रविवार, जून 05, 2016

पर्यावरण : बुंदेली छंद

पर्यावरण :- एक बुंदेली छंद
      - डॉ वर्षा सिंह

काट-काट जंगल खों,
बस्तियां बसाय दईं
मूंड़ धरे घुटनों पे
सबई अब रोए हैं।

‘पर्यावरण’ की मनो
ऐसी- तैसी कर डारी
बेई फल मिलहें जाके
बीजा हमने बोए हैं।

गरमी के मारे सबई
भुट्टा घाईं भुन रए
‘वर्षा’ खों टेर- टेर
बदरा खों रोय हैं।

कछू तो सरम करो
ऐसो- कैसो स्वारथ है
दूध की मटकिया में
मट्ठा जा बिलोए हैं।
          -–----

5 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीया बर्षा जी ..सागर से दूर रहकर भी सागर की यादें ताजा हो गयीं ..वाकई सहज तरीके से कितनी ज्वलंत समस्याओं की तरफ ध्यान आकर्षित किया है आपने इस रचना के माध्यम से ..लाजबाब इस रचना के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें सादर प्रणाम के साथ

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  2. आदरणीया बर्षा जी ..सागर से दूर रहकर भी सागर की यादें ताजा हो गयीं ..वाकई सहज तरीके से कितनी ज्वलंत समस्याओं की तरफ ध्यान आकर्षित किया है आपने इस रचना के माध्यम से ..लाजबाब इस रचना के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें सादर प्रणाम के साथ

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