जितेन्द्र ‘जौहर’जी,हार्दिक धन्यवाद! आपकी स्मृति दुरुस्त है!ग़ज़ल-केन्दित समीक्षात्मक आलेख पत्रिकाओं में लिखे हैं मैने,मेरे ब्लॉग पर आने के लिए पुन:धन्यवाद!
कट रहे जंगल और हम खामेाश है।बहुत सही लिखा कि जंगल ही नहीं रहेगे तो फूल की तो बात ही क्या न वर्षा होगी न फसल । पशु पक्षियों को तो हम चिडिया घर में रख लेने अनाज विदेश से मंगा लेगे । । लेकिन यह तो गर्मी बढती जारही है उसके घर घर ए सी कहा से लायेंगे , बच्चों को पानी कहां से पिलायेंगे । आपकी यह कविता किसी अखवार में प्रकाशित होनी चाहिये क्यांेकि यहां कितने लोग पढ पायेंगे ज्यादा लोग पढेंगे तो प्रेरणा पाकर इस ओर कुछ ध्यान देंगे
वर्षा जी, यही तो अफ़सोस है । हमारी आँख के सामने भ्रष्टाचार और अत्याचार हो रहे हैं , चाहे वो मनुष्य पर हों, पशुओं पर हों या फिर प्रकृति पर। लेकिन हम सभी खामोश हैं। इस ख़ामोशी का खामियाजा भुगत रहे हैं , फिर भी नहीं सचेत होते हम। इस सार्थक रचना के लिए आभार।
वर्षाजी, हरीले शब्द के प्रयोग के साथ इतनी संतुलित रचना पढ़ी तो मन हरिया गया...
जवाब देंहटाएंऐसे लगा जैसे..
छानियों के ठेठ नीचे
पार पर पैंताने भींचे
कौन टूरी छौंकती है
भूनकर आलू रसीले
पत्तलों परसन पनीले
आ गए सावन हरीले
डॉ. रामकुमार जी, हार्दिक धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत ....पर्यावरण पर चिन्ता जायज़ है ..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
वर्षा जी,
जवाब देंहटाएंपत्रिकाओं में आपका नाम कुछ पढ़ा हुआ-सा लगता है...यदि मेरी स्मृति दुरुस्त है...तो शायद वह आपका आलेख था...ग़ज़ल-केन्दित समीक्षात्मक आलेख...!?
ब्लॉग पर आपको पहली बार पढ़ रहा हूँ...ख़ुशी हुई! अब आता रहूँगा मैं!
जितेन्द्र ‘जौहर’जी,हार्दिक धन्यवाद! आपकी स्मृति दुरुस्त है!ग़ज़ल-केन्दित समीक्षात्मक आलेख पत्रिकाओं में लिखे हैं मैने,मेरे ब्लॉग पर आने के लिए पुन:धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसंगीता स्वरुप जी,मेरे ब्लॉग पर आने के लिए पुन:धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंकट रहे जंगल और हम खामेाश है।बहुत सही लिखा कि जंगल ही नहीं रहेगे तो फूल की तो बात ही क्या न वर्षा होगी न फसल । पशु पक्षियों को तो हम चिडिया घर में रख लेने अनाज विदेश से मंगा लेगे । । लेकिन यह तो गर्मी बढती जारही है उसके घर घर ए सी कहा से लायेंगे , बच्चों को पानी कहां से पिलायेंगे ।
जवाब देंहटाएंआपकी यह कविता किसी अखवार में प्रकाशित होनी चाहिये क्यांेकि यहां कितने लोग पढ पायेंगे ज्यादा लोग पढेंगे तो प्रेरणा पाकर इस ओर कुछ ध्यान देंगे
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जवाब देंहटाएंवर्षा जी,
यही तो अफ़सोस है । हमारी आँख के सामने भ्रष्टाचार और अत्याचार हो रहे हैं , चाहे वो मनुष्य पर हों, पशुओं पर हों या फिर प्रकृति पर। लेकिन हम सभी खामोश हैं। इस ख़ामोशी का खामियाजा भुगत रहे हैं , फिर भी नहीं सचेत होते हम। इस सार्थक रचना के लिए आभार।
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सार्थक चिंतन
जवाब देंहटाएंडूबती जाती है आस
गुम हो रहे पलाश
हरीले जंगल को घटती
जा रही दिन-ब-दिन सास
खत्म गर हो जायगा
धरती का ये हरा रंग
लुप्त हो जायेगी
हमारी भी तो जीवन तरंग
झील जी,आपको बहुत धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअपर्णा "पलाश"जी,आपको बहुत धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंपर्यावरण पर केन्द्रित रचना के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएं- विजय तिवारी "किसलय" जबलपुर
KAM SE KAM VARSHA SINGH KHAMOSH NAHI HAI.
जवाब देंहटाएंविजय तिवारी " किसलय "जी,मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद! आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंगिरीश पंकज जी, आप जैसे सुधिजन हों तो ख़ामोश बैठने का प्रश्न ही नहीं है। इसी तरह उत्साहवर्द्धन करते रहें।
जवाब देंहटाएंखाक होते दिन सजीले.... वाह. क्या बात है वर्षा जी. बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंवन्दना अवस्थी दुबे जी, हार्दिक धन्यवाद! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंआपको बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरे ब्लाग पर आप सादर आमंत्रित हैं।
जवाब देंहटाएंप्रेम सरोवर जी, हार्दिक धन्यवाद! आपका मेरे ब्लाग पर आना अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएं`कट रहे जंगल हरीले और हम खामोश हैं !`
जवाब देंहटाएंवाह! सुन्दर,अति सुन्दर !
बहुत दिनों बाद अच्छा गीत पढने को मिला !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी, बहुत -बहुत ..शुक्रिया! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
जवाब देंहटाएंmanushy jeevan ke aadhar hain jangal...
जवाब देंहटाएंsarthak vishay par likha...achchha geet.
सुरेन्द्र सिंह " झंझट " जी, हार्दिक धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआप तो बहुत सुन्दर लिखती हैं...बधाई.
जवाब देंहटाएं'पाखी की दुनिया' में भी आपका स्वागत है.
Thanks little Akshita (Pakhi) .
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