शनिवार, अप्रैल 14, 2018

साहित्य वर्षा : 5 समसामयिक सरोकार के कवि रुद्र - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्र "सागर झील" में प्रकाशित मेरा कॉलम "साहित्य वर्षा" । जिसकी पांचवीं कड़ी में पढ़िए मेरे शहर सागर के वरिष्ठ साहित्यकार टीकाराम त्रिपाठी 'रुद्र' पर केंद्रित आलेख -  "समसामयिक सरोकार के कवि रुद्र"।....  और जानिए मेरे शहर के साहित्यिक परिवेश को  ....

साहित्य वर्षा : 5
समसामयिक सरोकार के कवि "रुद्र"
                                                       - डाॅ. वर्षा सिंह
             ''चाहते हो उच्च मस्तक राष्ट्र का तुम
या कि जनकल्याण जो मस्तिष्क में ही अचानक तुम्हें कुछ कुरेदता है
देर क्यों है आज ही कर लो प्रतिज्ञा
हो रहा अपराध, जनहित की अवज्ञा
अन्यथा युग क्षम्य कर न पायेगा
बसूले  की धार को अजमायेगा'
       "तमाई" काव्य संग्रह में संग्रहीत कवि रुद्र की यह कविता राष्ट्र के प्रति समर्पण की उच्च भावनाओं को जागृत करने वाली है।
     कवि टीकाराम त्रिपाठी ‘रुद्र’ सागर के वरिष्ठ कवियों में एक ख्यात नाम हैं। 01 जुलाई 1957 को जन्में कवि ‘रुद्र’ तीन भाषाओं - हिन्दी, अंग्रेजी एवं संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त हैं। अध्यापन कार्य से जुड़े कवि ‘रुद्र’ विधि स्नातक (एल.एल.बी) भी हैं। इनके तीन काव्य संग्रह ‘तमाई’, ‘आर्तनाद’ एवं ‘मन्तव्य’ प्रकाशित हो चुके हैं। इन तीनों काव्य संग्रहों से कवि ‘रुद्र’ के काव्य संसार का परिचय मिलता है। विचारों से जनवादी रुझान और छंदमुक्त शैली उनकी कविताओं की विशेषता है। कवि ‘रुद्र’ की कविताओं में लोकधर्मिता सतत् प्रवाहमान है। वे अपनी कविताओं के माध्यम से अव्यवस्थाओं को ललकारते हैं और समाज के सबसे उपेक्षित तबके की पैरवी करते दिखाई देते हैं। वे कलुषित राजनीति पर चोट करते हैं। वे भ्रष्टाचारियों पर कटाक्ष करते हैं और विगत के दृष्टांत देते हुए आगत के सुधरने का आह्वान करते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जिस प्रकार राजनीतिक मूल्यों में निरंतर गिरावट आई है, उस पर दृष्टिपात करते हुए कवि ने अपनी कविता ‘विकास के आयाम’ में लिखा है-
‘संसद बन गई है, वाजिद अली शाह का दरबार
जहां से राज्यों में
राग-दरबारी का आयात हो रहा है।’
कवि ने इस ओर भी संकेत किया है कि जिस प्रकार अंग्रेजों के समय में फूट डालो राज करो की नीति अपनाई गई उसी प्रकार आज भी रातनीतिक लाभों के लिए आर्थिक और जातिगत वर्गभेद का पोषण किया जाता है-
चर्चा बिना पैर के,
बहुत देर रात तक चली है
आखिर वह हमारी चार दीवारों की ओट में पली है।
सुबह हुई,
एक नई दीवार उठी,
एक आयत दो वर्गों में विभाजित हो गया,
वर्ग संघर्ष जारी है
क्या पता कुर्सी पर कब किसकी पारी है ?’
       आज आए दिन कर्जे से त्रस्त हो कर किसानों द्वारा अत्महत्या करना और बैंक घोटालों की खबरें पढ़ने को मिलती रहती हैं। इस दुरावस्था का आकलन कवि ने गोया एक दशक पहले ही कर लिया था। अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘तमाई’ की पहली कविता में वे ये पंक्तियां लिखते हैं-
‘बैंक वाले गरीबों के बैल छुड़ाते हैं,
और अमीरों के अरबों के कर्ज को बताते हैं डूबंत खाता
यानी कि डेड अकाउंट
कैसे होगा यह सब बराबर।’
       अपनी कविताओं में छांदासिक प्रवाह को पिरोते हुए कवि ‘रुद्र’ ने आमजन की पीड़ा को बड़ी बारीकी से पिरोया है। ‘भारत उदित हो गया’ शीर्षक कविता की उनकी ये पंक्तियां देखिए-
‘पैरों में है फटी बिवाई, नहीं दिख सकी पीर पराई
बड़े खा रहे रोज मिठाई, छोटे तरसें आंख दिखाई
दरस-परस दुर्घटित हो गया, देखो भारत उदित हो गया।’
       कवि का मन इस बात को देख कर दुखी होता है कि देश का नागरिक आज भी भूख और गरीबी से जूझने को विवश हेै। इस त्रासद वातावरण को प्राचीन कथाओं के पात्रों की उपमाओं के साथ तुलना करते हुए इन शब्दों में सामने रखा है-
‘भूख से भूखे तृषित हैं नागरिकगण
आदमी के वेष में है छिपा रावण
महिष रक्तपान हो खाद्यान्न जिसका
कुम्भकर्णी युग बना काशी अभी भी।
वंदनाक्रम भी तरीका भी बदलता
सुन रहे सृजती विधा का स्वर बदलता
खो गए संदेश सुख, भगवत भजन अब
होलिका प्रहलाद की प्यासी अभी भी।’
      कवि ‘रुद्र’ समाज को कुरीतियों से मुक्त देखना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि दहेज जैसी कुप्रथायें खत्म कर दी जाएं-
‘मिसमिसी दंतावली की मत बनाओ
फिर किसी अनब्याहिता को मत सताओ
डावरी कस्टम खत्म कर यश कमाओ।’
      इस समय समूची दुनिया को जो संकट सबसे अधिक भयभीत कर रहा है वह है पर्यावरण असंतुलन, जिसका जिम्मेदार स्वयं मनुष्य है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई ने पर्यावरणीय तत्वों के संतुलन को बिगाड़ दिया है। ऋतुओं का क्रम बदलता जा रहा है और भूमि में जल स्तर घटता जा रहा है। अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि यदि तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए होगा। इस विकट स्थिति से निपटने के लिए कवि ‘रुद्र’ इस प्रकार आग्रह करते हैं-
‘लोकमंगल के लिए हम भिड़ पड़े इस व्याकरण से
जगत की चिंता करें कुछ मित्र पर्यावरण से
कल तलक जो जिया हमने, आज उसको भूल जाएं
धरा को फिर हरा करके मृत्तिका का ऋण चुकाएं
पहन कर चूनरी धानी धरा के गीत गाएं हम।’
      ‘‘बीती बात बिसार के आगे की सुध लेय’’ का संदेश देती कवि टीकाराम त्रिपाठी ‘रुद्र’ की कविताएं बिगड़ी हुई परम्पराओं, सामाजिक दुरावस्थाओं और राजनीतिक कलुष का तर्पण करते हुए एक सुंदर भविष्य रचने का तीव्र आग्रह करती हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू एवं संस्कृत के शब्दों को अपनी काव्य पंक्तियों में सहजता से पिरोते हुए आम बोलचाल की भाषा को अपनाना कवि के कवित्व की विशेषता है। कवि टीकाराम त्रिपाठी ‘रुद्र’ सागर के काव्य जगत में एक अलग ही अध्याय गढ़ते दिखाई देते हैं।

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(साप्ताहिक सागर झील दि. 03.04.2018)
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