आधारित न हो कर बाह्यारोपित होती है। प्रगतिवाद की प्रगति ऐसी बाह्यारोपित प्रगति है।सच्ची प्रगति मनुष्य की विकासशील प्रवृत्ति में निहित होती है।’’

‘‘कविता की परख के जो प्रतिमान छायावाद तक विकसित हुए, छायावातोत्तर काव्य समीक्षकों ने अपने समय की कविता के संदर्भ में मूल्यांकन के नए आयाम और नई दिशाएं उद्घाअत कीं। आलोचना में कविता के सर्वांगपूर्ण विश्लेषण की प्रवृत्ति विकसित हुई।’’ यह मानना है समीक्षक डॉ. महेश तिवारी का। डॉ. तिवारी ने पी. एचडी. उपाधि के लिए लिखा गया अपना शोधप्रबंध उपाधि मिलने के बहुत समय बाद प्रकाशित कराया। इस संबंध में वे बताते हैं कि पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों में उलझे रहने के कारण उनका ध्यान इस ओर कभी नहीं गया कि उन्हें अपना शोधग्रंथ प्रकाशित कराना चाहिए। किन्तु उनके गुरू डॉ शिवकुमार मिश्र ने उनसे इच्छा व्यक्त की कि वे डॉ. तिवारी का शोधग्रंथ पुस्तकाकार प्रकाशित रूप में देखना चाहते हैं। अपने गुरू की इच्छा को पूर्ण करने के लिए डॉ तिवारी ने अपने शोधग्रंथ को प्रकाशित कराने का निश्चय किया। इस संबंध में डॉ महेश तिवारी ने अपने शोधप्रबंध के आमुख में लिखा है कि -‘‘जनवरी, 2013 में मैं उनसे (डॉ. शिवकुमार मिश्र से) मिलने के लिए वल्लभ विद्यानगर, आनंद, गुजरात गया तो उस समय भी यह बात चली। इस बार उनकी बात मान कर मैंने सागर पहुंचते ही शोध प्रबंध उनके पास भेज दिया। फिर उन्होंने शोध प्रबंध को पुस्तक का रूप् देने की जिम्मेदारी अपने परम सहयोगी डॉ योगेन्द्र नाथ मिश्र को सौंप दी। परन्तु 21 जून 2013 को विधाता ने उन्हें सदा के लिए हमसे छीन लिया। इस आघात से उबरने के बाद योगेन्द्रनाथ जी ने यह काम शुरू किया। उन्होंने यथावश्यक थोड़ा काट-छांट करके मेरे शोध प्रबंध को पुसतक का रूप दिया।’’ अपने प्रिय गुरू को खोने के बाद डॉ. तिवारी का शोधग्रंथ प्रकाशित हुआ जिस संबंध में उन्हें सदा यह पीड़ा सालती रहती है कि वे पुस्तक के रूप में प्रकाशित अपने शोधग्रंथ को अपने गुरू के चरणों में नहीं रख पाए।

उल्लेखनीय है कि डॉ. महेश तिवारी उस परिवार से संबंध रखते हैं जो देवल चौरी गांव में विगत लगभग 114 वर्षों से रामलीला का आयोजन कर रहा है। यह रामलीला हर साल वसंत पंचमी से शुरू होकर करीब एक सप्ताह तक चलती है। डॉ महेश तिवारी के पूर्वज स्व. छोटे लाल तिवारी ने गांव में रामलीला की शुरुआत की थी। इन्हें पास के पड़रई गांव से इसकी प्ररेणा मिली थी। वे खुद व्यास गादी पर बैठ हारमोनियम बजाते व कार्यक्रम का संपूर्ण संचालन करते थे। रामलीला में शुरू से ही स्थानीय कलाकार काम करते आ रहे है। कार्यक्रम शुरू होने के एक महीने पहले से सभी कलाकार रामलीला के किरदारों का अभिनय करते हैं। दादाजी का स्वर्गवास होने के बाद स्व. ओंकार प्रसाद तिवारी, इसके बाद भगवत शरण और रमेश कुमार और इनके बाद हम सभी परिवार के लोग रामलीला का संचालन कर रहे हैं। इस आयोजन का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि वर्तमान में जनक और परशुराम का अभिनय करने सहित अन्य रामलीला के प्रमुख कार्यों का संचालन करने वाले भारत भूषण तिवारी ने सन् 1990 में सिविल से बीई की थी। इसके बाद कॉलेज में अध्यापन कार्य भी किया। लेकिन उन्हें रामलीला के लिए कॉलेज से पर्याप्त छुट्टी नहीं मिल पाती थी। इसलिए भगवान श्रीराम का नाम लेकर नौकरी ही छोड़ दी और पूरी तरह से रामलीला के आयोजन के प्रति समर्पित हो गए। डॉ. महेश तिवारी अपने गांव की इस परम्परा पर गर्व करते है और मानते हैं कि यदि परम्पराओं का लोकमंगल के लिए पालन किया जाए तो उनकी सार्थकता बनी रहती है।
लोकमांगलिक पारिवारिक परम्पराओं के धनी डॉ. महेश तिवारी सागर नगर के उन समीक्षकों में से एक हैं जो काव्य की समीक्षा को यथार्थ और कल्पना दोनों आधार पर एक साथ आकलन करने को उत्तम विधि मानते हुए युवा समीक्षकों का पथप्रदर्शन करने की क्षमता रखते हैं।
आज जब यह अकसर चिन्ता प्रकट की जाती है कि काव्य की शैलियों में जिस तेजी से परिवर्तन हुए एवं आधुनिकता को कविता ने जिस तत्परता से अंगीकार किया उस गंभीरता से काव्य-समीक्षक सामने नहीं आए। खेमेबाजी ने भी समीक्षा की विधा को बहुत क्षति पहुंचाई और इसीलिए आज समीक्षकों का संकट और अधिक गहरा गया है। ऐसे समय में डॉ महेश तिवारी अपनी मौलिक समीक्षा दृष्टि के साथ सामने आकर एक आश्वस्ति की दिशा दिखाते प्रतीत होते हैं।            
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(साप्ताहिक सागर झील दि. 10.04.2018)
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