बुधवार, मार्च 28, 2018

कह दिया.....

कह दिया मौसम ने सब कुछ, किन्तु वो समझा नहीं
क्या पता समझा भी हो तो, कुछ कभी कहता नहीं

ज़िंदगी में यूं भी पहले उलझनें कुछ कम न थीं
की जो सुलझाने की कोशिश, कुछ मगर सुलझा नहीं

भीड़ में, एकांत में, गुलज़ार में, वीरान में
कौन जाने क्या हुआ है, मन कहीं लगता नहीं

इस क़दर बदले हुए हैं, बंधनों के मायने
है खुला पिंजरा, परिंदा अब मगर उड़ता नहीं

लाख कोशिश कीजिये, "वर्षा" यकीनन जानिये
लग कभी सकता किसी की, सोच पर पहरा नहीं
- डॉ. वर्षा सिंह



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