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शनिवार, जुलाई 23, 2016

My Poetry


भोर हो कर भी ज़िन्दगी ठहरी
गर  ख़ुमारी  न रात की  उतरी

ज़िद पे गर आ गये विफल होगी
लाख़ दुश्मन की चाल हो गहरी

आइये मिल के हम करें कोशिश
हो  न  'वर्षा' कहीं  कभी  ज़हरी
    - डॉ वर्षा सिंह

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